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गावों के भारत की गरीबी दूर कर सकते हैं हमारे वन

 

-चण्डी प्रसाद भट्ट

वनों को आजकल पर्यावरण के एक मुख्य घटक के रूप में देखा जा रहा है और नागर समाज में यह एक फैशन के रूप में चल पडा है लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले वनवासी लोग वनों को अपने अस्तित्व के साथ जोड कर देखते है। वे इस तथ्य को भलीभांति समझते हैं कि वन रहेंगे तो उनका अस्तित्व भी बना रहेगा और वन नहीं रहेंगेे तो वे भी नहीं रह पायेंगे।

हमारे पास करोड़ हैक्टेयर भूमि वीरान पड़ी है और जंगलों  के अन्तर्गत 287769 वर्ग किमी भूमि में छितरे वन हैं। इसमें से आदिवासी जिलों में  ही 160440 वर्ग किमी0 क्षेत्र खुले वन के अन्तर्गत आता है। दूसरी और वनस्पति उपज के उत्पादन की इतनी ज्यादा जरूरत है कि देश   की मानव शक्ति को भूमि की शक्ति की ओर मोड़ कर पर्यावरण सम्वर्द्धन, गरीबी और बेरोजगारी तीनों को एक साथ किया जा समता है। क्योंकि जितना ज्यादा वनोपज का उत्पादन होगा,उतने ही की खपत हो जाएगी और इससे गरीबों को प्रत्यक्ष रोजगार व आय प्राप्त होगी इससे भूक्षरण, भूस्खलन नदियों द्वारा धारा-परिवर्तन, बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की समस्यायें भी कम होंगी।

भूमि उपयोग सर्वाधिक आय का लाभकारी साधन    

देश के 3287263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में वनो का क्षेत्रफल 678333 वर्ग किलोमीटर है जो कुल भौगौलिक क्षेत्रफल का 20.64 प्रतिशत है। इसी प्रकार देश के आदिवासी एवं जनजातीय जिलों में, जिसके अन्तर्गत कुछ हिमालयी राज्य भी शामिल हैं, कुल 26 राज्यों के 187 जिलों के 1103463 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के अन्तर्गत 407208 वर्ग कि.मी वन क्षेत्र हैं जो कुल भौगौलिक क्षेत्रफल का 37 प्रतिशत क्षेत्र बैठता है लेकिन इस वन क्षेत्र के अन्तर्गत 160440 क्षेत्र खुले-छितरे वन हैं जिनको वर्षो तक आराम की आवष्यकता है जिससे उनकी हरियाली पुनर्स्थापित हो।

गरीबी के सन्दर्भ में यह बिन्दु उल्लेखनीय है कि देश के लगभग 75 प्रतिशत अत्यन्त निर्धन कोटि के व्यक्ति झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश , आन्द्रप्रदेश तथा महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल क्षेत्र में रहते हैं। यह क्षेत्र वन वाहुल्य भी हैं, साथ ही यहां के लोग वनों पर अधिक आश्रित हैं। जबकि सभी सामाजिक आर्थिक विष्लेषणों से यह सिद्ध हो चुका है कि वानिकी के रूप में किया गया भूमि उपयोग सर्वाधिक आय का लाभकारी साधन नेट प्रेजेन्ट वैल्यू तथा उस पर जमा धन की ज्यादा तेजी से वापस ( इन्टरनल रेट ऑफ रिर्टन) कर देता है। इसलिए इन वन बहुल क्षेत्रों में व्याप्त गहरी निधर्नता की बात परस्पर विरोधाभासी लगती है।

चाय बागानों के कारण वन भूमि का विनाश 

यदि हम वन भूमि के विनाश  के इतिहास को देखें तो देश  के चाय बागानों के कारण वन भूमि का बडे़ पैमाने पर उपयोग किया गया। मुख्य रूप से हमारे देश  में उत्तर-पूर्वी भाग के जंगलों पर सबसे पहला और मुख्य विनाश  चाय-बागानों के कारण हुआ। यह सिलसिला बड़े-बडे़ उद्योग एवं बडे़-बडे़ बांधों के कारण और बढ़ा। इससे वन भूमि एवं वानस्पतिक उपज (बायो मास) दोनों का विनाश  हुआ। कागज, खनन, प्लाईवुड, पैकिंग आदि उद्योगों का बहुत बड़ा दबाव देश  के जंगलों की जमीन पर पडता है। भूतकाल में कागज उद्योग ने देश के जंगलों को निर्ममता के साथ उजाड़ा।  इस प्रकार देश के प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी का मुख्य कारण अमीर हैं। भले ही वह व्यक्ति हो या समूह। अपनी भूख मिटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का, मुख्य रूप से वानस्पतिक उपज का उपयोग जितना ज्यादा करते जायेंगे, उतना ही ज्यादा प्रदूषण, सूखा व आपदाओं का अधिकाधिक दुष्प्रभाव पड़ता जाता है तथा वनों पर आश्रित ग्राम-समुदायों के जीवन-यापन के आधार सिमटते चले जाते हैं।

