कथित ऑल वेदर रोड: पहाड़ों का नाश और यात्रा भी असुरक्षित
–
–जयसिंह रावत
चारधाम मार्ग चौड़ीकरण को राजनीतिक लाभ के लिये ऑल वेदर रोड का नाम तो दे दिया गया मगर यह सभी मौसमों में खुली बतायी जा रही सड़क शीतकाल की मामूली वर्षा भी नहीं झेल पा रही है। ऊपर से मलबा और बड़े बोल्डर गिरने का का खतरा ऋषिकेश से लेकर जोशीमठ तक कहीं पर भी देखा जा सकता है। उतावली में पहाड़ों के बेतहासा कटान से पर्यावरण का सत्यानाश तो कर ही दिया लेकिन ऊपर से गोली की माफिक गिर रहे छोटे बड़े पत्थरों ने इस मार्ग पर यात्रा बहुत असुरक्षित कर दी। जबकि इतने ही पैसों से वास्तविक ऑलवेदर रोड बन सकती थी। फरबरी के प्रथम सप्ताह हुयी वर्षा से इस मार्ग पर जहां तहां भूस्खलनों के कारण यातायात काफी प्रभावित हुआ है। वर्षात में तो भगवान बदरीनाथ ही मालिक है। गत 5 फरबरी को श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच अचानक ऊपर से गिरे एक बड़े पत्थर से एक मारुति 800 के टकराने से कार में आग लग गयी और उसमें सवार दो लोगों की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी। इस तरह के ऊपर से गिरे बोल्डर आपको जहां तहां मिल जायेंगे।
चार धाम ऑल वेदर रोड के नाम पर जिस तरह पहाड़ों और पेड़ों को काटा गया उससे भूगर्व और भूभौतिकी विशेषज्ञों के साथ ही पर्यावरणविदों को आशंका है कि चारधाम मार्ग पर पहाड़ों और पेड़ों के बेतहासा कटान तथा मलबे का समुचित निस्तारण न होने से 2013 की केदारनाथ जैसी आपदा की पुनरावृत्ति हो सकती है। विशेषज्ञों ने बदरीनाथ की कायालट करने के लिये बनाये गये मास्टरप्लान पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं। ये भी सवाल उठ रहे हैं कि आखिर केदारनाथ जैसी आपदा को तथा इसरो द्वारा तैयार कराये गये उत्तराखण्ड के लैण्डस्लाइड जोनेशन मैप (भूस्खलन संवेदनशील क्षेत्रों का चिन्हीकरण) का ध्यान क्यों नहीं रखा गया?
भट्ट जी के प्रयासों से बना था लैंड स्लाइड जोनेशन मैप
चिपको आन्दोलन के प्रणेता पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट का मानना है कि पहाड़ों की बेतहासा कटिंग से कई सुप्त भूस्खलन भी सक्रिय हो गये हैं और बाकी भी भविष्य में सक्रिय हो सकते हैं। हिमालय की अत्यंत संवेदनशीलता को अनुभव करते हुये 2001 में इसरो ने कराड़ों रुपये खर्च कर देश के 12 विशेषज्ञ संस्थानों के 54 वैज्ञानिकों से उत्तराखण्ड का ‘लैण्ड स्लाइड जोनेशन एटलस’’ बनाया था जिसमें इसी चारधाम मार्ग पर सेकड़ों की संख्या में सुप्त और सक्रिय भूस्खलन चिन्हित कर उनका उल्लेख किया गया था। लेकिन इस रिपोर्ट पर गौर नहीं किया गया। अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ काटने के साथ ही मलबा निस्तारण के लिये डम्पिंग जोन भी गलत बने हैं। अगर वर्ष 2013 की जैसी अतिवृष्टि हो गयी तो पहाड़ों में पुनः केदारनाथ आपदा की जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। वह हैरानी जताते हैं कि सरकार ने पहले पहाड़ काट डाले और बाद में विशेषज्ञों से अध्ययन कराया गया।
भूस्खलनों की रिपोर्ट देखी ही नहीं
चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर कैबिनेट सचिव की पहल पर इसरो ने सन् 2000 में वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान, भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, भौतिकी प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी उपग्रह संस्थान आदि एक दर्जन वैज्ञानिक संस्थानों के 54 वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के आसपास के क्षेत्रों का लैण्ड स्लाइड जोनेशन मैप तैयार किया था। उसके बाद इसरो ने ऋषिकेश से बद्रीनथ, ऋषिकेश से गंगोत्री, रुद्रप्रयाग से केदारनाथ और टनकपुर से माल्पा ट्रैक को आधार मान कर जोखिम वाले क्षेत्र चिन्हित कर दूसरा नक्शा तैयार किया था। इसी प्रकार संसथान ने उत्तराखण्ड की अलकनन्दा घाटी का भी अलग से अध्ययन किया था। ये सभी अध्ययन 2002 तक पूरे हो गये थे और इन सबकी रिपोर्ट उत्तराखण्ड के साथ ही हिमाचल प्रदेश की सरकार को भी इसरो द्वारा उपलब्ध कराई गयी थी, मगर आज इन रिपोर्टों का कहीं कोई अता पता नहीं है। जबकि चारधाम परियोजना के लिये इस रिपोर्ट का अध्ययन अत्यंत जरूरी था।
बदरीनाथ मार्ग पर ही सेकड़ों भूस्खलन
इसरो द्वारा तैयार लैण्ड स्लाइड जोनेशन मैप में ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ के बीच 110 स्थान या बस्तियां भूस्खलन के खतरे में और 441.57 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित बताया गया था। इसी प्रकार केदारनाथ क्षेत्र में 165 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूस्खलन खतरे की जद में बताया गया था। इस संयुक्त वैज्ञानिक अध्ययन में रुद्रप्रयाग से लेकर केदारनाथ तक 65 स्थानों को संवेदनशील बताया गया था। 2013 की की केदारनाथ आपदा के बाद यह क्षेत्र और भी अधिक संवेदनशील हो गया है। वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान का हवाला देते हुये इसरो की रिपोर्ट में ऋषिकेश के आसपास के 89.22 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील बताया गया। इसी तरह देवप्रयाग के निकट 15 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति संवेदनशील माना गया है। श्रीनगर गढ़वाल के निकट 33 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील तथा 8 वर्ग कि.मी क्षेत्र को अति सेवेदनशील बताया गया है। इस साझा अध्ययन में सी.बी.आर. आइ. रुड़की की भी मदद ली गयी है। इन संस्थानों के अध्ययनों का हवाला देते हुये रुद्रप्रयाग से लेकर बद्रीनाथ तक सड़क किनारे की 52 बस्तियों को तथा टिहरी से गोमुख तक 365.29 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को संवेदनशील और 32.075 वर्ग कि.मी. को अति संवेदनशील बताया गया है। भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के डा0 प्रकाश चन्द्र की एक अध्ययन रिपोर्ट में डाकपत्थर से लेकर यमुनोत्री तक के 144 कि.मी. क्षेत्र में 137 भूस्खलन संवेदनशील स्पाट बताये गये हैं। अगर इस रिपोर्ट का अध्ययन किया जाता तो संभवतः चारधाम ऑल वेदर रोड निर्माण में पहाडों के बेरहमी से नहीं काटा जाता।
चारधाम मार्ग के बाद अब बदरीनाथ का मास्टर प्लान निशाने पर
चारधाम मार्ग के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब बदरीनाथ धाम के नवीनीकरण का मामला भी चर्चाओं में आ गया है। इस मामले में भी विशेषज्ञों की राय लिये बिना धाम का मास्टर प्लान बना लिया गया है। जबकि 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद इन हिमालयी तीर्थों में प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ न किये जाने की अपेक्षा की जा रही थी। इससे पहले 1974 में बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट द्वारा बदरनाथ के जीर्णोद्धार का प्रयासकिया गया था। उस समय उत्तर प्रदेश की हेमतवती नन्दन बहुगुणा सरकार ने नारायण दत्त तिवारी कमेटी की सिफारिश पर बदरीनाथ के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करने पर रोक लगा दी थी और जयश्री ट्रस्ट को भारी भरकम निर्माण सामग्री समेत वापस लौटना पड़ा था। बदरीनाथ के हकहुकूक धारियों में से एक डिमरी पंचायत के अध्यक्ष आशुतोष डिमरी के अनुसार बदरीनाथ की तुलना तिरुपति से नहीं की जा सकती और ना ही इस हिमालयी तीर्थ का विकास तिरुपति की तर्ज पर किया जा सकता है। डिमरी कहते हैं कि मास्टर प्लान से पहले बदरीनाथ के इतिहास और भाूगोल को जानने की जरूरत है। सरकार को धर्मक्षेत्र के विशेषज्ञों से भी परामर्श करना चाहिये। बदरीनाथ एवलांच, भूस्खलन और भूकम्प के खतरों की जद में है और वहां लगभग हर 4 या 5 साल बाद हिमखण्ड गिरने से भारी नुकसान होता रहता है। बद्रीनाथ मंदिर को हिमखण्ड स्खलन (एवलांच) से बचाने के लिये सिंचाई विभाग ने नब्बे के दशक में एवलांचरोधी सुरक्षा उपाय तो कर दिये मगर वे उपाय कितने कारगर हैं, उसकी अभी परीक्षा नहीं हुयी है।
गोगोत्री मंदिर भी असुरक्षित
भागीरथी के उद्गम क्षेत्र में स्थित गंगोत्री मंदिर भी निरन्तर खतरे झेलता जा रहा है। इस मंदिर पर भैंरोझाप नाला खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर का निर्माण उत्तराखण्ड पर कब्जा करने वाले नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने 19वीं सदी में किया था। हिन्दुओं की मान्यता है कि भगीरथ ने अपने पुरखों के उद्धार हेतु गंगा के पृथ्वी पर उतरने के लिये इसी स्थान पर तपस्या की थी। इसरो द्वारा देश के चोटी के वैज्ञानिक संस्थानों की मदद से तैयार किये गये लैण्ड स्लाइड जोनेशन मैप के अनुसार गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग कि.मी. इलाका भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है जिसमें से 14 वर्ग कि.मी. का इलाका अति संवेदनशील है। गोमुख का भी 68 वर्ग कि.मी. क्षेत्र संवेदनशील बताया गया है। भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत ने अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में गंगोत्री मंदिर के पूर्व की ओर स्थित भैरांेझाप नाले को मंदिर के अस्तित्व के लिये खतरा बताया है और चेताया है कि अगर इस नाले का शीघ्र इलाज नहीं किया गया तो ऊपर से गिरने वाले बडे़ बोल्डर कभी भी गंगोत्री मंदिर को धराशयी करने के साथ ही भारी जनहानि कर सकते हैं। मार्च 2002 के तीसरे सप्ताह में नाले के रास्ते हिमखण्डों एवं बोल्डरों के गिरने से मंदिर परिसर का पूर्वी हिस्सा क्षतिग्रसत हो गया था। यह नाला नीचे की ओर संकरा होने के साथ ही इसका ढलान अत्यधिक है। इसलिये ऊपर से गिरा बोल्डर मंदिर परिसर में तबाही मचा सकता है।
यमुनोत्री भी खतरे की जद में
यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री मंदिर के सिरहाने खड़े कालिंदी पर्वत से वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से मंदिर परिसर के कई निर्माण क्षतिग्रस्त हुए तथा छह लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2007 में यमुनोत्री से आगे सप्तऋषि कुंड की ओर यमुना पर झील बनने से तबाही का खतरा मंडराया जो किसी तरह टल गया। वर्ष 2010 से तो हर साल यमुना में उफान आने से मंदिर के निचले हिस्से में कटाव शुरू हो गया है। इस हादसे के मात्र एक महीने के अन्दर ही कालिन्दी फिर दरक गया और उसके मलवे ने यमुना का प्रवाह ही रोक दिया। कालिन्दी पर्वत यमुनोत्री मन्दिर के लिये स्थाई खतरा बन गया है। सन् 2001 में यमुना नदी में बाढ़ आने से मंदिर का कुछ भाग बह गया था।