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आसान नहीं होगा जीएमवीएन और केएमवीएन का पर्यटन विभाग में विलय

दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार उत्तराखंड पर्यटन के दो प्रमुख घटकों जीएमवीएन यानी गढ़वाल मंडल विकास निगम और केएमवीएन यानी कुमाऊं मंडल विकास निगम को उत्तराखंड पर्यटन विभाग में विलय का निर्णय ले चुकी है। 15 फरवरी को हुई कैबिनेट बैठक में इस आशय का निर्णय लिया गया। सरकार फैसला ले चुकी है लेकिन क्या यह व्यावहारिक और उपयोगी होगा? यह सवाल तब तक कायम है जब तक दोनों निगमों को एक कर उत्तराखंड पर्यटन को व्यवसायिक रूप से फायदेमंद नहीं बना लिया जाता।
मेरा यह आशय कतई नहीं है कि सरकार का निर्णय लोकहित में नहीं है। जाहिर है लम्बे विमर्श के बाद ही सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची होगी और उसने नफा नुकसान का गुणा गणित भी किया होगा लेकिन इन दोनों निगमों के कर्मचारियों को यह फैसला मंजूर नहीं है और बात आखिर यहीं पर अटकती भी है।
इस समय उत्तराखंड में पर्यटन के संचालन में चार एजेंसियां कार्यरत हैं। उत्तराखंड पर्यटन विभाग, उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद, जीएमवीएन और केएमवीएन। आपको याद होगा जीएमवीएन और केएमवीएन वर्ष 1976 में अस्तित्व में आए थे। उससे पहले पर्वतीय विकास परिषद इस भूभाग में पर्यटन गतिविधियों के संचालन के लिए अधिकृत थी। सवाल पूछा जा सकता है कि जब प्रदेश के दोनों विकास निगम  समान रूप से प्रतिस्पर्धा के साथ काम कर रहे थे तो अब ये एकीकरण की जरूरत क्यों आ गई। जाहिर है शासन में जब कोई विचार बीज रूप में अंकुरित होता है तो उसे वक्त वक्त पर खाद पानी देने का काम ब्रेन कहलाने वाले अधिकारी देते रहते हैं और वे अपना माउथ पीस नेताओं को बनाते हैं।
यही भारत की नौकरशाही की चतुराई है। वह फ्रंट फुट पर नहीं आती। सामने नेता जी का चेहरा होता है। उन्हें आगे कर नौकरशाही अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ती है। अतीत के घटनाक्रमों के आधार पर यह बात दावे के साथ कही जा सकती है। पांच साल से कुछ अधिक समय गुजर गया होगा। तब भी केएमवीएन और जीएमवीएन के विलय की बात सामने आई थी। तब आर मीनाक्षी सुंदरम विभाग के सचिव थे।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद सरकार का बोर्ड है जबकि केएमवीएन और जीएमवीएन दोनों कम्पनी एक्ट के तहत संचालित निगम हैं। बोर्ड और निगम में कार्मिकों की क्या स्थिति होती है? यह किसी से छिपा नहीं है। बोर्ड कर्मचारी के खाते में हर माह की पहली तारीख को वेतन आ जाता है लेकिन अगर किसी निगम की माली हालत ठीक नहीं है तो उनके कार्मिकों को वेतन के लिए तरसना पड़ता है।
उन्हें तो खुद कुंआ खोदना पड़ता है। बोर्ड कार्मिकों को छठे हो या सातवें वेतन आयोग का लाभ हो या अन्य सुविधाएं, हर मामले में विभेद का सामना करना होता है। अब अगर दोनों निगमों के विलय की बात शुरू हुई है तो इस मामले के निस्तारण की उम्मीद भी जगती है लेकिन यदि इन दोनों निगमों को फिर निगम की ही शक्ल में रखा जाता है तो यह पुनर्मुषको भव से ज्यादा की स्थिति नहीं होगी। यानी कार्मिकों की सेवा शर्तों और व्यवस्था का सवाल सर्वप्रमुख हो जाता है और बहुत संभव है इसी बिंदु पर विलय में दिक्कत भी आ सकती हैं।