लोग और वनस्पति उपज 

जंगलों एवं वानस्पतिक उपज के विनाश का सबसे ज्यादा असर पडता है वनो पर अवलम्बित लोगों पर। इससे कई क्षेत्रों में तो वह इस प्रक्रिया के चलते बदहाली और कंगाली की स्थिति में पहुंच गये हैं। गांवों में काम  करने वाले मित्रों एवं संस्थाओं तथा मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि हमारे देष में गरीबी दूर करना इसलिए कठिन है कि हम अपने  जंगलों एवं वनस्पतियों का ठीक से प्रबन्ध नहीं कर पा रहे हैं। अपने जंगल और वनस्पतियों के सन्तुलन के गड़बड़ाने से यह गरीबी और सघन होती नजर आती है। कारण साफ है लेकिन हमारे नीति नियन्ता स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। अन्न, चारा, घास, जलावन, घास, फूस, पत्ते, छिलके, मकान और पषुषाला के लिए लकड़ी बल्लियां आदि, वनौषधि, जड़ी बूटियां, कन्द-मूल, रेशा, फल, सूखे मेवे,साग-सब्जी,सभी वानस्पतिक उपज ही हैं, जो बड़े-बड़े कारखानों की भूख मिटाने में उपयोग होती है और उस पर जीविका चलाने वाले समुदायों के पेट भूखे रह जाते हैं।

वनों पर लोगों की खाद्य सुरक्षा भी निर्भर है

वन टिकाऊ कृषि उत्पादन के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करते हैं। कृषि क्षेत्रों से जुड़े वनों से नमी एवं पोषक तत्व खेतों को मिलते है। इसलिए बसाहतें वहीं बसीं जहां न केवल जीवन-यापन की आधारभूत सुविधाऐं जल, जंगल, जमीन की तात्कालिक सुविधाऐं थीं, बल्कि उनके संरक्षण व विकास की व्यापक सम्भावनाऐं मौजूद थीं। इस प्रकार की बसाहतों के बहुमुखी लाभ थे। जंगल न केवल ईंधन,चारे,जंगली फल-सब्जियां, इमारती व कृषि यंत्रों को लकड़ी उपलब्ध कराते हैं बल्कि मृदा व जल संरक्षण का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और उनकी पत्तियों-टहनियों की खाद खेतों को प्राप्त होती हैं, जो उनकी जैविक उर्वरता बनाये रखने में मददगार सिद्ध होती हैं। उत्तराखण्ड, हिमाचल आदि राज्यों के कई गावों में जंगल खेतों से इस प्रकार जुड़े हुए देखे जा सकते हैं। वनों की निगरानी बहुत सावधानी से की जाती है। क्योंकि लोगों को मालूम है कि इससे खेतों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी।

गावों में लकड़ी ईंधन का एक मुख्य स्रोत

भारत के देहातों में जलावन एवं ऊर्जा की जो स्थिति है उस पर एक निगाह डालें तो पता चलेगा कि घरेलू उपयोग के लिए वनस्पति पर अत्यधिक निर्भरता है। भारत के शहरों एवं गावों में लकड़ी ईंधन का एक मुख्य स्रोत है। भारत में इसकी वार्षिक खपत 22-30 करोड़ टन आंकी गई है और यह मात्रा बढ़ती जा रही है। भारत में ईंधन काष्ठ का योगदान 20-30 प्रतिशत का है और 90 प्रतिशत से भी ज्यादा यह घरेलू क्षेत्रों में है। (वन आयोग 2006)।

