समान नागरिक संहिता : आखिर धामी ने अन्य भाजपाई मुख्यमंत्रियों से बढ़त तो ले ही ली !
-जयसिंह रावत
समान नागरिक संहिता का भविष्य चाहे जो भी हो, मगर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस मामले में अन्य भाजपाई मुख्यमंत्रियों से बढ़त तो ले ही ली है। केंद्र सरकार द्वारा बनाये जाने वाली सामान नागरिक संहिता के प्रेरणा श्रोत भी धामी ही माने जायेंगे। वरना यह मुद्दा 22 वें विधि आयोग की प्राथमिकताओं में था ही नहीं। अगर होता तो आयोग अपने मूल कार्यकाल में ही इस विषय पर कार्यवाही शुरू कर देता।
उत्तराखण्ड सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता कानून का मजमून तैयार करने के लिये गठित रंजना देसाई कमेटी का 2 जून को दिल्ल्ी में 22वें विधि आयोग से मिलना ही था कि आयोग ने भी अन्य विषयों को पीछे छोड़ कर तत्काल 14 जून को समान नागरिक संहिता पर पहल शुरू कर दी। आयोग ने फिलहाल इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर रायशुमारी शुरू कर दी। विधि आयोग द्वारा आनन फानन में समान नागरिक संहिता को लेकर आगे बढ़ने से यही संकेत मिलते हैं आयोग जल्दी ही इस विषय पर अपनी सकारात्मक राय दे देगा और 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ही देश में समान नागरिक संहिता लागू हो जायेगी, चाहे उसका कानूनी या संवैधानिक हस्र जो भी हो। एक बार कानून लागू होने के बाद केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार गर्व के साथ दावा कर सकेगी कि उसने कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद राम मंदिर का निर्माण भी करा दिया और तीसरा महत्वपूर्ण संकल्प समान नागरिक संहिता को भी व्यवहारिक धरातल पर उतार दिया। अगर कानून को अदालत में चुनौती दी गयी तो भी उसका राजनीतिक लाभ यह कह कर उठाया जा सकता है कि हमने तो वायदा पूरा कर दिया मगर विरोधी ऐसा नहीं चाहते हैं।
मोदी सरकार के ही कार्यकाल में गठित 21वां विधि आयोग साफ कह चुका था कि समान नागरिक संहिता की न तो जरूरत है और ना ही वह वांछनीय है। इस स्पष्ट टिप्पणी के बाद भी अगर 22वां आयोग इस विषय को प्रथमिकता दे रहा है तो समझा जा सकता है कि इसमें आयोग से ज्यादा केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय की रुचि है। मंत्रालय द्वारा एक से अधिक मौकों पर कहा भी गया था कि विधि आयोग की राय आने के बाद इस विषय पर फैसला लिया जायेगा। चूंकि भाजपा शासित उत्तराखण्ड इस मामले में काफी आगे बढ़ चुका है और भाजपा हिमाचल, गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में समान नागरिक संहिता का वायदा कर चुकी है। अन्य भाजपा शासित राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। संविधान के नीति निर्देशक तत्वों वाले अनुच्छेद 44 के तहत राज्य समान नागरिक संहिता बना तो सकते हैं मगर अनुच्छेद 254-ख के अनुसार बिना राष्ट्रपति की अनुमति के वह कानून लागू नहीं हो सकता। जाहिर है कि राज्यों में यह पहल बिना भाजपा शीर्ष नेतृत्व की अनुमति के नहीं हो रही है। अगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ही धामी सरकार से यह सब करा रहा है तो वह फालतू की कसरत नहीं करा रहा, बल्कि स्वयं कानून बनाने का रास्ता साफ कर रहा है।
वर्ष 2019 में भाजपा के ही एक विधायक अश्वनि उपाध्याय ने दिल्ली हाइकोर्ट में समान नागरिक संहिता लागू करने संबंधी एक याचिका दायर की थी। जिस पर केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने 12 पृष्ठों का एक हलफनामा दायर कर कहा था कि विधि आयोग की रिपोर्ट मिलने पर केन्द्र सरकार द्वारा अन्य हित धारकों से बात कर कानून बनाया जा सकता है। फिर फरबरी 2022 में तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री किरन रिजजू ने संसद में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत सम्पूर्ण भारत की टेरिटरी में यह लागू होना है, इसलिये इस पर केन्द्र सरकार या संसद का बनाया हुआ कानून ही ज्यादा व्यवहारिक हो सकता है। इन तथ्यों के आलोक में समझा जा सकता है कि इस दिशा में उत्तराखण्ड जैसे भाजपा शासित राज्यों के प्रयास या पहलें महज माहौल बनाने के लिये ही हैं और इस दिशा में असली प्रयास अब 22 वें विधि आयोग की पहल के साथ शुरू हो गया है।
