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क्या लौट पायेगा गढ़वाल की कमिशनरी  पौड़ी का ऐतिहासिक गौरव 

Script By –Jay Singh Rawat and video Dr. Yogesh Dhasmana

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी गत दिनों गढ़वाल की नाम मात्र की कमिश्नरी पौड़ी में प्रवास के दौरान इसके खोये हुये गौरव के प्रति इतने विचलित हुये कि उन्होंने अंग्रेजों द्वारा बसाये गये इस खूबसूरत नगर की पुरानी रौनक के साथ इसके अतीत के गौरव की बहाली का संकल्प ले लिया। इस सम्बन्ध में मुख्ष्मंत्री धामी ने अधिकारियों को कार्ययोजना बनाने के निर्देश भी दिये जिनकी समीक्षा वह स्वयं आगामी 27 फरबरी को करने जा रहे हैं। लेकिन पिछले अनुभवों को देखते हुये सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्री सचमुच इस भगीरथ प्रयास में सफल हो पायेंगे। क्यों कि कमिश्नरी के 50 साल पूरे होने पर लगभग ऐसा ही संकल्प 29 जून 2019 को तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने भी लिया था।  विडम्बना यह है कि शिमला, मसूरी और नैनीताल की ही तरह कभी अंग्रेजों की पंसदीदा नगरी रही पौड़ी देश का ऐसा अजब मण्डल या कमिश्नरी का मुख्यालय है जहां पिछले 3 दशकों से कमिश्नर तो रहा दूर मण्डल स्तर के अन्य अधिकारी तक नहीं रहते, जिस कारण यह उत्तराखण्ड के पालयन की ज्वलन्त समस्या का प्रतीक बन गया है। विस्मयकारी तथ्य तो यह है कि यह राज्य के पहले पलायन आयोग का मुख्यालय भी है जिससे इसके अध्यक्ष एवं अन्य अधिकारी तक यहां से पलायन कर देहरादून में बैठ गये।

राज्यपाल चेन्ना रेड्डी ने स्थापित की गढ़वाल कमिश्नरी

उत्तराखण्ड के पहले (उस समय देहरादून मेरठ मण्डल में था) के पहले बार एट लाॅ हुये बैरिस्टर मुकन्दी लाल के प्रयासों से 1 जनवरी 1969 को नैनीताल कमिश्नरी के विभाजन के बाद स्थापित गढ़वाल कमिश्नरी की स्थापना के पूरे 50 साल बीत गये। इस कमिश्नरी की मांग के पीछे मुकन्दी लाल जैसे समाज सेवियों और प्रबुद्ध नागरिकों का तर्क यह था कि सुदूर गढ़वाल के उत्तरकाशी और चमोली जैसे क्षेत्रों से छोटे-छोटे कार्यों एवं जमीन या राजस्व सम्बन्धी वादों के लिये भी लोगों को दूर नैनीताल के चक्कर काटने पड़ते हैं। दूसरा तर्क यह था कि गढ़वाल कभी अपने आप में 52 गढ़ों का एक देश ही था, जिसका अधिपति राजा नहीं बल्कि महाराजा कहलाता था। चूंकि 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भी संयुक्त प्रान्त में विलय हो कर गढ़वाल सम्पूर्ण एकीकरण हो चुका था, इसलिये बैरिस्टर मुकन्दी लाल और विधायक चन्द्रसिंह रावत जैसे बुद्धिजीवियों ने गढ़वाल को नैनीताल कमिश्नरी से अलग करने का अभियान शुरू कर दिया। मुकन्दी लाल उत्तराखण्ड के पहले बैरिस्टर तो थे ही साथ ही वह देश के ऊंगलियों में गिने जाने वाले इंग्लैण्ड में बार एट लाॅ की डिग्री हासिल करने वाले विधि विशेषज्ञों में से भी एक थे । गढ़वाल के जानेमाने इतिहासकार डा0 योगेश धस्माना के अनुसार मुकन्दीलाल केे भारत लौटने पर उन्हें एक सप्ताह तक पुलिस द्वारा बंबई में रोका गया और जब वह बम्बई से इलाहाबाद पहुंचे तो उनकी अगवानी करने स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू स्टेशन पहुंचे। इसलिये पहाड़ के मामले में बैरिस्टर मुकन्दी लाल की शासन-प्रशासन में सुनी जाती थी। चूंकि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त का निर्वाचन क्षेत्र रानीखेत ही हुआ करता था इसलिये उनकी भी कुमाऊं कमिश्नरी के विभाजन में रुचि नहीं थी। इसलिये जब 1969 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा तो तत्कालीन राज्यपाल डा0 चेन्ना रेड्डी के हाथ में कार्यकारी अधिकार आते ही इसका लाभ उठाते हुये गढ़वाल के नेताओं ने उन्हें 32,449 वर्ग किमी में फैले गढ़वाल की अलग कमिश्नरी के गठन के लिये मना लिया। इसीलिये डा0 रेड्डी के जीतेजी उनकी प्रतिमा गढ़वाल मुख्यालय पौड़ी में स्थापित की गयी। वर्तमान में यहां उत्तराखण्ड के पांच में से 3 लोकसभा क्षेत्र, 70 में से 41 विधानसभा क्षेत्र, और 9,319 गांव शामिल हैं।

