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उत्तराखण्ड का जनादेश: कहीं फिर त्रिशंकु विधानसभा न आ जाय !

 

-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड विधानसभा के चुनाव में सत्ताधारी भाजपा ने अपने खिलाफ एण्टी इन्कम्बेंसी से हो रहे नुकसान की भरपाई के लिये अपने विशाल तंत्र के माध्यम से जिस प्रकार साम्प्रदायिक अभियान चला रखा है, उससे राज्य के असली मुद्दे तो गौण हो ही गये, लेकिन साथ ही एक बार फिर राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की आशंका भी बढ़ गयी है। अब तक के चुनावों में 2017 को छोड़ कर राज्य के मतदाता सत्ताधारी दल को तो दंडित करते ही रहे मगर विपक्ष के पक्ष में भी खुल कर नहीं गये। अब तक के चार चुनावों में 2 बार त्रिशंकु विधानसभा, एक बार सरकार बनाने वाले दल को केवल काम चलाऊ बहुमत और एक बार पूर्ण ही नहीं प्रचण्ड बहुमत का जनादेश मिला है। इस बार भाजपा ने 60 पार का नारा तो दिया था लेकिन अब जिस तरह से साम्प्रदायिक मुहिम शुरू हुयी है लगता है भाजपा अब केवल भगवान के भरोसे रह गयी है।