जीएमवीएन कर्मचारी संघ के अध्यक्ष मनमोहन चौधरी दो टूक कहते हैं कि पर्यटन विकास की किसी भी कोशिश का वह समर्थन करते हैं लेकिन पहले कर्मचारियों के मसले हल किए जाने चाहिए। उनका कहना है कि कर्मचारियों को विश्वास में लिए बिना ये कोशिश सफल नहीं हो सकती। चौधरी के मुताबिक निगम कार्मिकों को न तो डीए मिलता है न एचआरए मिलता है। छठे वेतन आयोग का एरियर अभी तक नहीं मिला है। सातवें वेतन आयोग का लाभ तो दूर की बात है। पहले इन मुद्दों पर बात होनी जरूरी है। उन्होंने कहा कि बिना कार्मिकों की समस्या का समाधान किए किसी भी प्रयास को सिरे नहीं चढ़ने देंगे। जहां तक उत्तराखंड के पर्यटन विकास की बात है तो कर्मचारी अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने के लिए तत्पर हैं लेकिन कर्मचारियों के हितों की अनदेखी की कीमत पर यह संभव नहीं होगा। मनमोहन चौधरी ने कहा कि चाहे आपदा हो, कोरोना हो या कोई और चुनौती हो, जीएमवीएन कार्मिकों ने पूरी निष्ठा और समर्पण से काम किया लेकिन उनके योगदान का सरकार के स्तर पर मूल्यांकन तक नहीं किया जाता। मनमोहन चौधरी उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कोरोना के दौर में निगम के अनेक बंगले या तो क्वारेंटाइन होम बना दिए गए या फिर डॉक्टरों और स्टाफ की सेवा में समर्पित रहे लेकिन पूरे मनोयोग से काम करने के बावजूद एक अदद प्रशस्ति पत्र तक नहीं मिला जबकि निगम कर्मचारियों ने भी कोरोना से लड़ने में बराबर योगदान दिया लेकिन उनका योगदान कहीं भी गिना नहीं गया।
इसी तरह केएमवीएन के कार्मिक भी विलय को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज कराने के लिए तैयार दिख रहे हैं। केएमवीएन संयुक्त कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष दिनेश गुरुरानी ने अपने खुले पत्र में कार्मिकों से कहा है कि सरकार कुमाऊं व गढ़वाल मंडल विकास निगम का एकीकरण करने जा रही है। औपचारिकता के लिए मात्र तीन माह का समय दिया गया है। लिहाजा अब हमें असली लड़ाई लड़नी है। गुरुरानी के मुताबिक पहली लड़ाई नियमितीकरण की है। दूसरी 15 दिसंबर को हुए शासन स्तर के समझौते समान कार्य का समान वेतन को लागू करवाने की है। साथ ही दोनों निगमों में व्याप्त वेतन विसंगतियों, विभागीय प्रमोशन व कर्मचारियों के प्रकरणों को लागू करवाने की है। उन्होंने कहा कि किसी भी आवास गृह / इकाई को निजी क्षेत्र में देने का पुरजोर विरोध किया जायेगा। गुरुरानी को आशंका है कि सरकार निगमों की बेशकीमती परिसंपत्तियों का निजीकरण कर सकती है, इन तमाम मांगों को लेकर आर पार की लड़ाई लड़ी जाएगी।
गुरुरानी के मुताबिक 25 मार्च के बाद किसी भी कार्य दिवस से आंदोलन प्रारंभ हो सकता है। उन्होंने बताया कि शीघ्र ही मुख्यमंत्री और विभागीय अधिकारियों को नोटिस दिया जाएगा।
जाहिर है दोनों निगमों के कार्मिकों को यही आशंका है कि सरकार विलय के बहाने पर्यटक आवास गृहों का निजीकरण कर सकती है और उनकी यह आशंका अनायास भी नहीं है। निजीकरण की राह पर तमाम सरकारें चल रही हैं। इसलिए उनका यह भय स्वाभाविक भी है। इस पर सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार सभी को रहेगा।
देखना यह होगा कि दोनों निगमों के विलय पर आमादा धामी सरकार पर्यटन के क्षेत्र में कौन सी क्रांति लाती है। सरकार के मन में क्या है, यह तो वही जाने लेकिन अगर यह प्रयास दोनों निगमों की दशा सुधारने का उपक्रम है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए किंतु यदि यह कोशिश पीपीपी मोड की तैयारी का आधारबिंदु है तो उस स्थिति में कार्मिकों के प्रतिरोध को कौन रोक सकता है?

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