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राजभवन छोड़ फिर पगडंडियों की ओर मुड़े भगत दा

—-दिनेश शास्त्री–
भगत दा राजमहल को ठोकर मार कर लौट रहे हैं लेकिन जितने दिन भी राजमहल में रहे, अपनी शर्तों, अपने मिजाज और अपने तेवर के साथ रहे। करीब तीन साल तक महाराष्ट्र जैसे राज्य का राज्यपाल रहना कोई हंसी खेल तो न था। यह अलग बात है कि वक्त बे वक्त भगत दा विपक्ष के निशाने पर रहे तो अपनों को भी असहज करने से नहीं चूके। चाहे छत्रपति शिवाजी जैसे काल की तुलना आज के दौर में डा. अंबेडकर अथवा गडकरी से करने का मामला हो, सावित्री बाई फुले का संदर्भ हो या फिर किसी छात्रावास का नामकरण सावरकर के नाम पर करने का सुझाव देने का मामला हो, भगत दा विपक्ष के निशाने पर रहे और भारतीय जनतंत्र के इतिहास में उन विरले उदाहरणों में शुमार हो गए जब लोग राज्यपाल की भूमिका को लेकर सड़कों पर उतरे हों। रविवार को जब आदित्य ठाकरे की सोशल मीडिया पर भगत दा के पदमुक्त होने पर प्रतिक्रिया आई तो जाहिर हो गया कि महाराष्ट्र को साधने में भगत दा ने कितना पसीना बहाया होगा।

बहरहाल भगत दा अब उत्तराखंड लौट रहे हैं तो उत्तराखंड की राजनीति के इस शिखर पुरुष को लेकर लोगों की दिलचस्पी भी स्वाभाविक है। उत्तराखंड में भगत दा के आने से विपक्ष को बेचैनी हो सकती है, यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है।

आपको याद होगा बीते अक्टूबर माह से भगत दा पदमुक्त होने की इच्छा जता रहे थे। प्रकट तौर पर कहा जा रहा था कि वे अब रिटायर लाइफ जीना चाहते हैं और पढ़ने में वक्त बिताएंगे लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या सचमुच यह होने जा रहा है या ऐसा ही कुछ होगा, जैसा कि भगत दा ने व्यक्त किया है। निसंदेह यह संभव नहीं है। भगत दा एकदम साधना के सेगमेंट में चले जाएं, यह उनके चाहने के बावजूद संभव नहीं है।
भगत दा एक ऐसे राजनेता हैं, जिनके चाहने वाले सभी दलों में हैं, उनका एक बड़ा आभामंडल है। इस बात की तस्दीक इससे भी होती है कि राजनीति की जो गुत्थी सुलझाने में लोगों को दिक्कत होती रही है, उसे भगत दा अपने अनुभव और कौशल से चुटकियों में हल करते रहे हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र राजभवन जाकर भी लोग उनसे परामर्श लेते रहे हैं। फिर यह कैसे संभव है कि उत्तराखंड में रहते भगत दा कि सलाह लोग न लें। उनके कद और पद का फिलहाल उत्तराखंड की सक्रिय राजनीति में कोई और राजनेता नहीं है। जाहिर है अनुभव, कौशल और प्रत्युत्पन्नमति की दृष्टि से भगत दा एक बार फिर उत्तराखंड की राजनीति में केंद्रीय भूमिका में दिख सकते हैं। उनके राज्य की राजनीति में आने से कई लोगों को दिक्कत हो सकती है। खासकर विपक्ष की धार तो कमजोर होगी ही। लेकिन सर्वाधिक संबल सीएम धामी को मिल सकता है। उन्हें भगत दा की मौजूदगी मानसिक रूप से मजबूती तो देगी ही, साथ ही राजनीति के दांव पेंचों से गुत्थियों को सुलझाने में आसानी भी होगी। सत्ता पक्ष की पेचीदगियों को सुलझाने में भी मदद मिलेगी, इसमें दो राय नहीं हो सकती। जब कभी तीखी हवा का झोंका आएगा, धामी के पास एक ढाल तो होगी ही। यह अलग बात है कि राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता। कभी कभार जोड़ घटाने में संख्याएं बदलती भी रहती हैं लेकिन यह सब बाद की बात है। फिलवक्त तो भगत दा की आमद हौसला बढ़ाने वाली ही है।
बताते चलें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिए सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने वाले भगत दा
1975 में आपातकाल का विरोध करने के कारण जेलयात्रा कर चुके हैं और यही उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट भी था। 1997 में वे उत्तर प्रदेश विधानमंडल के लिए चुने गए तो वर्ष 2000 में उन्हें नए बने राज्य उत्तरांचल (अब उत्तराखण्ड) का ऊर्जा, सिंचाई, कानून और विधायी मामलों का मंत्री नियुक्त किया गया। 2001 में वे नित्यानन्द स्वामी के स्थान पर मुख्यमंत्री बने। उस समय उनके कौशल की पहली बार पहचान हुई थी। उसके बाद उन्होंने उत्तराखण्ड में भाजपा के राज्य अध्यक्ष का भी पदभार सम्भाला। 2002 के राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा की मामूली अंतर से हार हुई तो भगत दा नेता प्रतिपक्ष रहे। उनके नेतृत्व में वर्ष 2007 में भाजपा सत्तरूढ हुई लेकिन मुख्यमंत्री का ताज उन्हें नहीं पहनाया गया। उनके स्थान पर मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूरी को मुख्यमंत्री बनाया गया। बताने की जरूरत नहीं है कि खंडूड़ी सरकार भी दीर्घजीवी नहीं रही और निशंक मुख्यमंत्री बनाए गए। आप अनुमान लगा सकते हैं कि नेतृत्व परिवर्तन ऐसे ही तो नहीं हुआ होगा। बहरहाल 2014 के लोकसभा चुनाव में भगत दा ने नैनीताल सीट से भारी मतों के अंतर से जीत दर्ज की। उस दौरान वे संसद की विभिन्न महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य रहे।
वर्ष 2019 में महाराष्ट्र का राज्यपाल बनने के बाद उनके राजनीतिक कौशल को सबने देखा है। तो क्या भगत दा उत्तराखंड को अपनी सेवाओं से वंचित रख सकते हैं? जाहिर है इस सवाल का जवाब ना ही रहेगा। खैर इतना तय है कि भगत दा के उत्तराखंड लौट आने से जहां कई लोगों की बांछें खिल गई हैं तो कई लोगों के पेट में दर्द होना भी स्वाभाविक है। एक बात तो तय है कि भगत दा की मात्र मौजूदगी से कुछ लोगों के राजनीतिक भविष्य पर विराम लग जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। आप भी घटनाक्रम पर नजर बनाए रखिए। आने वाले समय में बहुत कुछ नया घटित होने वाला है।

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