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आफत के पहाड़ पर मौत का बुलावा….”कख लगाण छ्वीं , कैमा लगाण छ्वीं,

–दिनेश शास्त्री–
सोचि छौ ऐसु गौं मा मनौण बग्वाळ, 
नि जाणि ज्यूंरा कनू वख जग्वाळ।
ढ़वाली कविता की सशक्त हस्ताक्षर और चर्चित साहित्यकार श्रीमती बीना बेंजवाल की यह पंक्तियां बेशक सुखद नहीं हैं लेकिन चमोली जिले के थराली प्रखंड के पैनगढ़ गांव में 21 और 22 अक्टूबर की दरम्यानी रात को अचानक बिना बारिश हुए भूस्खलन से चार जिंदगियों के छिन जाने और एक के गंभीर रूप से घायल हो जाने का प्रतिबिंब है। बेहद संवेदनशील रचनाकार बीना बेंजवाल के यह शब्द किसी भी भावुक हृदय को विचलित कर देने के लिए पर्याप्त हैं।

 

सच भी यही है कि पैनगढ के सती परिवार ने जिस डर से गांव छोड़ा था आखिर वही अनहोनी हुई। या यों कहें, देहरादून में सकुशल रह रहे इन अभागे लोगों को यहां से खींच कर मौत बुला ले गई और परिवार के चार लोग अकाल काल के गाल में समा गए जबकि एक जिंदगी व मौत के बीच झूल रहा है। हादसा न सिर्फ दर्दनाक है बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी देने वाला भी है।पैनगढ़ गांव में यह आपदा तब आई जब कहीं कोई बारिश नहीं थी, न कोई आशंका ही थी। सुहावने मौसम में बड़ी हसरत से परिवार के लोग अपने पैतृक गांव में दिवाली मनाने तीन दिन पहले ही गए थे। वैसे बीते एक दशक से यह गांव बेहद असुरक्षित है। कब आपदा आ जाए और जान माल का नुकसान न हो जाए, इस भय से देहरादून बस गए थे। कौन जानता था कि जिस हसरत से गांव जा रहे हैं, वह सब धरी रह जायेंगी और वे फिर कभी लौट कर नहीं आयेंगे। यानी जड़ों की ओर लौटने का यह मोह घनघोर विषाद का सबब बन जायेगा। किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी।

