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शेखियां छप्पन इंच के सीनों की और गोलियां छत्तीस इंच के सीनों पर!

  • शासकों-प्रशासकों के लाडले फौज में क्यों नहीं?
  • रणबांकुरों की नरसरी इतनी सीमित दायरे में क्यों?
  • गोलियों से डरने वाले छप्पन इंच के सीने किस काम के?
  • अपार जनशक्ति का उपयोग राष्ट्रीय सुरक्षा में क्यों नही?
  • नौकरशाह को सबसे पहले फौज में रंगरूटी करायी जाय
  • ब्रिटिश राजकुमार आज भी सेना में शामिल होते हैं
  • भारत में हर नागरिक के लिये सैन्य सेवा जरूरी हो !
  • सुविधा भोगियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी क्यों नहीं?

  जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड, पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे चुनींदा राज्यों में मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति देने वाले जांबाजों के ताबूत आने का सिलसिला जारी है। हैरानी का विषय तो यह है कि ये ताबूत न केवल चुनींदा राज्यों में लौट रहे हैं और जिन थोड़े से राज्यों में ये ताबूत लौट भी रहे हैं उन ताबूतों में किसी नेता या नौकरशाह के लाडलेे का पार्थिव शरीर नहीं होता। उन ताबूतों में किसी उद्योगपति का बेटा भी नहीं होता। विचित्र बात तो ये है कि जो अपने छप्पन इंच के सीने का बखान कर राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं उनकी पीढ़ियों ने भी कभी सेना में योगदान नहीं दिया और ना ही उन्होंने कभी किसी को सेना में भर्ती होने के लिये प्रोत्साहित किया। इसीलिये सवाल उठता है कि भारत की रक्षा की जिम्मेदारी क्या कुछ प्रदेशों के गरीबों की ही है? सवाल यह भी उठता है कि अगर गोलियां केवल छत्तीस इंच के सीनों ने ही खानी हैं तो फिर छप्पन इंच के सीने किस काम के?

Virendra Singh Bhandari of Sankari village who lost his martyr son Yogambar.

गोलियों से डरने वाले छप्पन इंच के सीने किस काम के?

भारतीय सैन्य अकादमी की पासिंग आउट परेड प्रत्येक छह माह में होती है। जिसमें  एक करोड़ से थोड़ी सी अधिक आबादी वाले छोटे से उत्तराखण्ड राज्य के नव प्रशिक्षित सैन्य अधिकारियों की संख्या कई करोड़ की आबादी वाले राज्यों से कहीं अधिक होती है। अकादमी से लगभग 6 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले गुजरात का को सैन्य अफसर यदाकदा ही पासआउट होता है। जबकि शौर्य और बलिदान का बखान सबसे अधिक इसी राज्य के मूल के नेताओं द्वारा किया जाता है। भारतीय सैन्य अकादमी ही क्यों? नोसेना और वायु सेना की अकादमियों में भी आपको किसी नेता या ब्यूरोक्रैट का लाडला नजर नहीं आयेगा, क्योंकि उन्हें देश पर शासन करना है या प्रशासन करना है। अगर इतना पढ़ लिख भी नहीं सके तो व्यवसाय में ऐश्वर्य के दरवाजे उनके लिये पलक पावड़े बिछाये रहते हैं। अगर इस देश की सुरक्षा या डिफेंस की यही डाक्ट्रिन है तो फिर यह देश की सुरक्षा के साथ ही लोकतंत्र के साथ भी मजाक है।

रणबांकुरों की नरसरी इतनी सीमित दायरे में क्यों?

भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार सहित विभिन्न देशों की सेनाओं को लगभग 60 हजार जांबाज कमांडर देने देने वाली भारतीय सैन्य अकादमी का यह ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की असलियत को बयां कर गया। लोकतंत्र से इतर राजशाही या तानाशाही में लड़ाकुओं की जान केवल खेलने या बहादुरी दिखाने के लिये होती थी और शासकों द्वारा जातीय अभिमान के नाम पर जाति व्यवस्था के तहत बाकायदा रणबांकुरों की फसल बोई जाती थी। युद्धों के इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटें तो पता चलता है कि प्राचीन युग में सबसे पहले मरने वाले भी जातीय या क्षेत्र के आधार पर तय किये जाते थे। जब तीर समाप्त हो जाते थे और तलवारें कंुद हो जाती थीं तो तब सेनापतियों के अपने लड़ाकू मैदान में उतारे जाते थे। क्षत्रिय तो मरने के लिये ही पैदा होता था। उसके जीवन का लक्ष्य मरना या मारना ही होता था। लेकिन आज, जबकि समाज जातीय बंधनों को तोड़ कर हर क्षेत्र में हर आदमी को हाथ आजमाने का मौका दे रहा है तो शासक और प्रशासक वर्ग अब भी अपनी सुविधानुसार उस प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है, जिसमें मरने या मारने की जिम्मेदारी शासक नहीं बल्कि शासित वर्ग की होती है। यह जिम्मेदारी आज भी एक फौजी, किसान, मजदूर या फिर वंचित वर्ग को उठानी पड़ रही है।

शासकों-प्रशासकों के लाडले फौज में क्यों नहीं?