भारतीय जनसंख्या की काष्ठ ऊर्जा पर अधिक निर्भरता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह सस्ता ईंधन, जिसे सामाजिक स्वीकार्यता है, उत्तराखण्ड में तो गिरे-पड़े पेड़ों का दोहन तो जारी है लेकिन वन निगम के माध्यम से इस लकड़ी को दूरस्थ मंडियों में भेज दिया जाता है। इससे वनों के समीपस्थ छोटे-बड़े नगरों में जलावन का संकट बना रहता है। जो जलावन उपलब्ध होता भी है, वह मिट्टी तेल, रसोई गैस से कई गुना महँगा बैठता है। चूल्हों की बनावट भी इस प्रकार की है कि पूरी आग का उपयोग नहीं हो पाता है।

लकड़ी से कृषि यन्त्र भी बनते हैं

वानस्पतिक उपज से केवल घर-घर की विविध आवश्यकताओं की ही पूर्ति नहीं होती, बल्कि कृषि यन्त्र जैसे हल, जुआ, लाठ, दन्याला आदि भी लकड़ी से बनते हैं। साथ ही कई परम्परागत उद्योग-धन्धों के लिए आवश्यक कच्चा माल भी इससे मिलता है। रिंगाल और बांस टोकरी और कण्डे आदि बनाने के काम आता है। इन कार्यों से शिल्पकारों की बहुत बड़े पैमाने पर आजीविका चलती थी। बैलगाड़ी और नाव, पालकी लकड़ी से ही बनते हैं। कुछ वस्तुएं तो ऐसी हैं जो आधुनिक उत्पादों के कारण इन परम्परागत उद्योग-धन्धों के लिए खतरा बनी है लेकिन यह खतरा वानस्पतिक उपज के कच्चे माल के अभाव के कारण अधिक घनीभूत हुआ है। परम्परागत लकड़ी से बनने वाले कृषि एवं अन्य घरेलू उपकरण लोग अब खरीद नहीं सकते क्योंकि लकड़ी बहुत महँगी हो गई है।

बांस या रिंगाल मिलता नहीं, आजीविका और अस्तित्व का संकट

देश में रिंगाल, बांस आदि से आजीविका चलाने वाले जो हजारों कारीगर जुड़े हैं, उन्हें बांस या रिंगाल मिलता नहीं या बहुत महँगा मिलता है जिससे उनके सामने आजीविका और अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। इसी प्रकार बान बटाई का धंधा करने वालों के सामने आज मुसीबत खड़ी हो गई है बाबड़ घास पहले उन्हें बहुतायत में मिलती थी, अब उसका भी अभाव हो गया है। इसी तरह गांव-गांव में दैनिक उपयोग के लिए लकड़ी के उपकरण एवं मकानों के लिए दरवाजे-खिड़की बनाने वाले बढ़इयों के भी स्थानीय आधार पर लकड़ी उपलब्ध न होने से वह बेरोजगार होते जा रहे हैं और इस कर्म से विरत होते जा रहें हैं।

उत्तर-पूर्वी भारत में तो बांस का उपयोग बर्तन बनाने से लेकर मकान बनाने तक व खेत की चार दिवारी के काम में भी उपयोग किया जाता है। वहीं उत्तराखण्ड से लेकर ठेठ आदिवासी क्षेत्रों में लकड़ी का उपयोग मकान के अलावा दैनिक उपयोग के लिए भी किया जाता है। घास-फूस जैसा सहज और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने वाली प्राकृतिक सामग्री भी महँगी हो गयी है। लोग अपनी झोपड़ी और गौषाला की मरम्मत तक लकड़ी और बल्ली के अभाव में नहीं कर पा रहे हैं। उत्तराखण्ड के कई इलाकों जो, घने जंगलों के इलाके माने जाते हैं, में अब मकानों पर अधिकाधिक लोहे और सीमेंन्ट का उपयोग हो रहा है। गरीब लोगों का मकान बनाना दूभर हो गया है। कई क्षेत्रों में चारा और चारागाह की स्थिति भी बदतर हो गई है। करैंजा, आंवला, हैडा, बहेड़ा, काफल, कबासी, हिंसोल जैसे फलों के अलावा कई प्रकार के कन्द और मूल के साथ ही सब्जियां भी जंगलों से प्राप्त होती हैं। जंगली आम, कटहल और इमली जैसी खाद्य जो लोगों के जीवन निर्वाह के बहुत बड़े आधार रहे हैं, अब तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं।

वन और महिलाएं

वनों के उजड़ने के कारण पहाड़ी और जनजातीय समुदायों की संस्कृति और आर्थिकी पर तो आघात पहँचता ही है, क्योंकि वे पूरी तरह से वनोपज पर निर्भर हैं लेकिन सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ता है। खासकर वे महिलायें जो गरीब हैं। इन क्षेत्रों में गृहस्थी के संचालन में मुख्य धुरी महिलाएं ही हैं।

