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चिपको आन्दोलन के सिपाही जो गुमनाम रह गये


-जयसिंह रावत
विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन ऐसा विचित्र जन प्रतिकार था जो कि पेड़ काटने के लिये शुरू हुआ और पेड़ बचाने को लेकर प्रसिद्ध हो गया। आन्दोलन के दबाव में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के व्यावसायिक कटान पर 10 साल की रोक लगानी पड़ी। आन्दोलन के बाद 1980 को बहुचर्चित वन अधिनियम आने के साथ ही 1988 की वन नीति भी आई। चिपको आन्दोलन के संस्थापक सर्वोदयी नेता ही थे लेकिन शुरू में उनका उद्ेश्य पेड़ बचाना नहीं बल्कि जंगलों के बड़े ठेकेदारों के बजाय स्थानीय संस्थाओं को पेड़ काटने की अनुमति देने की थी ताकि स्थानीय लोगों की जरूरतें भी पूरी हो सकें और उनकी आर्थिकी भी मजबूत हो सके।

Gaura Devi, mother of Chipko Movements.

चमोली जिले में मंडल, केदार घाटी और नीती घाटी में सन् 73 से 77 तक की घटनाओं ने चिपको आंदोलन के ताने-बाने को बुना और उसे एक आकार दिया। बाद में हेंवल घाटी, भ्यंूडार घाटी, उत्तरकाशी, चांचली धार, अल्मोडा़ आदि स्थानों पर आन्दोलन के नये-नये पड़ाव बने। ठीक 180 डिग्री पर घूमने वाले इस आन्दोलन की एक खासियत यह भी रही कि इसने पर्यावरण के नाम पर बड़े-बड़े सरकारी और गैरसरकारी पुरस्कारों के लिये रास्ता खोल दिया। सुन्दर लाल बहुगुणा और चण्डी प्रसाद भट्ट ने तो चिपको को लेकर धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यावरण चेतना की अलख जगाई। लेकिन अब अखबारों में पेड़ लगाने की तस्बीरें छपवा कर और मीडिया में इंटरव्यू चलवा कर पद्म् और अन्य पुरस्कारों की दावेदारी की जा रही है। इसीलिये अब रमेश पहाड़ी जैसे चिपको के कुछ पुराने कार्यकर्ता लोगों के हक हुकूकों के लिये नये चिपको की मांग करने लगे हैं। लेकिन प्रमुख चिपको नेता रमेश गैरोला पहाडी के अनुसार प्रसिद्धि के चक्कर में चिपको का स्थानीय नागरिकों के वनाधिकार का मूल उद्ेश्य ही भटक गया।

चमोली गढ़वाल के रेणी गांव से चले इस आन्दोलन से भी 244 साल पहले सन् 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गांव में चिपको आन्दोलन शुरू हो चुका था जिसमें विश्नाई समाज की अमृता देवी और उनकी पुत्रियों समेत 363 लोगों ने पेड़ बचाने के लिये शहादत दे दी थी। दरअसल चिपको आन्दोलन मूल रूप से पेड़ बचाने के लिये नहीं बल्कि स्थानीय लोगों की जरूरतों के अनुसार पेड़ कटवाने के लिये शुरू हुआ था। सर्वोदय की संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य संघ ने गोपेश्वर में आरामशीन लगा रखी थी जिसे वन विभाग कृषि यंत्र और खेल का सामान बनाने के लिये अंगू के पेड़ देने के बजाय साइमन कंपनी को बड़े पैमाने पर पेड़ काटने को दे रहा था। 26 मार्च 1974 को रेणी के चिपको आन्दोलन के तीन साल बाद टिहरी गढ़वाल के गैरगढ़ जंगल में 4 अप्रैल 1977 को पेड़ काटने वाली आरियों और कुल्हाड़ियों की शस्त्र पूजा भी हुई थी। इन हथियारों को श्रमिकों के धनुष बाण बता कर गरीबी के खिलाफ हथियार उठाने का आवाहन स्वयं सुन्दर लाल बहुगुणा ने किया था। इस प्रयोजन के लिये बहुगुणा जी ने गैरगढ़ जंगल में उस वर्ष 11 दिन का उपवास किया था।

Com Govind Singh Rawat, a real originator of Chipko Movement.