कलक्टरों की समिति ने चुना था पौड़ी को

नैनीताल कमिश्नरी के विभाजन एवं गढ़वाल कमिश्नरी के गठन की स्वीकृति मिलने पर राज्यपाल डा0 चेन्ना रेड्डी द्वारा कमिश्नरी के मुख्यालय के चयन के लिये 5 कलक्टरों की एक समिति का गठन किया था जिसके संयोजक बैरिस्टर मुकन्दीलाल बनाये गये। डा0 योगेश धस्माना के अनुसार उस समय देहरादून को गढ़वाल में मिला कर मुख्यालय देहरादून बनाने का भी एक विचार कुछ लोगों द्वारा दिया गया था, मगर मुकन्दीलाल इस विचार के सख्त खिलाफ थे। उनका जो भय था वह आज सच साबित हो रहा है। कलक्टरों की इस कमेटी में कुमाऊं मण्डल के अल्मोड़ा, नैनीताल, पौड़ी और टिहरी के सभी चार कलक्टरों के साथ ही पांचवां कलक्टर मेरठ मण्डल से भी लिया गया था जो कि पौड़ी के पक्ष में सबसे अधिक था। अन्ततः समिति द्वारा गढ़वाल मण्डल के मुख्यालय के लिये पौड़ी नगर को चुन लिया गया और मुख्यालय का निर्माण पौड़ी नगर के शीर्ष कण्डोलिया में कर दिया गया।

गढ़वाल को निगलने लगा देहरादून

यह सही है कि दून घाटी सदियों से बाहरी आक्रमणों के बावजूद गढ़वाल राज्य का हिस्सा रही। इसी देहरादून के खुड़बुड़ा के युद्ध में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह के गोरखा आक्रमणकारियों के हाथों मारे जाने के बाद 1804 में समूचा गढ़वाल नेपाल के अधीन चला गया था और इसी देहरादून के खलंगा युद्ध में बलभद्र थापा और उसके बचे खुचे चन्द गोरखा सैनिकों को मार भगाने के बाद गढ़वाल ‘‘आतताई गोरख्याणी राज’’ से मुक्त हुआ था। लेकिन इस भीषण युद्ध में विजय के बाद अंग्रेजों ने अलकनन्दा और मंदाकिनी के दायें हिस्से के गढ़वाल और फिर बाद में समूचे कुमाऊं को अपने अधीन करने के कुछ समय बाद कुमाऊं जिले का गठन कर देहरादून को 1817 में सहारनपुर जिले में शामिल कर दिया। इसके बाद 1825 में इसे कुमाऊँ मण्डल में जोड़ दिया गया। सन् 1829 में देहरादून को मेरठ खण्ड को हस्तांतरित कर दिया गया। 1842 में देहरादून को सहारनपुर जिले से जोड़ दिया गया और इसे जिलाधीश के अधीनस्थ सुप्रींटेंडेंट एफ.जे. शोर के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। 1871 में इसे एक जिला बना दिया गया। सन् 1975 में जब इसे पुनः गढ़वाल के साथ जोड़ा गया तो इसके बाद यह गढ़वाल को ही निगलने लगा।

41 सालों से देहरादून से चल रही है पौड़ी कमिश्नरी

सन् 1969 से लेकर 1982 तक तो कमिश्नरी के मुख्यालय में रौनक ही रौनक रही। उस दौरान कुमाऊं से अलग होने पर हर साल मुख्यालय पौड़ी में ‘‘गढ़वाल दिवस’’ भी मनाया जाता रहा। लेकिन देहरादून के गढ़वाल में शामिल होने पर गढ़वाल के कमिश्नर देहरादून के प्रति अपने मोह को ज्यादा समय तक नहीं रोक पाये। इसलिये मण्डल के 10वें कमिश्नर (आयुक्त) एस. के. विश्वास ने 1982 में देहरादून के मोहिनी रोड पर एक कैंप कार्यालय खुलवा ही दिया। कैंप कार्यालय क्या खुलना था कि मुख्यालय पौड़ी केवल गर्मियों में ठण्डी हवा खाने के लिये आराम स्थल और देहरादून का कैंप कार्यालय ही असली मण्डल मुख्यालय बन गया। कुछ समय पहले तक लोकलाज के डर से देहरादून के ई.सी. रोड स्थित आयुक्त कार्यालय बोर्ड पर कैंप कार्यालय लिखा होता था, लेकिन 28वें कमिश्नर विनोद शर्मा ने बोर्ड से कैंप शब्द भी हटवा दिया। पहले कमिश्नर एस.सी. सिंघा से लेकर वर्तमान डा0 बी.वी.आर. पुरुषोत्तम तक कुल 31 कमिश्नर इस मण्डल में पदासीन रह चुके हैं जिनमें से केवल 9 कमिश्नर ही पूरी तरह पौड़ी में बैठकर काम करते रहे। उसके बाद के सभी 22 कमिश्नर देहरादून के ही होकर रह गये। इस तरह अभागे मण्डल मुख्यालय पौड़ी को केवल 13 साल तक फुल फ्लेज्ड कमिश्नरी मुख्यालय का सौभाग्य हासिल हुआ और शेष 41 सालों तक गढ़वाल के कमिश्नर पौड़ी के नाम पर देहरादून से अपनी हाकिमी चलाते रहे।