भारतीय परिवारों में परम्परा से कार्य-विभाजन का प्रचलन चला है इसर्में इंधन, चारा, पानी लाने के कार्य महिलाओं के जिम्मे हैं। जंगल नष्ट होता है, तो महिलाओं को जलावन, चारा और पानी जैसी दैनिक आवष्यकताओं को पूरा करने के लिये पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। बच्चों की देखभाल, खेतों में काम,पषुओं की देखभाल तो उनके जिम्मे है ही, पहाड़ी व आदिवासी इलाकों में तो 14 से 18 घण्टे तक महिलाएं काम में जुटी रहती हैं तब वह चाहे किसी भी उम्र की क्यों न हों। सुबह से शाम  तक उनका कार्य-चक्र एक सा रहता हैं।

चिपको आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका अग्रणी

यह भी एक कारण है कि चिपको आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका अग्रणी रही। चमोली जिले के फूलों की घाटी के निचले भाग में स्थित भ्यूण्डार गांव की महिलाओं को अपने मिश्रित वन को बचाने के लिये 1977 में चिपको आन्दोलन चलाना पड़ा जबकि पेड़ काटने वाले मजदूर और ठेकेदार उनके मायके की तरफ के लोग ही थे। इसी प्रकार 1980 में चमोली जिले के ही डुंग्री-पैंतोली के बांज के जंगल को बचाने के लिये महिलाओं को आन्दोलन करना पड़ा और उन्होंने जिला प्रशासन से सीधा सवाल किया कि जब जंगल का सारा कारोबार उन्हें करना पड़ता है, तो जंगल का सौदा करते हुये उन्हें क्यों नही पूछा जाता ? महिलाओं के जंगलों के साथ जो अन्तर्सम्बन्ध हैं, उन्हें चिपको आन्दोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल ने समझने का प्रयास किया। संस्था की पहल पर ही तीन दषक पूर्व पेड़ बचाने के साथ ही नंगे-वीरान इलाकों में पेड़ लगाने का काम लोक कार्यक्रम के रूप में शुरू हुआ जो आज भी निरन्तर जारी है।

गावों के अपने कास्तकारी के जंगल थे

पहले गावों के अपने कास्तकारी के जंगल थे जिनकी देख-रेख और उपयोग वह आपसी समझदारी से करते थे। बाद में व्यवस्था के जंगलों पर हस्तक्षेप के कारण कई जगह यह परम्परा छिन्न-भिन्न हुई। सरकारों द्वारा लोगों को उनके जंगलों से काट देने का सिलसिला षुरू हुआ। इससे कई क्षेत्रों में लोगों मे असंतोष बढ़ा और आन्दोलन भी हुये। पिछली सदी के आरम्भ में वनों पर सरकारी हस्तक्षेप के खिलाफ बाध्य होकर सरकार को 1921 में कुमाऊँ फौरेस्ट ग्रीवान्सेज कमेटी का गठन करना पड़ा और उसकी सिफारिश पर 1927 के भारतीय वन अधिनियम में ग्राम वन की व्यवस्था करने को बाध्य होना पड़ा। इस अधिनियम की धारा 28 के प्राविधानों के अनुसार 1931 में वन पंचायत नियामवली बनाई गई और इसके आधार पर ग्राम वनों की स्थापना व संचालन किया गया। उत्तराखण्ड के लोग वर्षों तक आन्दोलनरत रहे। उत्तराखण्ड में  अस्तित्वमान यह ग्राम वन, देष मंे लोक प्रबंधित वन व्यवस्था का अनुपम उदाहरण हैं जिन्हें लोग वन पंचायत बना कर संचालित करते हैं। इसलिए इन ग्राम वनों को वन पंचायत के नाम से ही जाना जाता है।

1931 के उत्तराखण्ड के कुमाऊं वन पंचायत अधिनियम (1976-2001 में संषाधित) के अनुसार किसी भी गांव की सीमा में आने वाली सार्वजनिक भूमि को वन पंचायत में बदला जा सकता है, यदि उस क्षेत्र विषेश के एक तिहाई निवासी डिप्टी कमिष्नर के समक्ष आवेदन करें। एक वार गठित हो जाने पर वन पंचायत के 5 से 9 सदस्यीय समिति का गठन करना होता है जो उस वन का प्रबन्धन करती है। आज उत्तराखण्ड में इस प्रकार 11 हजार से अधिक वन पंचायतें हैं।

