दिवाली की चकाचौंध में गुम होती जा रही पहाड़ियों की उल्लास भरी बग्वाल
-प्रभूपाल रावत –
देश के अन्य हिस्सों की तरह दिवाली उत्तराखंड के पहाड़ों में भी सबसे बड़ा त्योहार होता है इसीलिए पहाड़ों में अत्यंत उल्लास की तुलना दिवाली से की जाती है, लेकिन पहाड़ी लोग इसे दिवाली या दीपावली नहीं बल्कि बग्वाल के नाम से मनाते रहे हैँ। इसे मानने का ढंग या रिवाज भी थोड़ा भिन्न रहा है लेकिन बदलते दौर में अपनी परम्पराओं के प्रति बढ़ती हीन भावना के कारण पहाड़ियों की बग्वाल मैदानी दिवाली में समाती जा रही है।बग्वाल के साथ ही आधुनिक जीवन शैली में पुरानी प्रथायें विलुप्त व क्षीण होती जा रही हैं। आज की मानव जाति सभी प्रथाओं को भूलती जा रही है या उपहास उड़ाती है।
रिखणीखाल के गांवों में छोटी बग्वाल (11 नवम्बर, 2023),को ग्रामीण अपने पालतू मवेशियों (गाय, बैल,बछिया)आदि के लिए इस त्योहार को पूर्व की वर्षों की भाँति मनाया गया। उस दिन पशुपालकों ने पूरे गाँव के पालतू मवेशियों को एक खुले मैदान एक साथ खोलकर सामूहिक रूप से विशेष गो वंश भोज पकाया गया,जिसमें भात,मंडुवा के आटे का बाड़ी, उड़द दाल की पकोड़े, स्वाला, भूडा आदि बनाया गया।इस गो वंश भोजन के ऊपर फूल ,आदि परोसकर खिलाया गया।सबसे पहले मवेशियों के पांव धोकर धूप, धुपाणा तैयार कर हल्दी चावल का पिठाई लगाया गया।फिर पशुओं के सींगों पर सरसों का तेल लगाकर पूजा अर्चना की।उनको धूप-दीप आदि सुन्घाया गया।
पूरे गाँव के मवेशी एक खुले मैदान में इकठ्ठे हुए। सबको सामूहिक रूप से भोज कराया।बकरियों के लिए नमक,जौ का कुडका तैयार किया गया।जिसे बकरियां बड़े चाव से खाते हैं। खूब छीना झपटी होती रही। सुदूर पहाड़ी गावों में इसी तरह छोटी बग्वाल की शुरुवात हुयी।
शाम को लोगों ने आपस में पूरी पकोड़ी का आदान प्रदान कर भोजन के उपरांत सामूहिक स्थल पर भैलो खेला।अब तो वो बात नहीं रही,जो पहले होती थी। फिर भी प्रथा बरकरार है।छोटे बच्चों को ये सब नाटकीय घटनाक्रम लगा।ये प्रथा अब विचित्र सी लगने लगी है।