लोकतंत्र के इस युग में जब हम जाति विहीन या वर्ण विहीन समाज की ओर बढ़ रहे हों तो तब शासकों और प्रशासकों की बिरादरी हमें एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर क्यों ले जा रही है? जब नेता का बेटा या बेटी नेता और आइएएस या फिर किसी भी नौकरशाह को बेटा या बेटी नौकरशाह ही बनेंगे तो क्या हम एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

Villagers of Sem Sankari mourning and the widow of the martyr Yogambar is crying and fainting at the death of brave soldier Yogambar

सुविधा भोगियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी क्यों नहीं?

केन्द्र या किसी भी राज्य सरकार का कर्मचारी केवल उस जगह पर अपनी तैनाती चाहता है जहां पर सुख सुविधाओं के सारे संाधन उपलब्ध हों। यही नहीं वह तैनाती स्थल पर ऊपरी कमाई की भी कामना करता है। रिस्क वाली जगह पर तैनाती की बात करना भी उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। इसी तरह नेताओं की बिरादरी के बच्चे सरहद पर जान जोखिम में डालना तो रहा दूर वे सरकारी या किसी की भी नौकरी नहीं करना चाहते। उन्हें नौकर रखने या शासन करने का विशेषाधिकार चाहिये। व्यापारी या उद्योगपति का बेटा अपनी धन दौलत के सहारे सत्ता और संसाधनों को अपने कब्जे में रखना चाहता है। जबकि गरीब या एक आम आदमी का बेटा सैनिक के रूप में सियाचिन में बर्फ के अंदर महीनों रह सकता है। वह जंगलों में भूखा-प्यासा भटक सकता है। जरूरत पड़ने पर वह दुश्मन के खिलाफ मोर्चे पर अपनी जान भी देश के लिये न्योछावर कर सकता है। लेकिन अगर नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा घर से दो कदम भी बाहर निकला तो उसके मां-बाप को चिंता हो जाती है कि कहीं उसे सर्दी या गर्मी न लग जाय। कहीं उसकी बातानुकूलित कार में गड़बडी़ न आ जाय! अगर इस देश के लोकतांत्रिक ढांचे में हर नागरिक बराबर है और हर नागरिक देश के शासन में शामिल है तो फिर यह भेदभाव क्यों है? अगर यह देश हर देशवासी का है तो इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हर एक देशवासी क्यों नही है? अगर इस देश में तरक्की के अवसरों पर हर एक नागरिक का अधिकार है या सभी को सुख सुविधायुक्त सुरक्षित जीवन जीने का बराबर का अधिकार है तो फिर यह भेदभाव क्यों? नेता या नौकरशाह के बेटे की जान ज्यादा कीमती और आम आदमी के बेटे की जान सस्ती क्यों?

Seven moth old Akshit who lost hia father Yogambar.

भारत में हर नागरिक के लिये सैन्य सेवा जरूरी हो !

सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो भारत और इज्राइल की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। भारत तो दो परमाणु शक्ति सम्पन्न वैमनस्यता रखने वाले देशों की सैन्य आकांक्षाओं से भी घिरा हुआ है। इज्राइल दांतों के बीच में जीभ की जैसी स्थिति के बावजूद हर वक्त डिफेंसिव नहीं बल्कि ऑफेंसिव रहता है। उसके बजूद को मिटाने की इतनी कोशिशों के बावजूद उसका कोई बाल बांका नहीं कर पाता। इसकी वजह यह है कि भारत की तरह वहां एक वर्ग विशेष के जिम्मे देश की सुरक्षा न हो कर यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी होती है। वहां के छोटे नेता से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी को कभी न कभी सेना में योगदान देना ही होता है। इज्रराइल ही क्यों दुनियां के डेढ दर्जन से अधिक देशों में आवश्यक मिलिट्री सेवा का प्रावधान है। ब्रिटेन में तो आज भी राजशाही है और वहां के युवराज या राजकुमारों को आवश्यक मिलिट्री सेवा से गुजरना होता है। ब्रिटिश युवराज चार्ल्स फिलिप अर्थर जॉर्ज स्वयं नोसेना के पदधारी रहे हैं। जबकि उनके बेटे और भावी युवराज विलियम हैरी ने एक सैनिक के तौर पर इराक युद्ध में सक्रिय भागीदारी की थी। इस युद्ध में इस युवराज की जान भी जा सकती थी। अगर देखा जाय तो आज भारत को सबसे बड़ी सैन्य चुनौती चीन की ओर से है। चीन से चुनौती केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनियां के महाबली अमेरिका के लिये भी है। उस चीन में भी  18 साल की उम्र तक पहुंचने वाले हर युवा को पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दफ्तर में अपना पंजीकरण कराना होता है, ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके।