वन पंचायतों के अधीन वन संरक्षित स्थिति में

कई अध्ययनों से पता चला है कि वन पंचायतों के अधीन वन वास्तव में संरक्षित वनों जैसे ही या उनसे भी बेहतर स्थिति में है। बाँज एवं मिश्रित वनों को विशेषतः अच्छी स्थिति में देखा गया है। फिर भी वन पंचायतों की कार्य प्रणाली में अभी और अधिक सुधार की आवष्यकता अनुभव की जाती है।

इसलिए मेरी यह स्पष्ट समझ हुई है कि इसमें लिए उचित स्तर पर ग्राम समुदायों को वनों के प्रबन्ध एवं उपयोग की पूर्ण स्वायता देनी होगी। भारत के लगभग 1.73 लाख ग्रामों में अभिलिखित वन भूमि उपलब्ध है तथा इन ग्रामों में से कई ग्रामों में ग्राम वन हैं, उनका प्रबन्धन परम्परागत पद्वति से या वन पंचायतें भी कर रही हैं।ऐसे 1.73 लाख गांवों में उपलब्ध कम से कम 50 हेक्टेयर वन का भी उचित तरीके से प्रबंध किया जा सके, तो 30 वर्षो के समय चक्र पर प्रतिवर्ष प्रति ग्राम 10 लाख रूपये हिस्काउण्टेड आय हो सकेगी। इस प्रकार सकल प्राकृतिक उत्पादन बढ़ेगा तो इससे हमारे देश की सकल विकास दर (ग्रामीण) सहज रूप से 10 प्रतिषत वार्षिक पहुंच सकती है।

अब समय आ गया है कि आगे इस स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर ऐसी व्यावहारिक कार्य-नीति बनाई जाय जो जंगलों के सरंक्षणात्मक उपयोग के द्वारा वनो के समीप रहने वाले लोगों की जीविका का सतत आधार बने। इसके लिये परम्परागत जीवन- शेली, मूल्यों और मान्यताओं के साथ आधुनिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी को इस प्रकार संयोजित किये जाने की आवष्यकता होगी जो सरल, सस्ती और लोक ग्राह्य हो।

ग्राम वन गावों की आर्थिकी सुधार सकते हैं 

हमारे यहां पहले यह बात मन में बैठी थी कि बडे-बडे़ सूखा और अकाल में भी यहां के जंगलों में इतनी क्षमता है कि वहां से प्राप्त वनोपज से लोग छः माह तक भरण-पोपण कर सकते हैं। जंगलों के बीच में या उसके आस-पास के अधिकांश  गावों में हम पहले देखते थे कि वहां पेड़-पौधे, घास-चारा, पशु, पानी का प्रबन्ध आदि सब मौजूद है, यह एक

ग्राम वन बनाने और उसे विकसित करने के लिए आधारभूत सुविधायें उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व हो। उनके संचालन के लिए वन पंचायत हो और वन विद् स्तर का कार्यकर्ता वन पंचायत का सचिव हो। इनके निरीक्षण का दायित्व राजि अधिकारी या खण्ड विकास अधिकारी का हो। एक सचिव को इतनी ही वन पंचायतों की जिम्मेदारी सौंपी जाय जिससे वह अपने दायित्वों का निर्वहन सही व समयबद्ध ढंग से पूरा कर सके। वन पंचायत को ग्राम वन के विकास, विस्तार, उपयोग, लाभ, वितरण आदि की योजनायें बनाने तथा उन्हें क्रियान्वित करने के समुचित अधिकार हों। सरकारी तंत्र केवल तकनीकी, मार्गदर्शन , संसाधन उपलब्ध कराने व उनकी क्षमता विकास करने तक सीमित रहे। ग्राम वन से ग्राम सुमदाय अपनी जीविका हेतु आवश्यक वनोपज तैयार करेगा और उनका समतापूर्ण वितरण एवं सदुपयोग करेगा।  ग्राम वन के विकास एवं उपयोग का सर्वाधिकार वन पंचायत को हो जो उस ग्राम के सभी वयस्क ग्रामवासियों से मिल कर गठित हो। जिसमें ग्राम की वयस्क जनसंख्या का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो। उसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछडे़ वर्गों को उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। (लेखक विश्व के चोटी के पर्यावरणविदों में से एक हैं और कई राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत हैं।)

सर्वोदय केन्द्र

मन्दिर मार्ग, गोपेश्वर

उत्तराखण्ड

 

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