कुमाऊनी लोक संगीत में मधु ने ढा दिया जुलम

—दिनेश शास्त्री–
कुमाऊनी लोक संगीत में बड़े दिनों बाद एक कर्णप्रिय गीत आजकल सुर्खियों में है। विशुद्ध लोक संगीत के आधार के साथ यह गीत मात्र तीन माह में आधिकारिक प्लेटफार्म पर दस लाख लोगों द्वारा देखा जा चुका है और गीत की लोकप्रियता का आलम यह है कि दर्जनों लोगों ने उस पर थिरकते हुए अपने वीडियो यूट्यूब पर अपलोड किए हैं। इस तरह यह गीत कई लाख लोगों तक तो पहुंच ही गया है। थोड़ा सा पाश्चात्य अंदाज का तड़का बेशक इसे ठेठ लोक से पृथक करता है किंतु गीत की आत्मा अपने लोक में संयोग श्रृंगार की चासनी में इस कदर डुबो देती है कि इसे “पैसा वसूल” की श्रेणी में खड़ा करने के लिए पर्याप्त है।
हम बात कर रहे हैं करीब तीन माह पूर्व रिलीज हुए कमल जोशी और मशकबीन की प्रस्तुति “हे मधु” की। जागर शैली में रचे गए इस गीत को लिखा है चंदन लाल ने और स्वर दिया है इंद्र आर्य ने। देखा जाए तो दोनों ने बेजोड़ काम किया है। इंद्र आर्य के कंठ से नायिका के बाजार जाने पर जुल्म हो जाने की आशंका को निरूपित करते हुए उसके नख शिख वर्णन की भरसक कोशिश की गई है। नायिका मधु का सौंदर्य अनुपम है, उसका सुंदर मुखड़ा, सुंदर बोलना, सुरम्याली आंखें, घुंघराले बाल, चलने में हिरनी सी चाल और बन ठन के बाजार गई तो जुल्म हो जायेगा। लिहाजा मधु तुम बाजार जाने का इरादा छोड़ दो, न जाने तुम्हारे बाजार जाने से क्या अनर्थ हो जाए। जुल्म हो जायेगा। कानों में झुमका पहन कर, माथे पर बिंदिया, गले में गुलबंद, हाथों में पौंछी पहन कर तो तुम्हारा सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। फिर अल्मोड़ा की बाल मिठाई की मिठास तो तुम्हारे गले में समा रखी है, ऐसे में दुनिया की खोटी नजर से तुम बच कैसे पाओगी? लिहाजा तुम बाजार मत जाओ, जुल्म हो जायेगा। यही नहीं सोलह श्रृंगार करके बूटीदार साड़ी पहने मधु, पिछोड़ी का फेरा और अधकटा ब्लाउज तुम्हारे सौंदर्य में चार चांद लगा रहा है। और भी जितने उपमान हो सकते हैं, सब मधु में हैं। इसमें कुछेक उपमाओं से चंदन लाल परहेज करते तो भी न तो गीत की भावभूमि कम होती और न लोक के झूमने में कोई कमी होती। हालांकि एकाध अवांछित शब्दों से गीत की उपादेयता कम नहीं होती लेकिन जब उत्कृष्टता की बात हो तो इन छोटी छोटी बातों पर भी रचनाकारों से ध्यान देने की स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है। आपको याद होगा कुछ साल पहले अमित सागर के गीत चैत की चैत्वाली गीत ने भी कुछ इसी तरह की धूम मचाई थी और आज भी युवाओं को वह गीत आकर्षित करता है।
बहरहाल चंदन लाल के इस गीत ने इंद्र आर्य के स्वर के साथ लोक संगीत को नई ऊर्जा दी है। पाश्चात्य अंदाज के तड़के से यदि परहेज किया जाता तो इसे विशुद्ध लोक संगीत की श्रेणी की विशिष्टता हासिल होती। आखिर उधार के सिंदूर से बचने में हर्ज भी क्या है?
गीत की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मशकबीन की प्रस्तुति के बाद अनेक लोगों ने अपने अंदाज में उस पर अपने नृत्य के वीडियो पेश कर दिए हैं। उनकी दर्शक संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। सौ की नौ बात यह है कि लोकसंगीत के क्षेत्र में नई पहल का स्वागत किया जाना चाहिए साथ ही यह अपेक्षा भी की जाती है कि लोक के मूल तत्वों के साथ छेड़छाड़ न हो वरना लोग बिसराते देर भी नहीं लगाते। कमी ढूंढने की जहां तक बात है तो लोग चांद में भी दाग ढूंढ लेते हैं लेकिन इन सबके बावजूद सुरेश जोशी और उनकी मशकबीन टीम को उनके नए प्रयास को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बाकी तो लोक समाज अपने अपने अंदाज में मूल्यांकन के लिए स्वतंत्र होता ही है।