सांस्कृतिक विविधता : मरी और जिन्दी होली मानते हैं थारू जनजाति के लोग
The author Jay Singh Rawat says in his book “BADALTE DAUR SE GUJARTI JAN JAATIYAN” that the Zinda Holi is celebrated from the day of Purnima to Holika Dahan and the Mari Holi is celebrated for eight days after Dhulandi. Throughout the period, there is much dancing, music, and revelry. The married men, according to the tradition, prefer wearing their wedding dresses, but not the women folk. Earlier, men and women used to dance separately forming circles but now they also dance together.
-जयसिंह रावत –
थारू अन्य हिन्दुओं की तरह होली, दीपावली, दशहरा, गंगा स्नान आदि त्योहारों को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। थारूओं में होली एक सांस्कृतिक महोत्सव है, जिसे वे पूरे एक माह आठ दिन तक मनाते हैं। होलिका दहन से पहले जिन्दी होली होती है और फिर बाद में मरी होली। शिवरात्रि से शुरू होने वाली होली, होलिका दहन तक जिंदी होली के रूप में मनाई जाती है। दहन के ठीक आठ दिन बाद तक मरी होली के रूप में मनाई जाती है। जिंदी होली में दिन में गाँव के पधान के घर होली गायी जाती है। फिर रात को एक-एक कर, अपने कुर्मा-टब्बर यानी बिरादरी और अन्य समुदाय तथा उप समुदायों के यहाँ होली गायन होता है। समाज के लोग पधान के घर से उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर प्रत्येक घर में जाकर होली खेलते हैं। जिंदी होली में खूब रंग, गुलाल उड़ाया जाता है। गीले-सूखे रंग खूब चलते हैं। लेकिन मरी होली में रंग खेलना अच्छा नहीं माना जाता। महिला-पुरुषों में बराबरी से मनाए जाने वाले इस त्योहार की शुरूआत गणपति आराधना, शिव पार्वती स्तुति और भरारे बाबा की आराधना के गीत गा कर किया जाता है-
“मेरो गणपति आवे होरी खेलन रे,
मेरो गणपति आवे होरी खेलन रे,
शिव-परवती को लोड़ो गजपति
आवे होरी खेलन रे
इसके साथ शुरू हुई होली महाभारत के पूरे प्रसंग पर गाई जाती है
कैसो भयो संग्राम भयंकर, कुरुक्षेतर में
पांडव-कौरब संगे-संगे भइया, जर-जोरू को लड़े रे
ऐसे जैसे लड़े कसइया
कसो भयो संग्राम भयंकर कुरुक्षेतर में”
थारुओं में रामायण, श्रीमद्भागवत और गीता के प्रसंगों पर भी होली का धमाल होता है। श्रीकृष्ण की बाल लीला से लेकर उनके करतबों और उनकी सभी कलाओं का जिक्र भी होली के माध्यम से किया जाता है। फिर शुरू होती है प्रेम रस में डूबी होली शुरू होती है।
थारू होली में ढोल और झाँझ, दो वाद्य यंत्रों का अधिक प्रयोग होता है। दो अर्र्द्ध वृत्ताकार घेरों में एक तरफ स्त्री और एक तरफ पुरुष खड़े होकर गीत गाते हैं और हाथों में रुमाल लेकर नृत्य करते हैं। रात और दिन दोनों वक्त होली खेली जाती है। पुरुष पहले झगिरा पहनते थे और महिलाएं घाघरिया। अब पुरुष कुर्ता-पायजामा और महिलाएँ साड़ी पहन कर होली खेलते हैं। छरड़ी के दिन रंग खेला जाता है। होलिका दहन में मूँज के झाड़़ू को होलिका की आग में तपाने की परंपरा है, फिर उसे घर पर रखा जाता है। इस दौरान थारू समुदाय के भरारे डांगर राजस्थानी बोली में तमाम मंत्रोच्चार करते हैं और पूरी रात जागरण होता है। उसी दिन से फिर मरी होली शुरू होती है। मरी होली आठ दिन तक चलती है। ठीक आठवें दिन होलिका दहन की रात को पधान के घर में रखे हुए खखणेरा (जिसे नए घड़े को फोड़कर उसकी मिट्टी के टुकड़ों और अनाज आदि मिला कर बनाया जाता है) को लेकर सुबह चार बजे गाँव की दक्षिण दिशा में पधान और सभी गाँव के लोग उसे डंडों से पीटते हैं। कहीं-कहीं, जहाँ घड़े में इसे ले जाया जाता है वहाँ पधान इसे हल से भी फोड़ता है। इस समय गाँव की किसी भी औरत से कोई भी मजाक कर सकता है, कुछ भी कह देता है तो उसका बुरा नहीं माना जाता। खखणेरा विसर्जित करने के बाद सभी लोग वहाँ से भाग जाते हैं और पीछे मुड़कर नहीं देखते। मान्यता है कि ऐसा करने से दुःख, दर्द, रोग इत्यादि सब कष्ट गाँव छोड़कर भाग जाते हैं। थारू त्योहार के अवसरों में आमोद प्रमोद के लिये तैयार होने वाले खानपान पर ये अत्यधिक खर्च करते हैं। थारू जनजातीय समुदाय आज भी भारतीय संस्कृति के स्वाभिमानी प्रतीक-पुरुष महाराणा प्रताप की जयंती को प्रतिवर्ष बड़े ही धूमधाम से मनाता है।
(नोट : इस आलेख के अंश जयसिंह रावत की नवीनतम पुस्तक “बदलते दौर से गुजरती जन जातियां ” ( प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ) से साभार लिए गए हैं. लेखक की जनजातियों पर दूसरी पुस्तक है। बिना लेखक की अनुमति के इस लेख का उपयोग कॉपी राइट का उल्लंघन होगा। पहली पुस्तक ” उत्तराखंड की जन जातियों का इतिहास” विनसर पब्लिशिंग कंपनी देहरादून ने 2016 में प्रकाशित की थी। -एडमिन )