उत्तराखण्ड की जमीनों को भूमाफिया और भूखोर नेताओं से खतरा

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-जयसिंह रावत
अपने पुरखों से विरासत में मिली जमीनों को बाहरी जमीनखोरों से बचाने के लिये कुछ अन्य हिमालयी राज्यों की तरह विशिष्ट कानूनी प्रावधानों की मांग को लेकर उत्तराखण्ड में एक और जनान्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। पहाड़वासियों को आशंका है कि राज्य में देश के पहले भूमि सुधार कानून, उत्तर प्रदेश (उत्तराखण्ड) जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम में कई छेद कर मूल निवासियों की जमीनों पर नयी तरह की जमीदारी विकसित हो रही है। प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में स्थानीय लोगों की जमीनों पर नेताओं और धन्नासेठों द्वारा की जा रही खरीद फरोख्त से पहाड़वासियों की आशंका को बल मिल रहा है।
स्वाधीनता आन्दोलन में जमींदारी विनाश की भावना
स्वाधीनता आन्दोलन के साथ ही सवाल उठ गया था कि अंग्रेजों से देश की आजादी का तब तक कोई अर्थ नहीं रह जायेगा जब तक कि आम किसान को जमीदारों और सामन्तों से मुक्ति नहीं मिलती। इसीलिये संयुक्त प्रान्त की असेंबली ने 8 अगस्त 1946 को काश्तकार और सरकार के बीच के बिचैलिये (जमींदार) समाप्त करने का प्रस्ताव पारित करने के साथ ही प्रान्त के प्रीमियर गोविन्द बल्लभ पन्त की अध्यक्षता में एक 15 सदस्यीय जमींदारी उन्मूलन कमेटी का गठन कर दिया था जिसमें तत्कालीन राजस्व मंत्री हुक्मसिंह और पन्त जी के साथ संसदीय सचिव चैधरी चरणसिंह भी शामिल थे। कमेटी की रिपोर्ट स्वयं चैधरी चरणसिंह ने ड्राफ्ट की थी। लेकिन स्वाधीनता आन्दोलन से उपजी वह भावना जमीनखोरों ने निगल ली।
उत्तराखण्ड राज्य के साथ धारा 371 की मांग भी थी
नब्बे के दशक में चले ऐहिासिक उत्तराखण्ड आन्दोलन में जहां पृथक राज्य की मांग की जा रही थी वहीं पहाड़वासियों की जमीनें एवं उनकी सांस्कृतिक पहचान बचाये रखने के लिये उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह संविधान के अनुच्छेद 371 के विभिन्न प्रावधानों की व्यवस्था की मांग की जा रही थी। अंग्रेजों ने भी आज के उत्तर प्रदेश, जिसे तब आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त के नाम से जाना जाता था, के प्रशासन से भिन्न तत्कालीन असम के जनजातीय क्षेत्रों की तरह उत्तराखण्ड को भी शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 के तहत प्रशासित किया था। धारा 371 की मांग करने वालों में भाजपा के तत्कालीन सांसद मनोहरकान्त ध्यानी भी थे, जिन्होंने बाकायदा यह प्रस्ताव राज्यसभा में भी रखा था।
तिवारी और खण्डूड़ी ने बनाया था हिमाचल का जैसा कानून
लेकिन इस हिमालयी राज्य को उत्तर पूर्व की तरह संवैधानिक दर्जा तो नहीं मिला मगर नारायण दत्त तिवारी और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी सरकारों ने हिमाचल प्रदेश के काश्तकारी एवं भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 118 की तर्ज पर उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2008 में जो संशोधन कर लोगों की जमीनें भूखोरों से बचाने के प्रयास किये थे उनमें 2017 में सत्ता में आयी सरकार ने कई संशोधन कर इस कानून के उदेश्य को ही समाप्त कर जमीनों की लूटखसोट की खुली छूट दे दी। इस अधिनियम के मूल संशोधनों में व्यवस्था थी कि जो व्यक्ति धारा 129 के तहत राज्य में जमीन का खातेदार न हो, वह 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के भी जमीन खरीद सकता है। साथ ही इस कानून में यह भी व्यवस्था थी कि इस सीमा से अधिक जमीन खरीदने पर राज्य सरकार से क्रेता को विशेष अनुमति लेनी होगी। उसके बाद 2007 में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी सरकार ने 500 वर्ग मीटर की सीमा घटा कर 250 वर्गमीटर कर दी थी। इस कानून में व्यवस्था थी कि 12 सितम्बर, 2003 तक जिन लोगों के पास राज्य में जमीन है, वह 12 एकड़ तक कृषि योग्य जमीन खरीद सकते हैं। लेकिन जिनके पास जमीन नहीं है, वे आवासीय उद्ेश्य के लिये भी इस तारीख के बाद 250 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकते हैं। इस कानून को जब नैनीताल हाइकार्ट ने असंवैधानिक घोषित किया तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी जहां इसे वाजिब और संवैधानिक घोषित कर दिया गया।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये जरूरी बताया था भू कानून
