धर्मस्थलों का लक्ष्य धन कमाना नहीं, सनातन धर्म का प्रचार और प्रसार हो !

-एडवोकेट राजेंद्र कोटियाल-
उत्तराखंड सनातनी संस्कृति का एक पौराणिक केंद्र रहा है और वर्तमान में भी है। यहां प्राचीन मंदिर एवं जीवन दयानी नदियां हैं। जिनका महत्व वैदिक काल से ही रहा है। उत्तराखंड के तीर्थ स्थल प्राचीन समय से ही आस्था का केंद्र रहे हैं और वर्तमान में भी है। उत्तराखंड के चार धाम। सनातन परंपराओं में विशेष स्थान रखते हैं। इससे भिन्न भी अन्य कई मंदिर एवं मठ यहां मौजूद हैं।
वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि इन मंदिरों की सनातन संस्कृति का संरक्षण यह संवर्धन किया जाए एवं प्राचीन परंपराओं को पुनः स्थापित किया जाए जिससे कि वर्तमान में सनातन मंदिरों एवं प्रतिष्ठानों पर लागू किया जा सके। यह परंपरा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित है और पौराणिक काल से ही गढ़वाल एवं कुमाऊं के राजवंश इन परंपराओं का निर्वाह करते रहे हैं एवं इन्हीं के अनुसार धर्मों में आचरण पर विशेष ध्यान दिया गया। ताकि यहां आने वाले श्रद्धालुओं में सनातनी व्यवस्थाओं एवं धर्म के प्रति निष्ठा एवं समर्पण का भाव बना रहे।
वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इन धर्मस्थलों का मुख्य लक्ष्य मात्र। धन अर्जन करना ही रह गया है। यह आस्था एव धर्म पर कुठाराघात है :
१) यह धन जो इन धर्मस्थलों से अर्जित किया जाता है क्या वह सनातनी? धर्म के विस्तार में प्रयोग होता है या इससे कोई शिक्षण संस्थान या औषधि केंद्र सनातनियों के लिए स्थापित किए जाते हैं?
२) सनातनी पूजा पद्धति में विशेष वस्त्र पहनकर ही यह अनुष्ठान एवम् दर्शन किए जाते हैं। जैसे कि ढका हुआ सिर। क्या इन धर्मस्थलों में प्राचीन व्यवस्था क्या वर्तमान में भी मौजूद ? और महिला और पुरुषों को पूजा के समय सर ढकना अनिवार्य होना आवश्यक है? वर्तमान परिस्थितियों में यह अनिवार्य हो गया है कि इन धर्मों में एक ड्रेस कोड लागू करना ही उचित होगा। जैसे कि पुरुषों के लिए पारंपरिक पहाड़ी टोपी एवं वस्त्र में झगोल या धोती इत्यादि। महिलाओं के लिए भी पारंपरिक चुन्नी या साड़ी से अपना सर ढकना।
३) उत्तराखंड के तीर्थ स्थलों पर तीर्थ स्थान पुलिस का भी एक महत्वपूर्ण योगदान इन व्यवस्थाओं में अनिवार्य रूप से होना आवश्यक है और इन तीर्थ पुलिस कर्मियों को विशेष रूप से धाम में सनातनी व्यवस्थाओं के अनुसार आचरण करने के लिए विशेष प्रशिक्षण। दिया जानाआवश्यक है। ताकि आने वाले श्रद्धालुओं में आस्था बनी रहे और उनके साथ कोई दुर्व्यवहार न हो।
४) धर्मस्थलों में पंडा पुरोहित समाज के आचरण पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। तीर्थों में प्राचीन समय से ही चली आ रही सनातनी व्यवस्थाओं को संरक्षित करने के लिए जो तत्कालीन रियासतों द्वारा नियमावली, तीर्थ सुधार 1924 को लागू किया जाए। जिसके अधीन यह प्राचीन समय से ही व्यवस्थाएं चलती आ रही है।
५) इन धर्मस्थलों में कोई भी निर्णय लेने से पूर्व यहां के स्थानीय हक हकूकधारी एवं राजवंशी जिनके द्वारा यह मंदिर स्थापित एवं संरक्षित किए गए, की उपस्थिति की व्यवस्था समिति में होना आवश्यक किया जाय ।
६) इन धर्मस्थलों में भोग भंडारा की व्यवस्था हेतु श्रद्धालुओं द्वारा जो भूमि व संपत्ति भगवान को चढ़ावे में दी गई है। इन संपत्तियों पर जो अतिक्रमण किए गए हैं उन्हें शीघ्र एक समिति गठन करके हटाना जरूरी है। यह संपत्तियां उत्तराखंड एवं उत्तराखंड के बाहरी राज्यों में भी हैं।
७) उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है। यहां श्रद्धालु विषम परिस्थितियों में भी दर्शन करने के लिए इन पहुंचते हैं। किंतु देखा गया है कि ना ही यहां रहने की उचित व्यवस्था मिल पाती है। अधिकतर धर्मशालाएं एवं होटल यहां मौजूद हैं जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से इन श्रद्धालुओं का शोषण करते हैं। मंदिर परिसरों में भी प्राचीन सदाव्रत भंडारे नहीं दिए जा रहे हैं। इसमें यह आवश्यक होगा कि न्यूनतम शुल्क में इन श्रद्धालुओं को रहने की व्यवस्था एवं मंदिर द्वारा की जाय और सदाव्रत भंडारा दिया जाए ताकि आने वाले श्रद्धालु सनातनी व्यवस्थाओं पर अटूट श्रद्धा रख सके।
८) यह भी आवश्यक है कि स्थानीय युवाओं एवं बेरोजगार व्यक्ति जो इन स्थानों के निकटवर्ती क्षेत्र से है, उनके लिए जीविकोपर्जन हेतू योजना बनाई जानी आवश्यक है। जिससे कि स्थानीय उत्पादन इन धर्म स्थलों के प्रयोग में लिए जा सकें।
९) यह भी आवश्यक है कि सरकार इन धर्म स्थलों की
अंदरूनी व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप ना करें। अथवा वह कार्य करें जो एक सरकार के होते हैं जैसे बिजली पानी सड़क की सुविधा एवं भूमि आवंटन आदि।