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जरूरत है ‘गुरु’ और शिक्षक में भेद करने की

               ‘गुरु’ होने का भार मेरे कंधे तोड़ देगा
(छात्र के नाम पत्र)

Difference between Guru and Teacher. The teacher teaches for a specific period of time and only through the medium of words. On the other hand, the Guru continues to guide His disciple twenty-four hours of the day both through the medium of words and that beyond them.

-डा. सुशील उपाध्याय

प्रिय भाई दिनेश शर्मा जी,
गुरु-पूर्णिमा पर आपने जो आदरसिक्त टिप्पणी प्रेषित की, उसे लेकर कुछ बातें कहने का मन है। आपकी उदार-दृष्टि के लिए आभारी हूं, लेकिन आपकी भावनाओं को यथारूप स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हूं। आपने मुझे ‘गुरु’ शब्द से अभिसिक्त किया है, लेकिन मुझ में ऐसी पात्रता नहीं है। अभी तो मैं अपने भीतर ‘शिष्यत्व’ के घटित होने की प्रतीक्षा कर रहा हूं और खुद समर्थ ‘गुरु’ की तलाश में हूं। अभी तक ‘निगुरा’, ‘अगुरा’ ही घूम रहा हूं! जब मेरी तलाश पूरी होगी तो मैं आपको भी कुछ कहने, बताने की स्थिति में आ पाऊंगा, ऐसी उम्मीद है। लेकिन, तब भी ‘गुरु’ रूप में नहीं।
आप अवगत हैं कि लोक में चहुंओर भेड़-चाल है। आप उसके शिकार न हों, ये कामना है। ‘गुरु’ और शिक्षक में भेद करने की जरूरत है। ‘गुरु’ के साथ व्यापक संदर्भ जुड़े हुए हैं। इसमें जीवन के सभी संदर्भ समाहित हैं, जबकि शिक्षक के मामले में ऐसा नहीं है। ‘गुरु’ तो दर्शन से लेकर धरातल तक जो कुछ भी मौजूद है, उस सबका जिम्मा उठाता है। उसकी स्थिति तो ईश्वर के बराबर या कई मामलों में उससे भी बड़ी मानी गई है। क्या एक शिक्षक के तौर पर हम जैसे लोगों के भीतर वैसी दीप्ति है? बिल्कुल नहीं है, यदि कोई ‘गुरु’ होने के भ्रम में जीना चाहता है तो चाहे, लेकिन मैं इस भ्रम का शिकार नहीं होना चाहता।
आप मेरे साथ शोधकार्य कर रहे हैं, सच यही है कि कई बार मैं आपसे सीखता हूं और कई बार कुछ नया बताने के क्रम में उलझता जाता हूं। भाव ये है कि हम दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं। फिर कौन ‘गुरु’ और कौन ‘शिष्य’ ? जो ‘गुरु’ है, वो कुछ पाने या हासिल करने की इच्छा से परे हो चुका है, लेकिन शिक्षक के मामले में ऐसा नहीं है। शिक्षक के मूल-चरित्र में अपेक्षाएं अंतर्निहित हैं। ये इच्छाएं दुनियावी हैं, यश की, लाभ की, सम्मान की…………और भी न जाने कितनी इच्छाएं! जो इच्छाओं के अनंत भार से दबा हो, उसमें ‘गुरु’ कहां से और कैसे पाओगे!
आते हुए वक्त के साथ कुछ बंधनों और अबूझ परंपराओं से मुक्त हो जाना चाहिए। जीवन एक वृत्त की तरह होता है। हर किसी को उसी बिंदू पर आकर समाप्त होना होता है, जहां से उसने शुरू किया है। यह एक आकस्मिक संयोग होता है कि कोई आपसे एक पायदान आगे चल रहा है तो आपको रास्ता दिखाता है, लेकिन जीवन के उत्तरार्ध में जब चढ़ने की बजाय उतरने का दौर आरंभ होता है तो जिसे हम पीछे मान रहे थे, वही हमारा हाथ पकड़ता है, साथ चलता है और गिरने से बचाता है। ऐसे में कौन किसका ‘गुरु’ होगा! निगुरा होने के अपने आनंद हैं, अपनी चुनौतियां हैं! जिसे निगुरा रहने, होने की आदत पड़ जाए, वह जो भी या कुछ भी तलाशेगा, अपने भीतर ही तलाशेगा। आप भी ऐसी ही कोशिश करके देखिए।
हमारे चारों तरफ ‘गुरुडम’ फैला हुआ है और खतरनाक ढंग से विस्तार पा रहा है। यह ‘गुरुडम’ केवल झुकना सिखाता है। तनकर खड़े होना नहीं सिखाता। मैं, तनकर खड़े होने के हक में हूं। मैं किसी को अपने पैरों के पास झुकते हुए नहीं देखना चाहता, इसके सख्त खिलाफ हूं। किसी के भी पास किसी की मुक्ति का मंत्र नहीं है, कोई व्यक्ति दूसरे को ‘ज्ञानसिद्ध’ नहीं कर सकता। खुद को ही जलाना होता है, तभी कुछ प्राप्ति होगी। आप योग्य, अनुभवी और मुमुक्षु व्यक्ति हैं, आप सफल होंगे ही। अपनी सफलता को जरूर बांटिये, लेकिन किसी एक व्यक्ति को इसका श्रेय ठग लेने का हक मत दीजिए। चाहे वह तथाकथित गुरु ही क्यों न हो!
मुझे हमेशा ही ‘गुरु’ जैसी पदवी से डर लगता है। दुनिया में चारों तरफ गुरुओं का मायाजाल फैला हुआ है। हर कोई ज्ञान बघार रहा है। सारे चमत्कार जबान तक ही सीमित हो गए दिखते हैं, जो जितना वाचाल है, शब्दों का जादूगर है, मायावी है, वह उतना ही बड़ा ‘गुरु’ होने का दम भर रहा है। और यदि सच में मेरे भीतर कोई गुरुता होती तो उसका भान मुझे भी होना चाहिए, लेकिन मुझे ऐसा कोई भान नहीं है यानि कोई गुरुता मौजूद नहीं है। यह जरूर है कि अक्षर-ज्ञान कराने और अक्षरों के बहुविध प्रयोग, उपयोग के बारे में ट्रेंड करने का काम मेरे जिम्मे है।
मनुष्यों के भीतर विचारों की टकराहट होती है, मेरा काम कुछ हद तक अपने छात्रों को इस टकराहट (द्वंद्व) को संभालना सीखना भी है। मैं इस काम को पूरी निष्ठा से करना चाहता हूं। इस प्रक्रिया में एक बेहतर शिक्षक बन सकूं, अपने छात्र-छात्राओं के साथ मित्रवत व्यवहार कर सकूं और वक्त जरूरत उनके साथ खड़ा हो सकूं, उन्हें भी इसी राह के बारे में बता या समझा सकूं, यही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। ‘गुरु’ होने का भार मेरे कंधे तोड़ देगा और ऐसा आप भी नहीं चाहेंगे।

(डॉ. दिनेश शर्मा, 10 साल पहले 2013 में मेरे शोधार्थी थे। वे पूर्व नौसैनिक रहे हैं। अब CAG में कार्यरत हैं।)

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