कमिश्नर खिसके तो अधिकारी भी खिसके

मण्डल मुख्यालय पौड़ी से कमिश्नर का खिसक कर देहरादून में डेरा जमाना था कि एक-एक कर मण्डल स्तर के अधिकारी भी पौड़ी से खिसक कर देहरादून में कैंप कार्यालय के नाम पर आ गये और पौड़ी स्थित विभागीय मण्डल मुख्यालयों को बीरान कर गये। जब आइएएस काडर के कमिश्नर ने पौड़ी से खिसकने की शुरूआत की तो फिर आइपीएस काडर के वरिष्ठ अधिकारी डीआइजी कहां पीछे छूटने वाले थे। डीआइजी ने भी देहरादून में कचहरी के निकट ओल्ड पुलिस लाइन में कैंप कार्यालय के नाम पर अपना स्थाई ठिकाना बना दिया। आज की तारीख में राज्य सरकार को दो-दो जगहों इनके कार्यालयों के खर्चे तथा अफसरों के आवागमन आदि के भत्ते भुगतने पड़ रहे हैं। शासन द्वारा वर्तमान में मण्डल मुख्यालय पौड़ी में कुल 27 विभागों के मण्डलीय कार्यालय स्वीकृत हैं मगर वहां केवल 13 अधिकारी ही बैठते हैं। उनमें से भी कुछ यदाकदा पौड़ी पहुंचने वालों में से हैं। कृषि निदेशक को देहरादून से पौड़ी भेजने के लिये नारायण दत्त तिवारी से लेकर बाद के मुख्यमंत्रियों तक सबने जोर लगाया मगर सभी थक हार गये। पौड़ी में जिन अधिकारियों के मुख्यालय होने थे और वे इन मुख्यालयों को केवल कैंप आफिस के रूप में प्रयोेग कर रहे हैं उनमें आयुक्त और डीआइजी के अलावा लो.नि.वि के मुख्य अभियन्ता तथा गढ़वाल जल संस्थान के साथ ही जल निगम के महा प्रबंधक शामिल हैं। अपर निदेशक कृषि का भी केवल कैंप कार्यालय चल रहा है। अपर निदेशक चिकित्सा का यहां कार्यालय तो है मगर अधिकारी बहुत कम बैठता है। महाप्रबंधक पावर कारपोरेशन, आरएफसी, एवं पुरातत्व अधिकारी ने पौड़ी में कैंप कार्यालय तक नहीं खोले। वहां आरटीओ का पद है मगर सहायक आरटीओ को बिठाया गया है।

पलायन आयोग के मुख्यालय से भी पलायन 

मजेदार बात तो यह है कि पहाड़ों से पलायन रोकने के लिये अक्टूबर 2017 में त्रिवेन्द्र सरकार ने जिस पलायन आयोग का गठन कर उसका मुख्यालय पौड़ी बनाया था उसके अध्यक्ष डा0 एस.एस.नेगी ही पलायन कर देहरादून में ही बैठ गये। आयोग के अध्यक्ष पद पर भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के निदेशक पद से सेवा निवृत्त वरिष्ठतम् भारतीय वन सेवा के अधिकारी एस.एस.नेगी को उनके लम्बे अनुभव एवं पहाड़ की पृष्ठभूमि को देख कर ही नियुक्त किया था। सबसे रोचक तथ्य यह है कि आयोग के अध्यक्ष का मूल स्थान ही पौड़ी नगर है जो कि कभी एक गांव हुआ करता था। आज वहां केवल डाक रिसीव करने के लिये दो या तीन ही कर्मचारी तैनात हैं। अब राज्य सरकार और खास कर पलायन आयोग की पहाड़ों और पौड़ी कमिश्नरी से हो रहे पलायन के प्रति पीड़ा महसूस की जा सकती है।

 

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