नौकरशाह को सबसे पहले फौज में रंगरूटी करायी जाय

भारत के पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने अपने सेवाकाल के दौरान ही देश में ’आवश्यक मिलिट्री सेवा’ या ’कन्सक्रिप्शन’ की जरूरत की बात कही

Ygambar Singh, the only employed member of Virendra’s family laid down his life for the sake of motherland.

तो इस विचार को अंगीकार करना तो रहा दूर, नेताओं और सिविल नौकरशाहों की बिरादरी की भौंहें चढ़ गयीं । जबकि जनरल कपूर ने तो केवल विचार ही रखा था और यह विचार भी कपोल कल्पना नहीं बल्कि दुनियां के कई देशों की व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुये प्रकट किया था। उनका यह विचार सिविल नौकरशाही के प्रति ईर्ष्या भाव के कारण नहीं बल्कि सेना में बड़ी संख्या में अफसरों की कमी को देखते हुये उनके दिमाग में उभरा था। केवल थल सेना में ही आज की तारीख में लगभग 12 हजार अफसरों की कमी है। अगर हर युवा का आकर्षण नेताओं, अभिनेताओं, टैक्नोक्रैट और ब्यूराक्रैट के बच्चों की तरह शासन प्रशासन और दिन दूनी रात चौगुनी कमाई तथा हनक की ओर होगा तो सेना में मरने के लिये कोई कैसे आकर्षित होगा?

ब्रिटिश राजकुमार आज भी सेना में शामिल होते हैं

एक जमाने में ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता था।उस साम्राज्य में 1960 तक आवश्यक सैन्य सेवा का प्रावधान रहा। लेकिन ग्रेट ब्रिटेन के राजकुमार आज भी सेना में भर्ती होते हैं। दुनियां के एकमात्र दारोगा संयुक्त राज्य अमेरिका में 1975 तक यह व्यवस्था थी जिसमें संशोधन तो कर दिया गया मगर पूरी तरह यह व्यवस्था समाप्त नहीं की गयी। अमेरिका को आज भी टक्कर देने की हिम्मत रखने वाले रूस में अब भी यह व्यवस्था किसी न किसी रूप में जिन्दा है। इनके अलावा बोलीविया, बर्मा, इंडोनेशिया, फिनलैंड, इस्टोनिया, जॉर्डन, उत्तर कोरिया, द. कोरिया, मलएशिया, स्विट्रजरलैंड, सीरिया, ताइवान, थाइलैंड, टर्की, बेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात में आज भी किसी न किसी रूप आवश्यक मिलिट्री सेवा का प्रावधान है। अमेरिका समेत, पुर्तगाल, पोलैंड, नीदरलैंड, लिथुआनिया, जापान और हंगरी जैसे देशों ने आवश्यक मिलिट्री सेवा तो समाप्त कर दी मगर स्वेच्छिक सेवा का विकल्प बंद नहीं किया। जापान में भी सेल्फ डिफेंस फोर्स में 18 साल की उम्र वाले लड़कों को अपना पंजीकरण कराने की अपेक्षा की जाती है।

अपार जनशक्ति का उपयोग राष्ट्रीय सुरक्षा में क्यों नही?

सवाल केवल राष्ट्रीय सुरक्षा में हर किसी की भागीदारी का नहीं है। चीन के बाद हमारे पास सबसे अधिक जनशक्ति है और हमारी यह जनशक्ति चीन से भी कहीं युवा है। इस देश की बौद्धिक शक्ति का लोहा अमेरिका तक मानता है। अगर हम इन शक्तियों को सेना से जोड़ते हैं तो हमारी सेना संसार की सबसे शक्तिशाली सेना स्वतः ही बन जायेगी। सवाल केवल सेना में महज औपचारिक भागीदारी का नहीं है। सवाल यह भी है कि अगर हर क्षेत्र में काम करने वाले एक दूसरे के काम की जटिलताओं, जोखिमों और महत्व को समझेंगे तो उनमें तालमेल बढ़ेगा और उनका क्षमता विकास भी होगा। जब एक नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा सीमा पर शहादत देगा तो इस बिरादरी को तब जा कर सेना का महत्व समझ में आयेगा। ब्यूरोक्रैट सेना में भी काम करेंगे तो उनमें अनुशासन की भावना बढ़ेगी।

 

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