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टिहरी जन क्रांति के महानायक श्रीदेव सुमन को अमरत्व प्रदान किया शहादत ने

 

–शोध एवं आलेख -जयसिंह रावत

टिहरी जनक्रांति का यह ज्योति पुंज 209 दिन तक टिहरी जेल में रहा। जेल में हि 21 फरबरी, 1944 को स्पेशल मैजिस्ट्रेट मामराज सिंह ने देशद्रोह की धारा 124 (अ) के तहत सुमन के मामले की सुनवाई शुरू की मजिस्ट्रेट ने सुमन को दोषी करार देकर उन्हें दो वर्ष के कठोर कारावास और 200 रुपये अर्थदण्ड की सजा सुनाई। सुमन महाराजा के विरुद्ध नहीं बल्कि उनके कारिन्दों की ज्यादतियों के खिलाफ थे और राजा के अधीन ही उत्तरदायी शासन चाहते थे। श्रीदेव सुमन ने फरवरी, 1944 में अपने मुकदमें की पैरवी स्वयं करते हुये कहा था कि, “मेरे विरुद्ध पेश किये गये साक्षी सर्वथा बनावटी हैं। वे या तो सरकारी कर्मचारी है या पुलिस के आदमी हैं। टिहरी राज्य में मेरा तथा ‘प्रजामण्डल’ का ध्येय वैध एवं शांतिपूर्ण ढंग से श्री महाराज की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन प्राप्त करना है। श्री महाराज के प्रति मैं पूर्ण सद्भावना, श्रद्धा एवं भक्ति के भाव रखता हूँ। टिहरी महाराज तथा उनके शासन के विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह, द्वेष एवं घृणा का प्रचार मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध है। ” ( भक्तदर्शन सुमन स्मृतिग्रन्थ 127) उन्होंने 3 मई 1944 को अपना ऐतिहासिक अनशन शुरू किया और 25 जुलाई, 1944 को शाम 4 बजे उनका प्राणांत हो गया। शिव प्रसाद डबराल के (उत्तराखंड का इतिहास भाग -6 पृष्ठ-350 के) अनुसार 25 जुलाई 1944 को सुमन का बलिदान हुआ। 26 जुलाई को राज्य के पब्लिसिटी अफसर ने यह प्रेस विज्ञप्ति निकाली – “श्रीदेव सुमन ने, जिसे धारा 124-अ के अधीन दिये गये दंड में टिहरी कारागार में रखा गया था, 3 मई से 11 जुलाई तक भूख हड़ताल रखी। भूख हड़ताल के दिनों में उसे नली द्वारा भोजन दिया जाता था। 17 जुलाई को उसने भूख हड़ताल तोड़ दी। कुछ दिन बाद उसे निमोनिया हो गया।

कारागार के चिकित्सालय में उपचार करने पर भी 25 जुलाई शाम साढ़े चार बजे उसकी मृत्यु हो गयी।” बाद में हुयी जांच से पता चला कि सुमन ने भूख हड़ताल 17 जुलाई को नहीं तोड़ी थी। टिहरी से मात्र 12 मील दूर सुमन के गाँव जौलगाँव में उनके परिजनों को मृत्यु का समाचार 30 जुलाई को तथा टिहरी से मात्र 3 मील दूर उनकी ससुराल को यह समाचार 6 अगस्त को पहुँचाया गया। उनकी पत्नी श्रीमती विनयलक्ष्मी उन दिनों महिला विद्यालय हरिद्वार में थी, जिन्हें कोई सूचना नहीं दी गयी। सुमन की शहादत की प्रतिक्रिया देशभर में होने के साथ ही अन्य रियासतों में भी शोषित-शासित प्रजा को इस शहादत की मिसाल दी जाने लगी। यह घटना वास्तव में देश के लोकतंत्र कामियों के लिये उत्प्रेरक का काम कर गयी।

श्रीदेव सुमन पर लिखे एक लेख “अमर शहीद श्रीदेव सुमन का बलिदान रंग लायेगा” (युगवाणी 14 जुलाई 2008) में परिपूर्णानन्द पैन्यूली ने लिखा है कि “श्रीदेव सुमन हमारे बीच नहीं रहे, किन्तु उनकी शहदात को लोग भूले नहीं हैं।” इस लेख में पैन्यूली लिखते हैं कि, “महाराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन की छोटी सी मांग को लेकर श्रीदेव सुमन ने अनशन करके अपने प्राण त्यागे। किसे पता था कि आगे चल कर न राजा का छत्र रहेगा न उसकी छाया। उस रक्तहीन क्रांति का नेतृत्व करने का मुझे अवसर मिला. जिसके फलस्वरूप सामन्तशाही, धराशाही हुयी और अगस्त, 1949 में रियासत भारतीय संघ में विलीन हुयी।” इस लेख में पैन्यूली ने जवाहर लाल नेहरू के 31 दिसम्बर, 1945 को उदयपुर में हुये देशी राज्य लोक परिषद के अधिवेशन में दिये गये भाषण के इस अंश को भी दिया है जिसमें कहा गया कि “….हमारे साथियों में जो अनेक शहीद हुये हैं उनमें टिहरी राज्य के श्री सुमन का नाम मैं विशेष तौर पर उल्लेख करना चाहता हूँ। हममें से अनेक इस वीर को याद करते रहेंगे, जो कि राज्य की जनता की आजादी के लिये काम किया करते थे।

.. “इसी लेख में पैन्यूली ने देशी राज्य लोक परिषद के उदयपुर अधिवेशन में सुमन के निधन पर पारित उस शोक प्रस्ताव का भी जिक्र किया है जिसमें कहा गया है कि टिहरी गढ़वाल की जेल में आनबूझ कर किये गये दुर्व्यवहार के शिकार बन कर मार डाल गये। उन्होंने हिम्मत और त्याग का जो आदर्श उपस्थित किया वह चिरकाल तक लोगों को याद रहेगा और रियासत की जनता को सदा अनुप्राणित करता रहेगा।” इसी लेख में पैन्यूली | की शहादत पर दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ के 2 अगस्त, 1944 के अंक की सम्पादकीय टिप्पणी भी दी है, जो कि इस प्रकार है, “… श्रीदेव सुमन का पवित्र बलिदान भारतीय इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण और उल्लेख योग्य है। इससे पहले ओस्टल जेल में यतीन्द्र नाथ दास के बलिदान ने देश का ध्यान अपनी और आकर्षित किया था और उसके फलस्वरूप भारतीय जेलों में राजनीतिक बंदियों को नाममात्र की सुविधाएँ दी गर्यो। श्रीदेव सुमन का बलिदान मगर, इससे अधिक उच्च सिद्धान्त के लिये हुआ है। टिहरी राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये आपने बलिदान दिया है। टिहरी के शासन पर पड़ा काला पर्दा इससे उठ गया है। हमारा विश्वास है कि टिहरी की जनता की स्वतंत्रता की लड़ाई इस बलिदान के बाद और और पकड़ेगी और टिहरी के लोग उनके जीवनकाल में अपने लोकनेता का जैसे अनुकरण करते थे, वैसे ही भविष्य में अनुप्राणित होंगे।”

(नोट : आलेख का यह अंश जयसिंह रावत की पुस्तक ” टिहरी  राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह से साभार लिया गया है। इसका अनाधिकार उपयोग कॉपी राइट का उल्लंघन होगा –एडमिन उषा रावत)

 

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