पर्यावरण

अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस – आओ पहाड़ की मौत का मातम मनाएं ! !

यूं समझिये कि एक विशालकाय घोड़ा है, बिगड़ैल घोड़ा, जिसका नाम विकास है। वह पहाड़ों पर सरपट भाग रहा है। बिना यह देखे कि उसके पैरों तले कितने मानव, कितने वन्य जीव, कितनी वनस्पतियां रौंदे जा रहे हैं। वह नहीं देख पा रहा है। दरअसल इस घोड़े का मकसद विकास नहीं कमीशन है। मुझे याद है उत्तराखंड की केदारनाथ घाटी में सिर्फ एक मोटर मार्ग होता था, जो रुद्रप्रयाग से मंदाकिनी के किनारे-किनारे सोनप्रयाग तक जाता था। इसी मार्ग से केदारनाथ आने वाले तीर्थयात्री सोनप्रयाग पहुंचते और वहां से पैदल केदारनाथ। बाद के दिनों में बदरीनाथ घाटी जाना हुआ तो वहां भी अलकनंदा और पिंडर के किनारे एक-एक सड़क देखी। हालांकि पहाड़ का वह जीवन बेहद कठिन था। लोगों को मोटरमार्ग तक पहुंचने के लिए दो-दो दिन लग जाया करते थे। कुछ और सड़कों की जरूरत थी और वह बनी भी।

सड़क निर्माण के नाम पर छलनी होते पहाड़

बाद के दौर में नेता और ठेकेदार पता चला कि सबसे अच्छा कमीशन सड़कें बनाने में ही मिलता है। और फिर शुरू हुआ अंधाधुंध सड़कें बनाने का दौर। अनियमित और अवैज्ञानिक तरीके से सड़कें बनने लगी। अब सड़कें बनाने के लिए किसी इंजीनियर की जरूरत न रही। जेसीबी पहाड़ पर पहुंची और जेसीबी का ड्राइवर इंजीनियर हो गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तो सड़कों का ऐसा जाल बिछा कि आज पूरा पहाड़ छलनी हुआ पड़ा है। अब तो सरकारी स्तर पर घोषणा कर दी गई है किसी जगह 500 लोग निवास करते हों तो वहां भी प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत मोटर मार्ग बनाया जाएगा। यानी कि पहाड़ों को खोदने का क्रम अभी थमने वाला नहीं है। सड़कों को विकास का पर्याय मान लिया गया है। लेकिन वास्तव में सड़कों से विकास होता तो इतनी सारी सड़कें बनने के बाद में पहाड़ से पलायन रुक गया होता। ऐसा हुआ नहीं। सड़कों से लोग बाहर तो गये, लेकिन वापस नहीं लौटे।

बाद के दौर में टिहरी बांध बना और फिर नेता-ठेकेदार ने जान लिया कि बांध बनाना भी फायदे का सौदा है। और फिर पहाड़ों में जल विद्युत परियोजनाओं की बाढ़ आ गई। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी जल विद्युत परियोजनाएं बनायी जाने लगी। कहीं बांध बनाकर, तो कहीं पहाड़ों के अंदर सुरंग खोदकर, कहीं छोटी, तो कहीं विशालकाय जल विद्युत परियोजनाएं। अब ये परियोजनाएं भी विकास मानी जाने लगी। पहाड़ों को इस तरह खोदे जाने का विरोध हुआ तो ऐसा करने वालों को विकास विरोधी करार दे दिया गया।

नतीजा पहले 16-17 जून 2013 की केदारनाथ त्रासदी के रूप में सामने आया और दूसरी बार 7 फरवरी 2021 की ऋषि गंगा त्रासदी के रूप में। विकास का घोड़ा किस तरह सब कुछ रौंदता जा रहा है, इसका उदाहरण पहाड़ों में हर जगह देखा जा सकता है। पहाड़ छलनी हैं, पेड़ों की शामत आ गई हैं। नदियां मलबे से पाट दी गई हैं। पहाड़ के रहवासी जिन उच्च हिमालयी और बुग्याल वाले क्षेत्रों में जोर से बात करने और खांसने-छींकने से नुकसान होने की बात कहते थे। जिन मंदिरों में आज भी शंख नहीं बजाया जाता, वहां मास्टर प्लान के नाम पर बड़ी-बड़ी मशीनें चलाई जा रही हैं। सुविधाओं के नाम पर रोज हेलीकॉप्टर उड़ाए जा रहे हैं।

पहाड़ में तबाही का सबसे बड़ा उदाहरण देखना है तो चमोली जिले के ऐतिहासिक और पौराणिक नगर जोशीमठ जाना होगा, जो तेजी से इतिहास बनने की की ओर अग्रसर है। पूरा जोशीमठ धंस रहा है। घरों में दरारें हैं। सड़कों पर बड़े-बड़े गड्ढे हो गये हैं। भू-वैज्ञानिकों की दो टीमें जोशीमठ के धंसाव का आकलन करके रिपोर्ट दे चुकी हैं। दोनों रिपोर्टों में कहा जा चुका है कि मोरेन यानी कि हिमोढ़ पर बसे इस क्षेत्र में विकास का घोड़ा बहुत दौड़ चुका। अब इसकी लगाम कसी जानी चाहिए। लेकिन, ऐसा नहीं हो रहा है। जोशीमठ के आसपास नं सिर्फ बड़ी संख्या में जलविद्युत परियोजनाएं बनाई जा रही हैं, बल्कि अब तो जोशीमठ के ठीक नीचे हेलंग-विष्णुप्रयाग बाईपास के लिए पहाड़ की खुदाई भी शुरू कर दी गई है। कहा जा रहा है कि यह बाइपास ऑलवेदर रोड का हिस्सा है। यानी कि यहां 12 मीटर चौड़ी सड़क बनाई जानी है। इसमें संदेह नहीं कि यह बाईपास जोशीमठ के मौत का अंतिम पैगाम साबित होगा।

 

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