रेणी से पहले जून 1973 में वनान्दोलन केदार घाटी के रामपुर फाटा के जंगलों में सफल हो चुका था। जिसके नायक ब्लाक उपप्रमुख केदारसिंह रावत थे। उससे भी पहले चण्डी प्रसाद भट्ट और आनन्द सिंह बिष्ट आदि सर्वोदयी नेताओं की प्रेरणा से चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर मण्डल घाटी में 24 अप्रैल को लोगों ने ग्राम प्रधान आलमसिंह बिष्ट, बचन लाल एवं विजय शर्मा के नेतृत्व में पेड़ों पर चिपके बिना ही पेड़ काटने वालों को जंगल से भगा दिया था। इन सभी आन्दोलनों के पीछे सर्वोदयी ही थे। चण्डी प्रसाद भट्ट और आनन्द सिंह बिष्ट आदि सर्वोदयी नेता रेणी के चिपको आन्दोलन के प्रणेता अवश्य थे, मगर इसकी असली बुनियाद रखने वाले जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख गोविन्दसिंह रावत ही थे जिनको हयात सिंह और वासवानन्द का सहयोग मिला था। ब्लाक प्रमुख होने के नाते कन्युनिस्ट नेता गोविन्द सिंह की भारत-तिब्बत सीमा से लगे इस सीमान्त विकासखण्ड में जबरदस्त पकड़ थी।

Two giants of the Chipko movement. Chandi Prasad Bhatt, who pioneered the movement, and Sundar Lal Bahuguna who publicized the movement worldwide.

दरअसल मण्डल और केदार घाटी में पेड़ों के कटान के प्रयास विफल हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जब जोशीमठ ब्लाक के ढाक नाले से लेकर रेणी गांव तक के जंगल में 2451 देवदार, कैल, सुरई आदि के पेड़ काटने का ठेका देहरादून के एक व्यापारी को 4.71 लाख में दिया तो सबसे पहले जोशीमठ क्षेत्र विकास समिति की फरबरी 1974 की बैठक में ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत ने इस आबंटन के विरोध में प्रस्ताव पारित कर क्षेत्र की जनता को वनों के कटान के विरुद्ध एकजुट होने का आवाहन कर दिया था। इसके बाद उन्होंने रेणी क्षेत्र में होने जा रहे वन कटान के खिलाफ एक बहुचर्चित पर्चा क्षेत्र में बंटवा दिया। पर्चे का शीर्षक ‘‘ चिपको आन्दोलन का शुभारंभ’’ था। इस पर्चे में 12 मार्च 1974 को जोशीमठ में ‘‘चिपको आन्दोलन’’ शुरू करने की घोषणा की गयी थी। जाहिर है कि रेणी में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपक कर पेड़ बचाने से पहले ही 12 मार्च को गोविन्दसिंह रावत ने चिपको आन्दोलन शुरू कर दिया था।

  Two unsung heroines of the Chipko movement.

रेणी से भी पहले 1973 में कमलाराम नौटियाल के नेतृत्व में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता उत्तरकाशी जिले के बयाली में जंगल बचाओ आन्दोलन चला चुके थे। जिससे जरमोला और गडूगाड़ में वनखड़ीक वृक्षों के कटान पर रोक लगी। बाद में कम्युनिस्टों ने टोंस वन प्रभाग में भी आन्दोलन चलाया जिसमें कमलाराम के अलावा विधायक गोविन्दसिंह नेगी और विद्यासागर नौटियाल समेत 14 लोग गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेजे गये जो कि 22 दिन तक जेल में रहे। यद्यपि हिमालय से चिपको के विस्तार में सुन्दरलाल बहुगुणा की भी अति महत्वपूर्ण भूमिका रही मगर आन्दोलन में एक नहीं अपितु अनेक लोगों का योगदान रहा। चिपको के दो स्तम्भों में से एक चण्डीप्रसाद भट्ट की टीम में मुरारीलाल, महेन्द्र

Ghanshyam Sailani is another unsung hero of the Chipko Movement.

सिंह कुंवर, रमेश पहाड़ी, शिशुपाल सिंह कुंवर, कल्याण सिंह रावत, सच्चिदानन्द भारती और अल्मोड़ा से उत्तराखण्ड वाहिनी के नेता शमशेर सिंह बिष्ट जैसे युवा शामिल थे। उधर टिहरी में सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ धूमसिंह नेगी, विजय जड़धारी, घनश्याम रतूड़ी और कुंवर प्रसून जैसे समर्पित एक्टिविस्ट थे।

प्रख्यात चिपको नेता सुन्दरलाल बहुगुणा ने ‘‘गंगा का मैत बिटी’’ काव्य संग्रह की प्रस्तावना में लिखा था कि ‘‘चिपको आन्दोलन शायद गोपेश्वर के मण्डल जंगल में ही केन्द्रित हो जाता अगर मई के प्रथम सप्ताह में घनश्याम सैलानी कुछ अन्य सर्वोदय सेवकों के साथ वहां से नैल-नौली होते हुये ऊखीमठ की पैदल यात्रा पर न निकल पड़ते।’’

 

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