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गुणानंद पथिक जिनके गीतों ने टिहरी की जानक्रांति को हवा दी और शोषित शासितों को आवाज दी

–अनंत आकाश

कामरेड गुणानंद पथिक जिन्होंने गले में हारमोनियम टाँगकर गाँव-गाँव जाकर तत्कालीन टिहरी राजशाही के दमन एवं उत्पीड़न के खिलाफ जनजागरण अभियान चलाया तथा जनता को सांमती शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी ।

उन दिनों टिहरी नरेश द्वारा रियासत में रामलीला के मंचन पर रोक लगा दी थी, जिसके विरोध में पथिक जी ने गढ़वाली में लीला रामायण की रचनाकर तथा गाँव-गाँव जाकर रामलिलाऐं करवाई । क्रुद्ध होकर राजा ने पथिक जी को देश निकाले की सजा दी तथा उनके घर की कुड़की तक करवायी ।

टिहरी रियासत के अठूर गांव के नारायण दत्त डंगवाल के परिवार में 1913 में उनका जन्म हुआ ।परिवार की आर्थिक हालात ठीक न होने के कारण वे कक्षा तीन तक ही पढ़ पाये ,आगे का ज्ञान उन्होंने स्वध्याय से ही अर्जित किया ।बहुत कम उम्र यानि 14 बर्ष के ही थे ,वे आजीविका के लिये हरिद्वार तथा लाहौर चले गये थे ,उन दिनों लाहौर शिक्षा एवं रोजगार का प्रमुख केन्द्रों में से एक था ।बर्ष 1931 में शहीदे आजम भगतसिंह ,राजगुरु ,सुखदेव को फांसी हुई तथा इसके खिलाफ विरोध रैली में भाग लेने के कारण अंग्रेजी हुकमरानोंं ने 1931 में उन्हें तीन महीने की कैद की सजा सुनाई तथा लाहौर सेन्ट्रल जेल मे बन्द रखा ,जेल ही में रहकर उन्होंने बहुत कम उम्र में बाल विवाह पर “नौनी का आंसू ” लिख डाली जो कि तत्कालीन गढ़वाली समाज की कुरीतियों पर आधारित था ।उन्होंने बचपन में राजनैतिक ,सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठानी शुरू तथा अंग्रेजी शासकों का जमकर बिरोध किया ।

वे समाज में कुरीतियों एवं मदिरापान के खिलाफ बोलते भी रहे, समाज को जागरूक भी करते रहे और लिखते भी रहे । इस कारण आपके गांवों वालों तक ने आपका सामाजिक बहिष्कार कर डाला ।उन्होंने टिहरी क्रान्ति के लिये श्रीदेव सुमन के साथ मिलकर टिहरी गढ़वाल प्रजा मण्डल की स्थापना की ।1936 – 037 में “गांधीजी का प्यारा हरिजन ” नाम से काव्य की रचना की ,उन्होंने 1947 में टिहरी राजशाही के खिलाफ सकलाना – कड़ाकोट आन्दोलन में सक्रिय भागेदारी की तथा इस आन्दोलन पर दमन के लिऐ जिम्मेदार परगनाधिकारी मार्कण्डेय थपलियाल के खिलाफ अनेक गीत लिख डाले जिन्होंने आन्दोलकारियों को प्रेरित किया । आपने अनेक रचनात्मक पुस्तिकाओं का लेखन कर जनता के मध्य निशुल्क बंटवाये ताकि वे अपनी सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना का विकास कर सकें तथा वे अपने असली दुश्मन को पहचान सकें ।

उनके जीवन की सर्वाधिक प्रेणा रही कि उन्होंने आन्दोलन की साथी जो हरिजन परिवार की थी को ही अपना जीवनसाथी चुना ,जिन्होंने मरते दम तक उनका साथ दिया ,उनके भारी से भारी कष्टों में उफ तक नहीं किया । 1973 में वे सपरिवार टिहरी से देहरादून आ बसे तथा 1977 में ही उन्होंने गढ़ साहित्य एवं संस्कृति परिषद की स्थापना की ,गढ़वाली रामायण लिखी ,उसका मन्चन करवाया, श्रीदेव सुमन ,नागेंद्र ,हम गढ़वाली ,जीतू बग्ड्वाल पर नाटक लिखे ।

1986 में उन्होंने कामरेड सुरेन्द्र सिंह सजवाण के साथ मिलकर टिहरी बांध बिस्थापितों की समस्या पर भानियावाला में अनेक आन्दोलन एवं बैठकें आयोजित कर किसान सभा का गठन किया तथा प्रभावितों की समस्याएं हल की । इससे पहले वे सीपीएम जुड़ चुके थे ।अक्सर हमारे साथी उनके घर नेहरू कालोनी स्थित आवास में आ जाया करते थे ,जो आवास विकास परिषद के एलाईजी श्रेणी की लाईन में था । पार्टी उनकी मदद करती रहती थी,आजीवन वे समाज के लिये जुझते रहे ।

अपने जीवन के आखिरी दिन पथिक जी ने बहुत कठिनाइयों एवं अभावों में बिताए । मैनें भी देहरादून में रियासती क्रान्ति के इस महान योद्धा का अभावग्रस्त जीवन बहुत क़रीब से देखा ।
हमें इन महापुरुषों को कभी भूलना नहीं चाहिए । क्योंकि इन्हीं के बदौलत हम सबका अस्तित्व है । कुछ साल पहले खान साहब हम सबके छोटे प्रयासों से रेसकोर्स आफिसर कालोनी चौराहे पर एक छोटी सी बाटिका उनके नाम पर समर्पित की गई। जबकि आज जरूरत है। उनके नाम पर कोई सार्वजनिक स्थान घोषित करने की, जहाँ उनका साहित्य एवं उनकी जीवन से जुड़ा इतिहास मौजूद हो।

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