उत्तराखण्ड में पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने 2003 में नये भूकानून की प्रस्तावना में कहा था कि उन्हें बड़े पैमाने पर कृषि भूमि की खरीद फरोख्त अकृषि कार्यों और मुनाफाखोरी के लिये किये जाने की शिकायतें मिल रहीं थीं। उनका कहना था कि प्रदेश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को देखते हुये असामाजिक तत्वों द्वारा भी कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय नीति का लाभ उठाया जा सकता है। अतः कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय को नियंत्रित करने और पहाड़वासियों के आर्थिक स्थायित्व तथा विकास के लिये सम्भावनाओं का माहौल बनाये जाने हेतु यह कानून लाया जाना जरूरी है। उत्तराखण्ड में कृषि के लिये केवल 13 प्रतिशत जमीन वर्गीकृत है जिसका एक बड़ा हिस्सा पलायन के कारण उपयोग से बाहर हो गया। राज्य गठन के बाद ही लगभग 1 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य जमीन कृषि से बाहर हो गयी और ऐसी जमीन में या तो इमारतें उग गयीं या फिर जंगल-झाड़ियां दग गयी हैं। अगर इतनी सीमित जमीन भी पहाड़ के लोगों से छीन ली गयी तो उनकी पीढ़ियां ही भूमिहीन हो जायेंगी।
उद्योग तो नहीं आये मगर जमीनें जरूर चली गयीं
वर्ष 2018 के 7 एवं 8 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में आयोजित निवेशक सम्मेलन में हुये 1.25 लाख करोड़ के पूंजी निवेश प्रस्तावों के एमओयू से तत्कालीन त्रिवेन्द्र सिंह सरकार इतनी गदगद हुयी कि उसको जमीदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के पीछे छिपी जमींदारी के विनाश और काश्तकार की भूमि बचाने की भावना नजर नहीं आयी और उन्होंने उद्योगों के नाम पर पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश से विरासत में मिले एतिहासिक जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 को ही दांव पर लगा दिया। त्रिवेन्द्र सरकार ने 2018 में उत्तराखंड (उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950)(अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर उक्त कानून में धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी। इस के साथ ही 143 (क) जोड़ कर कृषकों की जमीनों को अकृषक बाहरी लोगों द्वारा उद्योगों के नाम पर खरीद कर उसका भूउपयोग परिवर्तन आसान कर दिया। अब कोई भी धन्नासेठ उद्योग लगाने के नाम पर बहुत ही सीमित मात्रा में उपलब्ध कृषि भूमि खरीद कर उसका कुछ भी उपयोग कर सकता है। उस दौरान राज्य की जमीनों की नीलामी कर राजस्व कमाने की योजना भी बनी मगर योजना के धरातल पर उतरने से पहले सरकार ही चली गयी।
डा0 परमार को चिन्ता थी पहाड़ियों की जमीनों की
आधुनिक हिमाचल के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार ने नये राज्य के अस्तित्व में आते ही 1972 में हिमाचल प्रदेश काश्तकारी और भूमि सुधार अधिनियम 1972 बनवा कर उसकी धारा 118 में ऐसी व्यवस्था कर दी थी जिससे जमीन का मालिक अकृषक को सेल, डीड, लीज, गिफ्ट, हस्तांतरण और गिरबी के माध्यम से जमीन हस्तांतारित नहीं कर सकता था। यद्यपि हिमाचल में भी बाहरी दबाव के चलते इस कानून में अब तक पांच बार संशोधन हो चुके हैं। नये प्रावधानों के तहत वहां अटल बिहारी बाजपेयी और प्रियंका गंाधी सरीखे वीआइपी को मकान बनाने के लिये जमीनें मिल चुकी है। शिमला से लेकर मनाली और डलहौजी तक देश के नामी कारोबारियों एनं नेताओं ने प्रदेश में होटलों का निर्माण इन्हीं प्रावधानों के तहत किया है। वहां भी आवासीय भवन के लिये 500 और दुकानों के लिये 300 वर्गमीटर तक जमीनें खरीदने की छूट है लेकिन वे गैर कृषक ही माने जायेंगे। इनके अलावा वहां उद्योगों के लिये भी जमीन खरीदने की छूट है।

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