बताते चलें थराली के वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र सिंह बिष्ट ने शनिवार सुबह पौ फटते ही खबर दी। उन्होंने बताया कि शुक्रवार की देर रात 1.36 बजे पैनगढ़ गांव में अचानक हुए भूस्खलन के कारण उसकी जद में देवानंद सती की  मकान आ गया। मकान  पूरी तरह ध्वस्थ हों गया। घटना की सूचना मिलते ही ग्रामीण राहत एवं बचाव कार्य में जुट गए और घटना की सूचना तहसील प्रशासन को दी गई। प्रशासन की टीम भी घटनास्थल पर पहुंच गई थी लेकिन हादसे में बचुली देवी (75) पत्नी माल दत्त का शव सबसे पहले निकाला गया जबकि घायल 37 वर्षीय सुनीता देवी पत्नी घनानंद सती ने उपचार के लिए ले जाते समय रास्ते में दम तोड़ दिया। मकान के अंदर दबे देवानंद (57) एवं घनानंद (45) के शवों को तहसील प्रशासन, एसडीआरएफ एवं स्थानीय ग्रामीणों ने जेसीबी सहित अन्य संसाधनों के सहयोग से कड़ी मशक्कत के बाद सुबह आठ बजे के करीब निकाला जा सका। इसके अलावा घायल 15 वर्षीय योगेश पुत्र घनानंद को सीएचसी थराली में प्राथमिक उपचार के बाद हायर सेंटर रेफर कर दिया गया। उसकी हालत गंभीर बनी हुई है। निसंदेह हर हादसा भयावह होता है लेकिन यह अप्रत्याशित आपदा हतप्रभ करने वाली है। वैसे यह गांव पहले से असुरक्षित घोषित किया जा चुका है किंतु सवाल यह है कि सब कुछ जानते बूझते सरकारी तंत्र हादसे के बाद ही क्यों जागता है?
एसडीसी फाउंडेशन के प्रमुख अनूप नौटियाल की इस बात से असहमति का कोई कारण नहीं है कि दरकती चट्टानों के साए में जान आफत में ही रहती है लेकिन सरकार के स्तर पर बहुत ज्यादा संवेदनशीलता दिखाई नहीं देती। श्री नौटियाल बताते हैं कि वर्ष 2021 फरवरी में राज्य सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश के 12 जिलों में 395 गांव आपदाग्रस्त हैं और इनका पुनर्वास किया जाना चाहिए। तब से अब तक यह संख्या बढ़ी ही है लेकिन कम नहीं हुई है। निसंदेह सरकार को यह बताना चाहिए कि कामचलाऊ व्यवस्था कब तक चलेगी। उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि यदि उसके बस का कुछ नहीं है तो घोषित कर दे कि इस प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों के लोग अपने जोखिम पर रहें। सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। वस्तुत: यही इस राज्य का सच भी है। सरकार अपनी योजनाओं को सिरे चढ़ाने के लिए जनहित के नाम पर लोगों की बेशकीमती या यों कहें कि सोना उगलने वाली जमीन जब चाहे तब अर्जित कर लेती है लेकिन पहाड़ में हर पल मौत के साए में रह रहे लोगों के लिए कोई जनहित का पैमाना नहीं है।
श्री नौटियाल आंकड़ों का हवाला देते हुए बताते हैं कि बीते तीन सप्ताह के दौरान प्रदेश में प्राकृतिक और मानवजनित आपदा में 72 लोगों की जानें चली गई। इनमें दो अक्टूबर को द्रोपदी का डांडा एवलांच हादसे में 29 लोग मारे गए तो बीरोंखाल इलाके में बस हादसे में 32 लोग बेमौत मारे गए। 18 अक्टूबर को केदारनाथ के पास हेलीकॉप्टर हादसे में सात लोग मारे गए जबकि 21 अक्टूबर को थराली के पास चार लोगों की जान चली गई। श्री नौटियाल का विश्लेषण है कि हर पांच दिन पर एक हादसा घटित हो रहा है। सरकार को इस बारे में गंभीरता से कार्ययोजना बनानी चाहिए। इस मामले में विलम्ब की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या हमारा तंत्र इस दिशा में कहीं गंभीर नजर आता है? उत्तर साफ है, कहीं कोई गंभीरता नहीं दिखती। यदि ऐसा होता तो फरवरी 2021 से उन अभागे 395 गांवों का पुनर्वास अब तक हो चुका होता। अगर इस बीच किसी गांव का पुनर्वास हुआ भी है तो सरकार के विज्ञापनों में वह कहीं दिखाई नहीं दिया है, जबकि छोटी मोटी छींक भी अक्सर विज्ञापन का विषय बनते हम देखते आ रहे हैं।
आपको बता दें फरवरी 2021 में उत्तराखंड सरकार ने ही प्रदेश के जिन 395 गांवों के तत्काल पुनर्वास की जरूरत गिनाई है, उनमें स्पष्ट किया गया है कि पिथौरागढ़ के 129, उत्तरकाशी के 62, चमोली के 61, बागेश्वर के 42, टिहरी के 33, पौड़ी के 26, रुद्रप्रयाग के 14, चंपावत के 10, अल्मोड़ा के नौ, नैनीताल के छह, देहरादून के दो और उधमसिंह नगर का एक गांव को तत्काल पुनर्वासित किया जाना चाहिए। कौन भूला है कि 2021 में चमोली जिले के जोशीमठ प्रखंड में ऋषि गंगा आपदा के बाद यह बात शिद्दत से कही गई थी कि आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील घोषित 395 गांवों के पुनर्वास पर काम किया जायेगा लेकिन नतीजा क्या रहा? वही ढाक के पात।
