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राजनीतिक अस्थिरता, पदलोलुपता और कर्ज में डूबता उत्तराखण्ड

  • लेकिन वित्तीय कुप्रबंधन और कर्जखोरी ने डुबो दिया कर्ज में
  • उत्तराखण्ड कुछ मामलों में नये राज्यों और हिमाचल से भी आगे
  • केन्द्र शासित उत्तराखण्ड बेहतर होता
  • पंत हिमाचल के समर्थक मगर उत्तराखण्ड राज्य के विरोध में थे
  • भारत के राजनीति इतिहास में उत्तराखण्ड ने नया पन्ना जोड़ा
  • उत्तराखण्ड में 10 साल में 6 मुख्यमंत्री बने
  • हिमाचल के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता था उत्तराखण्ड का
  • हिमाचल की तुलना में आय की तुलना में खर्चे ज्यादा
10 Chief ministers of Uttarakhand in 21 Years. Photoby Jay Singh Rawat

  –जयसिंह रावत

राजनीतिक अस्थिरता, वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूलखर्ची के बावजूद उत्तराखण्ड का अपने से 50 साल सीनियर हिमालयी पड़ोसी हिमाचल से प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद जैसे मामलों में आगे निकल जाना उसकी विकास की भारी संभावनाओं का स्पष्ट संकेतक तो है मगर जिस तरह वित्तीय कुप्रबंधन से नया राज्य कर्ज तले डूबा जा रहा है और आये दिन राजनीतिक प्रपंचों से लोगों का मोहभंग हो रहा है उसे देखते हुये आवाजें उठनें लगी हैं कि अगर यह राज्य हिमाचल की तरह शुरू में केन्द्र शासित प्रदेश बन गया होता या फिर मैदानी उत्तर प्रदेश या संयुक्त प्रान्त में मिलने के बजाय इसे शुरू में हिमाचल के साथ जोड़ दिया गया होता तो वह हिमालयी राज्यों के लिये विकास के एक रोल मॉडल के रूप में जरूर उभरता।

उत्तराखण्ड कुछ मामलों में नये राज्यों और हिमाचल से भी आगे

सन् 2000 के नवम्बर महीने में जन्में छत्तीसगढ़ (1नवम्बर), उत्तराखण्ड (9नवम्बर) और झारखण्ड (15 नवम्बर) में से उत्तराखण्ड  अन्य दो राज्यों में से न केवल प्रति व्यक्ति आय में बल्कि कई अन्य मामलों में आगे निकल गया है। प्रति व्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में इस नये राज्य ने अपने से 50 साल सीनियर हिमाचल प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है। इन 50 सालों में छत्तीसगढ़ में राजनीतिक स्थायित्व के बावजूद प्रति व्यति आय 98,281 रुपये  (2019 तक)तथा सकल घरेलू उत्पाद 2,90,140 करोड़ तक पहुंचा है। उत्तराखण्ड की ही तरह राजनीतिक झंझावात झेल रहे झारखण्ड की हालत तो इतनी खराब है कि बकौल राष्ट्रीय विकास परिषद उस राज्य को प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय औसत छूने में अभी और 17 साल लगेंगे। उसकी प्रति व्यति आय अभी 57,863 रुपये तक ही पहुंची है। नये राज्य ही क्यों? 25 जनवरी 1971 को अस्तित्व में आये हिमाचल प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 1,83,000रुपये (2018-19) और  2021-22 तक राज्य सकल घरेलू उत्पाद 1,72,174 तक पहुंचने का अनुमान है। जबकि उत्तराखण्ड में प्रति व्यक्ति आय 2019 तक 1.99 लाख रुपये और 2021-22 तक राज्य सकल घरेलू उत्पाद 2,78,006 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है।

 

First Governor of Uttaranchal Surjit Singh Baranala, first Chief Minister of Uttaranchal N.N.Swami released the Map of the Newly created state of Uttaranchal on 9 November 2000. Photo _ Jay Singh Rawat

लेकिन वित्तीय कुप्रबंधन और कर्जखोरी ने डुबो दिया कर्ज में

लेकिन उत्तराखण्ड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की बंदरबांट के कारण प्रदेश कम आमदनी और ज्यादा खर्चों के कारण कर्ज के बोझ तले दबता चला गया। हिमाचल प्रदेश पर 50 सालों में केवल 55,700 करोड़ रु0 ( सन् 2020 तक) का कर्ज चढ़ा है, जबकि सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड मात्र 20 सालों में (31 मार्च 2020 तक) लगभग 65,982 करोड़ रु0 के कर्ज से दब चुका है, जिसका ब्याज ही प्रति वर्ष लगभग 6,053 करोड़ तक चुकाना पड़ रहा है। सीएजी  रिपोर्ट के मुताबिक, 31 मार्च 2020 तक उत्तराखंड सरकार  65,982 करोड़ के कर्ज के तले दब चुकी थी। पिछले पांच सालों में कर्ज का यह ग्राफ लगातार बढ़ा है। उत्तराखण्ड पर कर्ज का बोझ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2018-19 में कर्ज का बोझ बढ़कर 47580 करोड़ पार कर गया। इससे पहले वित्तीय वर्ष 2015-16 में 34762.32 करोड़ और वित्तीय वर्ष 2014-15 में यह कर्ज 30579.38 करोड़ था। 31 मार्च, 2017 तक कर्ज की धनराशि बढ़कर 41644 करोड़ हो गया था। यह कर्ज 31 मार्च, 2018 तक बढ़कर 47759 करोड़ हो गया था। कैग ने न सिर्फ राज्य सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर सवाल उठाए हैं बल्कि राज्य सकल घरेलू उत्पाद (एसडीजीपी) में भारी गिरावट का भी खुलासा किया है।