पहली सरकार के गठन में भी निर्दलियों की भूमिका थी।
उत्तराखण्ड में सन् 2002 में हुये पहले विधानसभा चुनाव से लेकर 2017 तक कुल 4 चुनाव हुये हैं और जनता ने 2017 के अलावा किसी भी अन्य चुनाव में किसी दल को खुल कर समर्थन नहीं दिया। पहले चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने भाजपा की अंतरिम सरकार को दंडित अवश्य किया और उसे 70 में से केवल 19 सीटों पर समेट दिया। हालांकि उस समय भाजपा को पूरा विश्वास था कि उत्तरांचल राज्य बनाने का प्रतिफल उसे नये राज्य की जनता पहले ही चुनाव में अवश्य देगी। लेकिन उसका मात्र 18 महीनों का अंतरिम शासन इतना खराब था कि उत्तराखण्ड के लोगों ने उसे बहुमत के आंकड़े के निकट भी नहीं फटकने दिया। उस समय कोश्यारी जी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव लड़ा था और यही पुष्कर सिंह धामी उस समय उनके चुनावी सारथी थे। लेकिन जनता ने कांग्रेस के साथ भी कंजूसी दिखाई। उस समय कांग्रेस को केवल 36 सीटें मिलीं थी। भले ही बाद में तीनों निर्दलियों, गगन सिंह रजवार, कुंवर प्रणव सिंह चैम्पियन और डा0 शैलेेन्द्र मोहन सिंघल ने कांग्रेस को समर्थन देकर तिवारी सरकार को मजबूती प्रदान की। बाद में निर्दलीय प्रणव चैम्पियन और डा0 शैन्द्र मोहन और नेशनललिस्ट कांग्रेस पार्टी के एकमात्र विधायक बलबीर सिंह नेगी भी कांग्रेसी हो गये, जिससे विधानसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या 39 हो गयी।
दूसरे चुनाव में मिली त्रिशंकु विधानसभा
राज्य के 2007 में हुये दूसरे विधानसभा चुनाव में पहली त्रिशुकु विधान सभा आ गयी। उसमें सरकार बनाने वाली भाजपा को 70 में से केवल 34 सीटें मिलीं। लेकिन भाजपा के लिये सन्तोष का विषय यह रहा कि 2007 तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी को केवल 21 सीटें ही मिल पायीं। इसलिये सरकार बनाने के उसके प्रयास परवान नहीं चढ़ पाये और अन्ततः सिंगल लार्जेस्ट पार्टी भाजपा को ही सरकार बनाने का अवसर मिला। उस समय बसपा को 8, यूकेडी को 3 सीटों के अलावा निर्दलियों को भी तीन सीटें मिलीं थीं। उस समय यूकेडी ने सरकार में जगह पाने की शर्त पर खण्डूड़ी सरकार को समर्थन दे दिया। परम्परानुसार निर्दलियों को भी वहीं जाना था जिनकी सरकार बन रही थी। इसलिये निर्दलियों में से गगन सिंह रजवार, यशपाल बेनाम और राजेन्द्र सिंह भण्डारी ने भी भाजपा को समर्थन दे दिया। बदले में राजेन्द्र भण्डारी को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। यूकेडी के दिवाकर भट्ट को तो मंत्री बनना ही था। बाद में धूमाकोट के कांग्रेस विधायक जनरल टीपीएस रावत तो तोड़ कर खण्डूड़ी उनकी जगह धमूकोट सीट से उप चुनाव जीत गये। विकासनगर सीट के लिये 2009 में हुये उपचुनाव में भाजपा के कुलदीप कुमार जीत गये। इस प्रकार भाजपा ने अपने बलबूते पर बहुमत का 36 का आंकड़ा छू लिया। लेकिन खण्डूड़ी सरकार को स्पष्ट बहुमत और बाहर से मिल रहे सर्मथन के बावजूद कोश्यारी गुट ने नहीं चलने दिया और अन्ततः खण्डूड़ी को इस्तीफा देना पड़ा और रमेश पोखरियाल निशंक ने सत्ता संभाल ली। हालांकि निशंक को खण्डूड़ी और कोश्यारी गुटों ने मिलकर नहीं चलने दिया। जिस कारण उनको भी कुर्सी छोडऩी पड़ी और फिर खण्डूड़ी सत्ता में काबिज तो गये मगर 2012 के चुनाव में अपनी पाटी को दुबारा सरकार में नहीं ला पाये।
तीसरे चुनाव में भी किसी को बहुमत नहीं मिला
राज्य के तीसरे चुनाव में जनता ने तत्कालीन सत्ताधारी भाजपा को तो हराया मगर उस चुनाव में कांग्रेस को 32 और भाजपा को 31 सीटें ही मिलीं। उस समय यूकेडी को एक और बसपा को तीन सीटें मिलीं। चूंकि कांग्रेस सिंगल लार्जेस्ट पार्टी बन गयी थी। चुनाव में जो तीन निर्दलीय जीते थे उनमें लालकुआं से हरिश्चन्द्र दुर्गापाल और देवप्रयाग से मंत्री प्रसाद नैथाणी बागी कांग्रेसी थे। टिहरी से जीते दिनेश धनै भी मूल रूप से कांग्रेसी ही थे। इसलिये कांग्रेस को इन तीन निर्दलियों को पटाने में मशक्कत नहीं करनीं पड़ी। इसी तरह बसपा का रुख उस समय भाजपा विरोधी था। इसलिये उसका समर्थन भी कांग्रेस को आसानी से मिल गया और विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बन गयी। जो चैनल आज भाजपा को 40 से लेकर 50 सीटें दे रहे थे वहीं चैनल उस समय भी भाजपा को 40 के आसपास सीटें देकर उसकी सत्ता में वापसी सुनिश्चित बता रहे थे। कांग्रेस सरकार को समर्थन देने के लिये उस समय बसपा और निर्दलियों ने 6 सदस्यीय प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) बनाया था। इन्होंने तो समर्थन दे ही दिया था लेकिन केदारनाथ आपदा के दौरान भयंकर लापरवाही के कारण विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। विजय बहुगुणा गुट ने 2016 में भाजपा से हाथ मिला कर हरीश रावत सरकार के खिलाफ जो राजनीतिक बवाल किया वह सारी दुनियां ने देखा, मगर अदालत के हस्तक्षेप के कारण भाजपा और विजय बहुगुणा गुट कामयाब नहीं हो पाये।
चौथे चुनाव में छप्परफाड़ बहुमत में भी सरकारें अस्थिर
2017 के चुनाव में तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ एण्टी इन्कम्बेंसी और ऊपर से मोदी लहर में भाजपा को 70 में से 57 सीटें मिल गयीं। यह बात दीगर है कि इतने प्रचण्ड बहुमत के बावजूद भाजपा एक स्थिर सरकार नहीं दे पायी और एक ही विधानसभा के कार्यकाल में 3 मुख्यमंत्री बनाने पड़े। आज उसी प्रचण्ड बहुमत वाली पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने के लिये भगवान राम का सहारा लेना पड़ रहा है। फिर भी अब तक कांग्रेस का ही हल्का रुझान लग रहा है।
लाखों मोबाइलों से वायरल हो रहा साम्प्रदायिक प्रोपेगण्डा
भाजपा ने विशेष सदस्यता अभियान के तहत 2019 तक उत्तराखण्ड में 10.77 लाख नये सदस्य बनाने का दावा किया है। अगर इससे पहले 4 लाख भी पुराने सदस्य रहे होंगे और सदस्यों की संख्या वास्तविक होगी तो इस समय भाजपा के कम से कम 15 लाख सदस्य होने राज्य में होने चाहिये जिनके पास इतने ही मोबाइल फोन जरूर होंगे, जिन पर आजकल हिन्दू और मुसलमान वाला अभियान चल रहा है। चलेगा भी क्यों नहीं? मोदी के बाद दूसरे सर्वशक्तिमान नेता अमित शाह ने इसी देहरादून में कार्यकर्ताओं से कहा था कि मोबाइल पर ऐसा अभियान चलाओं जो ‘‘हंसाने वाला भी हो और डराने वाला भी।’’ सोशल मीडिया आजकल इसी साम्प्रदायिक अभियान से लदा पड़ा है। फिर भी एण्टी इन्कम्बेंसी भाजपा का पीछा नहीं छोड़ रही है क्यों कि इस दुष्प्रचार में जनता के असली मुद्दे गायब हो रहे हैं।

निर्दलीय और छोटे दल निभा सकते हैं की रोल
इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने सभी 70 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर रखे हैं लेकिन वे वोट काटने का ही काम कर रहे हैं। बावजूद इसके कांग्रेस अब भी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में नजर आ रही है। फिर भी किसी दल द्वारा 36 का आंकड़ा पार न कर सकने की स्थिति में निर्दलीय, आप, सपा, बसपा और यूकेडी की अगर दो-चार सीटें आ जाती हैं तो वे सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

 

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