भारत की बेमिसाल पटवारी पुलिस को दफनाने की तैयारियां शुरू ( Articles on this issue)
—जयसिंह रावत
पटवारी पुलिस महज एक कानून व्यवस्था की मशीन नहीं बल्कि पहाड़ी समाज का एक अंग भी है। इस व्यवस्था की पहचान उत्तराखण्ड से है तो उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी पटवारी पुलिस में निहित है। उत्तराखण्ड की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों के कारण ही सन् 1861 का अंग्रेजों का पुलिस एक्ट यहां लागू नहीं हुआ था। विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश के कारण ही उत्तराखण्ड का प्रशासन जनजातीय असम की तरह अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 के तहत चला था और उसी के अनुसार पटवारियों को पुलिस अधिकार मिले थे। इसलिये शासकों को उत्तराखण्ड को समझने के लिये पटवारी पुलिस को और उसके अतीत को समझना जरूरी है जिसे, समझा नहीं जा रहा है।
नैनीताल हाइकोर्ट की फटकार के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने लगभग डेढ सौ साल पुरानी राजस्व पुलिस व्यवस्था को देश के अन्य भागों की तरह सिविल पुलिस को सौंपने की तैयारी शुरू कर दी है। हाइकार्ट ने 6 माह पहले राजस्व पुलिस या जिसे पहाड़ों में पटवारी पुलिस के नाम से जाना जाता है, को समाप्त पुलिसिंग व्यवस्था को सिविल पुलिस को सौंपने का आदेश दिया था। चूंकि यह हस्तांतरण इतना आसान नहीं है और पहाड़ी जनजीवन में बिना वर्दी और बिना हथियार वाली पटवारी पुलिस व्यवस्था रची बसी है और खाकी पुलिस के प्रति लोगों की अरुचि को देखते हुये हाइकोर्ट के आदेश का पालन न हो सका। लेकिन अब जब अंकिता हत्याकाण्ड ने सारे देश को झखझोर दिया तो तो हाईकार्ट को पुलिसिंग के हस्तांतरण को लेकर सरकार को फटकार ही लगानी पड़ी। इस फटकार के बाद राज्य सरकार ने तत्काल कुछ संवेदनशील क्षेत्रों को राजस्व पुलिस से हटा कर सिविल पुलिस को सौंपने का प्रकृया शुरू कर दी है