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मई दिवस “विशेष वर्ग” का नहीं यह “शेष” वर्ग का, हम सबका, दिवस है

— गोविंद प्रसाद बहुगुणा

पौराणिक कथाओं में यह संकेत स्पष्ट है कि शेषनाग के हजारों सिरों पर पृथ्वी का सारा भार टिका हुआ है I जब कभी यह शेष वर्ग करवट बदलता है तो सारी पृथ्वी हिलने लगती है, उसको भूकंप नाम दिया हैं लेकिन उनके सिर पर हर समय लक्ष्मी नारायण सवार हैं ..यही बात मजदूरों पर भी लागू होती है उनके सिर पर विशेष वर्ग पांव जमाये बैठे है ..खैर यह तो एक पौराणिक धारणा है जो गलत नहीं है ।
पहले हम सिर्फ तीन दिवस जानते थे- स्वतंत्रता दिवस,गणतंत्र दिवस और मई दिवस ,ये तीनों दिवस एक दूसरे से जुड़े हुए हैं भावनात्मक और ऐतिहासिक रूप में भी लेकिन आज बाजारवाद ने तमाम दिवस पैदा कर दिए हैं । अब पहले दो दिवस तो संवैधानिक व्यवस्था से जुड़े हैं इसलिए उनको मनाने की नैतिक और कानूनी वाध्यता सभी नागरिकों की है लेकिन श्रम का महत्व हमारी संस्कृति से जुड़ा हुआ था तो इसका भी उतना ही महत्व मानते थे किन्तु आज हम देख रहे हैं मई दिवस मनाने का उत्साह अब दिन प्रति दिन क्षीण होता जा रहा है।
मई दिवस में आज हमारे पास अपने श्रमिक भाइयों को देने के लिए क्या है ? उनको सुरक्षा देने वाले श्रम क़ानून तो उदारीकरण की चपेट में आते जा रहे हैं । जिन श्रमिकों ने भारत की आजादी के बाद देश में उद्योगों की स्थापना के कार्य में रात- दिन एक किया – सार्वजानिक क्षेत्र में बड़े- बड़े उद्यमों और उपक्रमों को खड़ा करने में अपना योगदान दिया, जल विद्युत् परियोजनाों में काम किया, वे आज रोजगार के लिए दर- दर भटक रहे हैं -आज हालत यह हैं कि निजी क्षेत्र के सेवायोजकों के लिए जो मजदूर/कर्मचारी काम करते हैं उनकी कानूनी सुरक्षा प्रदान करने वाले क़ानून सेवायोजकों की मनमर्जी के अधीन हो गए है। – काम के कोई निश्चित समय नहीं रह गया सेवाशर्तों की कोई अहमियत नहीं – श्रम का यह बाजार पूंजीवादी buyers मार्किट बन गया है I
असंगठित क्षेत्र के उद्योगों की हालत भी पतली है ..वे धीरे -धीरे लुप्त हो रहे हैं क्योंकि साधारण उपभोग्य वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए छोटे उद्योगों को प्रोत्साहित करने के बजाय बाहर के देशों से साधारण चीजें भी आयात हो रही हैं, हमारी स्थिति उत्पादक के बजाय उपभोक्ता तक सीमित रह गयी है I
यहीं देहरादून का उदाहरण ले लीजिये – एक समय यहां लगभग २०० से अधिक मिनिएचर बल्ब फैक्ट्रियां थी, उनमें हजारों मजदूर काम करते थे – IDPL थी , एक टेक्सटाइल मिल थी , सीमेंट फैक्ट्री , इम्युनिटी ड्रग्स बनाने की फैक्ट्री थी आज कुछ नहीं। … श्रमिकों की सबसे बड़ी दुर्दशा तो करोना काल में हुईI
– पहले श्रमिकों की समस्याओं पर प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर श्रम सम्मलेन आयोजित होते थे ,जिनका उद्घाटन प्रधानमंत्री करते थे , उनमें सेवायोजकों के प्रतिनिधि, मजदूरों के प्रतिनिधि और सरकार के सम्बंधित विभाग के प्रतिनिधि भाग लेते थे , श्रमिकों के हित में क़ानून बनाए जाने की अनुशंसा सर्कार को भेजी जाती थी …- वह अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा …
हां भाषणों में जरूर “श्रमेव जयते “के नारे लगते हैं जैसे “जय जवान जय किसान” के नारे लगते हैं ।
फिर भी रस्म अदायगी तो करनी ही पड़ेगी इसलिए
मजबूर भाईयों को मैं शुभकामनाएं देता हूं यह कहते हुए कि
O, wind, if winter comes, can spring be far behind?”
नोट : विद्वान लेखक सेवा निवृत उप श्रमायुक्त है।

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