उत्तराखण्ड में पंचायतीराज को और खोखला करने के लिये हुआ जारी फरमान
देहरादून, 20 जनवरी। उत्तराखण्ड के लगभग 800 ग्राम पंचायत अधिकारियों के बेमियादी हड़ताल पर चले जाने से प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में चलने वाली प्रचायती राज व्यवस्था चरमरा गयी है। इसके साथ ही सरकार की पेंशन जैसी लोक कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित हो गयी हैं। ये ग्राम पंचायत अधिकारी सबसे निचले स्तर पर ग्राम विकास विभाग के साथ पंचायती राज के कार्यात्मक एकीकरण से भड़के हुये हैं।
अतिरिक्त मुख्य सचिव आनन्द वर्धन द्वारा गत 16 जनवरी को ग्राम विकास विभाग और पंचायती राज विभाग के ग्रामीण स्तर के स्टाफ का कार्यात्मक एकीकरण के लिये जारी शासनादेश से भड़के ग्राम विकास अधिकारी गत 17 जनवरी से कार्य वहिष्कार पर चल रहे हैं। जिस कारण प्रदेश के सभी 13 जिलों के लगभग 16 हजार गावों में कॉमन सर्विस सेंटर, परिवार रजिस्टर, जन्म और मृत्यु प्रमणपत्र, शादी निरस्तीकरण सहित समाज कल्याण की विभिन्न पेंशन योजनाओं का काम रुक गया है। चूंकि ये ग्राम पंचायत अधिकारी ग्राम पंचायत के सचिव और प्रधान अध्यक्ष होते हैं, इसलिये एक तरह से तृणमूल स्तर पर पंचायतीराज व्यवस्था चरमरा गयी है।
विदित है कि पंचायतराज एक संवैधानिक संस्था है जबकि ग्राम्य विकास एक व्यवस्था है, ग्राम्य विकास का अस्तित्व केवल योजनाओं पर निर्भर है वर्तमान में ग्राम्य विकास विभाग के पास मनरेगा, आवास एवं NRLM कार्यक्रम ही संचालित हो रहे हैं, इन योजनाओं के पूर्ण हो जाने के बाद विभाग के अस्तित्व पर ही संकट छाने की सम्भावनाएं हैं जैसा कि हिमाचल प्रदेश में देखा गया है जहाँ ग्राम्य विकास को मृत संवर्ग घोषित कर सम्पूर्ण व्यवस्था को पंचायतराज व्यवस्था के अधीन कर पंचयतों को सशक्त बनाने का कार्य किया गया, यही व्यवस्था केरल में भी देखने को मिलती है।
ग्राम पंचायत अधिकारी संगठन का आरोप है कि बिना पंचायती राज विभाग की राय लिये शासन स्तर पर यह फरमान जारी कर दिया है जो कि पंचायतीराज की भावना के बिल्कुल विपरीत है।उत्तराखंड मैं एकीकरण के नाम पर पंचायतो का अपरोक्ष नियंत्रण ग्राम्य विकास विभाग के खंड विकास अधिकारी को सौंप दिया गया है। देश में पंचायतराज व्यवस्था 73वें संविधान संशोधन के अनुसार लागू है पंचायतें संवैधानिक संस्था के रूप में विभिन्न स्तरों पर कार्य करती हैं , उत्तराखण्ड में भी वर्तमान में त्रिस्तरीय पंचायतें काम कर रही हैं यथा जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत एवं ग्राम पंचायत , तीनो ही संवैधानिक सस्थाएं अपने आप में स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हैं , जिला पंचायत एवं ग्राम ग्राम पंचायतों पर क्रमशः पंचायतराज विभाग के अपर मुख्य अधिकारी एवं ग्राम पंचायत विकास अधिकारी सचिव के रूप मैं कार्य करते हैं जबकि क्षेत्र पंचायत स्तर पर किसी दूसरे यानी ग्राम्य विकास के खंड विकास अधिकारी को सचिव का दायित्व सौंपा गया है जो कि तर्कसंगत नहीं है!
एक तरफ संविधान का 73वां अनुच्छेद ग्रामीण स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने और सत्ता के विकेन्द्रकरण की वकालत करता है दूसरी तरह उत्तराखण्ड की नौकरशाही पंचायती राज को ही कमजोर करने पर तुली हुयी है। संगठन का मानना है कि अगर सरकार को एकीकरण ही करना है तो ग्राम विकास विभाग को पंचायतीराज में विलय कर दे। ग्राम विकास एक विभाग है जबकि पंचायतीराज एक संवैधानिक संस्था है। उसे संविधान ने 29 विभागों की जिम्मेदारियां सौंपी हुयी हैं। नौकरशाही संविधान प्रदत्त विभाग तो पंचायतीराज को सोंप नहीं रही ऊपर से जो काम दिये भी गये हैं उनमें अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही है। संगठन का आरोप है कि इतना बड़ा नीतिगत निर्णय लेते समय पंचायतीराज मंत्री श्री सतपाल महाराज की सहमति तक नहीं ली गयी। जो कि अपने आप में लोकशाही पर अफसरशाही की निरंकुशता ही है।
तर्कसंगत तो यह होता कि खंड स्तर पर भी पंचायत राज विभाग के ही अधिकारी को सचिव का दायित्व सौंपा जाता जिससे कि पूरी व्यवस्था पर निगरानी एवं योजनाओं का संचालन रेखीय पंक्क्ति में होता, सरकार द्वारा यह सब न कर कार्यात्मक एकीकरण के नाम पर निचले स्तर पर ग्राम पंचायतों के अधिकार सीमित करने का प्रयास किया गया है।