आज तक यही देखने में आ रहा है कि जब जब कोई हादसा होता है तो तब तब नेता, अफसर ही नहीं उनके सिपहसालार भी पीड़ितों को दिलासा देते दिख जाते हैं किंतु वक्त बीतने के साथ हर कोई पीड़ितों के दर्द को भूल जाता है और तब तक एक नई आपदा से सामना हो जाता है।
कहना न होगा कि उत्तराखंड में एक स्थाई भाव हो गया है कि आपदा आए तो राहत बांट कर फोटो खिंचवा दो और उसके बाद अगली आपदा का इंतजार करो। इस गिद्ध प्रवृत्ति को क्या सभ्य समाज में स्वीकार किया जाना चाहिए? यह सवाल हम अपने पाठकों पर छोड़ते हैं। सरकार से तो उम्मीद नहीं है। पिछले दो दशक का अनुभव यही बताता है।
ग्लोबल वार्मिंग और बदलते पर्यावरण के ये अभी प्रारंभिक नतीजे हैं। थराली की ताजा घटना बिना बारिश भू स्खलन का पहला उदाहरण नहीं है। इस तरह के अवांछित हादसों से न जाने कितनी बार दो चार होना पड़ेगा। वैसे भी पहाड़ की नियति सी हो गई है कि गांव के ऊपर आग और नीचे बाघ का डर हमेशा बना ही रहता है। आपने जनवरी के महीने में भी धधकते जंगल भी देख ही लिए होंगे। मई जून में तो आम बात है। पहाड़ के लिए अभिशाप बन गए पिरूल के निस्तारण की आज तक केवल सतही योजनाएं ही बनी हैं। कारण सिर्फ और सिर्फ नेताओं की लाचारी और नौकरशाही की मनमर्जी ही है। पिरूल से बिजली बनाने के सब्जबाग बहुत दिखाए गए लेकिन नौकरशाही के मकड़जाल और उद्यमिता के अभाव ने इस सपने की भी भ्रूण हत्या ही की है। एक बार तो पिरूल से कोयला बनाने की बात भी खूब सुनी थी, आपको इस तरह का कोई ठोस प्रयास नजर आता हो तो मेरा भी ज्ञानवर्धन करें।
स्व. राजेंद्र धस्माना इस संदर्भ में आज फिर याद आ रहे हैं। पहाड़ के बुनियादी मुद्दों के प्रति बेहद संवेदनशील रहे धस्माना जी अक्सर कहा करते थे कि यदि कोई वस्तु परेशानी का सबब बन रही हो तो उसका इस कदर दोहन कर दो कि वह वरदान सिद्ध हो। पिरुल के उपयोग के संदर्भ में वे इसी बात पर जोर देते थे। लेकिन जब महज विज्ञापन से काम चल जाता हो तो कर्म कौशल के प्रदर्शन की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। पहाड़ों में साल दर साल लगने वाली आग भी तो बिना बारिश भूस्खलन का एक कारण मानी जाती है लेकिन नक्कारखाने में संजीदा स्वर को सुनता कौन है?
विडंबना यह है कि पहाड़ में जीवन हर पल खतरे में है।  दिन में बंदर और रात में सुअर खेतों में खड़ी फसल तबाह कर रहे हैं। जो लोग ठहरे हैं वे निश्चित रूप से तपस्वी हैं किंतु उनकी सुध लेने की फुरसत हमारे तंत्र को नहीं है। एक दो अपवाद छोड़ दें तो पहाड़ में कोई ऐसा अफसर नजर नहीं आता जो सत्ता प्रतिष्ठान को यह बता सके कि समस्या का समाधान क्या है? कुछेक अफसरों ने अगर कुछ नया करने की कोशिश भी की तो उन्हें जल्दी चलता कर जाता है। ऐसे में कोई जोखिम लेने का साहस बटोरे भी तो कैसे?
थराली की घटना पर अफसोस जताने के कुछ दिन बाद क्या होगा? आप जानते हैं, सब भूल जायेंगे कि पैनगढ़ के सती परिवार के साथ क्या हुआ था। जो लोग उस गांव में शेष हैं, वे भी अपने अपने संभव संसाधनों से अन्यत्र चले जायेंगे लेकिन लोककल्याण की व्यवस्था पर भरोसा कौन करेगा, वजह यह है कि भरोसा तो कब का खत्म हो चुका है। रही बात चुनाव में वोट बटोरने की तो साहब वोट कैसे बटोरे जाते हैं, वे किसी से छिपे नहीं हैं। नौकरी के लिए अगर नौजवान हाथ पैर मारे भी तो भर्ती घोटाले देख उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है। सबके अपने अपने लोग फिट होने होते हैं। आम नौजवान के लिए तो निराशा का भंवर ही शेष बचता है। हादसे, घपले, घोटाले, बेईमानी, बंदरबांट और लूट के सिवा मिला भी क्या? आपको इस सवाल का कहीं से मिल जाए तो साझा जरूर करें।
और आखिरी बात, जब हर तरफ से निराशा का भाव ही परिलक्षित होता हो तो सिर्फ और सिर्फ प्रख्यात लोकगायक तथा रचनाधर्मी नरेंद्र सिंह नेगी जी के यही शब्द हमारे पास शेष रहते हैं-
“कख लगाण छ्वीं , कैमा लगाण छ्वीं,
ये पहाड़ की, कुमौं-गढ़वाल की,
रीता कूड़ों की, तीसा भांडों की,
बगदा मनख्यूं की, रड़दा डांडों की…।।”
(कहां कहें बात, किससे कहें बात, /इस पहाड़ की, कुमाऊं -गढ़वाल की/ खाली मकानों की, / प्यासे बर्तनों की, बहते मनुष्यों की, लुढ़कते पहाड़ों की। )

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