गौर करने वाली बात यह है कि 22 वां विधि आयोग समान नागरिक संहिता को लेकर जो सार्वजनिक रायशुमारी कर रहा है उसकी सीख आयोग को उत्तराखण्ड की समान नागरिक संहिता ड्राफ्ट कमेटी ने दी है। कमेटी की अध्यक्षा जस्टिस रंजना देसाई ने केन्द्रीय आयोग से मिलने के बाद दावा किया था कि समान नागरिक संहिता के पक्ष में उत्तराखण्ड का भारी बहुमत है और बहुत थोड़े लोगों ने इसका विरोध किया है। उत्तराखण्ड में 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की है जिसे समान नागरिक संहिता से कोई परेशानी इसलिये नहीं कि उनके लिये 1955 और 56 में ही नागरिक संहिताएं बन चुकी हैं। वैसे भी कमेटी ने न्याविदों, कानूनविदों और बुद्धिजीवियों के बजाय आम जनता और खास कर एक राजनीतिक तथा धार्मिक विचारधारा के लोगों की राय एकत्र की थी। राय देने वाले अधिसंख्य लोग किसी अन्य समुदाय के लिये व्यतिगत मामलों में विशेषाधिकार क्यों चाहेंगे? ऐसी ही रायशुमारी राष्ट्रीय स्तर पर भी होनी है और समान नागरिक संहिता के पक्ष में उत्तराखण्ड की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी हिन्दुओं का भारी बहुमत आना लाजिमी है। विधि आयोग के कानों में यह मंत्र उत्तराखण्ड की कमेटी फूंक गयी थी।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या इतनी विविधताओं वाले भारत देश में समान नागरिक संहिता व्यवहारिक है? अगर व्यवहारिक होती तो संविधानसभा इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों में नहीं डालती। अगर इतना आसान होता तो धारा 370 के सफाये से पहले ही देश में यह कानून आ जाता। जब धारा 370 हटायी गयी तो कहा गया था कि एक देश में एक जैसा ही कानून और प्रशासन होना चाहिये इसलिये अलग धारा हटा दी गयी। लेकिन अनुच्छेद 371 की कई उपधाराएं आज भी मौजूद हैं और पूछ रही हैं कि एक देश एक कानून कहां है? अगर एक देश एक कानून व्यवहारिक है तो फिर नवीन पंचायती राज के लिये संविधान का 73वां और 74वां संशोधन पूर्वोत्तर राज्यों में लागू क्यों नहीं है?
भारत अपनी धार्मिक विविधता के लिए जाना जाता है। भारत में प्रचलित प्रमुख धर्मों में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, पारसी धर्म, यहूदी धर्म और जनजातीय धर्मों का पालन करने वाले छोटे समुदाय हैं। भारत कई अलग-अलग संस्कृतियों का घर है, प्रत्येक की अपनी परंपराएं, अनुष्ठान, कला रूप और व्यंजन हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता को मोटे तौर पर उत्तर भारतीय संस्कृति और दक्षिण भारतीय संस्कृति में वर्गीकृत किया जा सकता है, लेकिन इन व्यापक श्रेणियों के भीतर महत्वपूर्ण क्षेत्रीय भिन्नताएं भी हैं। प्रत्येक राज्य और कभी-कभी प्रत्येक शहर की अपनी अनूठी सांस्कृतिक प्रथाएं और रीति-रिवाज होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक भारत के नागरिकों को न केवल धार्मिक स्वतंतत्रता की अपितु धार्मिक रीति रिवाजों की स्वतंत्रता की गारंटी भी देते हैं। वैयक्तिक कानून भी धार्मिक रीति रिवाजों में ही आते हैं। संविधान देश की 7 सौ से अधिक जनजातियों केे प्रथागत कानूनों को मान्यता देने के साथ ही उनके रीति रिवाजों को मानने की गारंटी भी देता है। इसलिये अनुसूची-6 के क्षेत्रों में स्वायत्तशासी जिलों में उन जनजातीय परम्परागत पंचायतों को मान्यता दी गयी है जिन्हें थोड़े न्यायिक अधिकार भी प्राप्त हैं। इसलिये वहां संविधान के 73वें और 74वें संशोधन लागू नहीं हो सके। जनजातियों में बहुपति और बहुपत्नी प्रथा अब भी चलती है। समान नागरिक संहिता कैसे हस्तक्षेप करेगी। जनजातियों को छेड़ने का नतीजा मणिपुर में दिखाई दे रहा है। भारत में पारसियों की जनसंख्या एक लाख से भी बहुत कम है। भारत के चहुमुखी विकास में असाधारण योगदान देने वाले पारसियों की जनसंख्या एक लाख भी नहीं है। बिरादरी से बाहर शादी करने का मतलब वहां जायदाद से हाथ धोना है। ये सख्त नागरिक कानून इसलिये हैं ताकि इस मानव वंश का अतित्व बना रह सके। मुसलमानों से जोर जबरदस्ती करके भले ही वोटों का इजाफा हो जायेगा। लेकिन जनजातियों के रीति रिवाजों को अगर छेड़ा गया मणिपुर का उदहारण सामने है।