हिमाचल की तुलना में आय की तुलना में खर्चे ज्यादा

अगर दोनों राज्यों के चालू वित्त वर्ष के बजटों की तुलना करें तो हिमाचल प्रदेश सरकार ने 2021-22 में वेतन पर 14.2 प्रतिशत राशि, पेंशन पर 9.1 प्र0श0, कर्ज के ब्याज के लिये 8.4 प्रतिशत राशि रखी है। जबकि उत्तराखण्ड सरकार ने 2021-22 में वेतन भत्तों पर 29.58 प्र0श0, पेंशन पर 13.03 प्र0श0 और ब्याज अदायगी के लिये 10.54 प्रतिशत धन का प्रावधान रखा है। विकास के लिये हिमाचल के बजट में 39.35 प्रतिशत तो उत्तराखण्ड के बजट में मात्र 15.01 प्रतिशत राशि का प्रावधान रखा गया है। वह भी तब खर्च होगी जबकि केन्द्र सरकार आर्थिक मदद मिलेगी। अन्यथा राज्य सरकार के पास विकास के लिये एक पैसा भी नहीं है। वर्तमान बजट में राज्य के करों और करेत्तर राजस्व के साथ केन्द्रीय करों से मिले राज्यांश को मिला कर उत्तराखण्ड का कुल कर राजस्व लगभग 20,195.43 करोड़ और करेत्तर राजस्व 23955.81 करोड़ है और अब तक इतनी ही राशि उसे वेतन, पेंशन, ब्याज और अन्य खर्चों पर व्यय करनी पड़ रही है।

हिमाचल के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता था उत्तराखण्ड का

भौगोलिक समानता और सम्बद्धता के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक एकरूपता के कारण उत्तराखण्ड के लिये उत्तर प्रदेश के बजाय हिमाचल प्रदेश का साथ ज्यादा अनुकूल था। हिमाचल और गढ़वाल के सदियों से रोटी-बेटी के सम्बन्ध रहे हैं। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जबकि टिहरी नरेश की ओर से गुलेर, क्योंथल, सिरमौर आदि नरेशों को आर्थिक सहायतार्थ ऋण दिया गया। गोरखा आधिपत्य से पूर्व रामीगढ़ (राईंगढ़) मैलीगढ़ और डोडाक्वांरा की जागीरें गढ़ नरेश के अधीन थीं। देहरादून जिले का जौनसार बावर इलाका कभी सिरमौर का हिस्सा था। रियासतों के प्रजामण्डलों के मार्गदर्शन और समन्वय के लिये कांग्रेस के ही अनुसांगिक संगठन अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के अधीन टिहरी समेत जिन 35 हिमालयी रियासतों के प्रजामण्डलों के संगठन हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल कांउसिल के अध्यक्ष पद पर टिहरी के परिपूर्णानन्द भी 1947 में चुने गये थे।

हिमाचल में 50 साल में 6 और उत्तराखण्ड में 21 साल में 11 मुख्यमंत्री

उत्तराखण्ड हो या फिर झारखण्ड, इन नये राज्यों में देश के कुछ अन्य छोटे राज्यों की तरह अवसरवादिता और पदलोलुपता के कारण राजनीतिक अस्थिरता चलती रही। नेताओं का ध्यान विकास पर नहीं बल्कि केवल कुर्सी पर टिका रहा। 25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आये हिमाचल में इन 50 सालों में आधुनिक हिमाचल के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार सहित कुल 6 नेता मुख्यमंत्री बने। इनमें डा0 परमार, रामलाल, शान्ता कुमार और प्रो0 प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे जबकि राजा वीरभद्रसिंह को 5 बार राज्य का नेतृत्व करने का अवसर मिला। जयराम ठाकुर 2017 में मुख्यमंत्री बने तो अब तक टिके हुये हैं जबकि उत्तराखण्ड में इसी अवधि में तीन मुख्यमंत्री बन गये।

 उत्तराखण्ड में 10 साल में 6 मुख्यमंत्री बने

इधर उत्तराखण्ड में मात्र 21सालों में नित्यानन्द स्वामी, भगतसिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवनचन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल ’निशंक’, विजय बहुगुणा, हरीश रावत और त्रिवेन्द्र सिंह रावत? तीरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी  सहित 10 नेता मुख्यमंत्री बन गये। इनमें खण्डूड़ी विधानसभा के एक ही कार्यकाल में 2 बार मुख्यमंत्री बने। इनमें तिवारी के अलावा किसी ने भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया जबकि तीरथसिंह रावत ऐसे मुख्यमंत्री बने जो 3 माह तक ही कुर्सी पर बने रह सके। 10 साल की अवधि में भाजपा ने राज्य को 6 मुख्यमंत्री देने का रिकार्ड बनाया। जिन सत्ताधारियों का अपना ही भविष्य अनिश्चित हो उनसे प्रदेश के भविष्य के बारे में चिन्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

भारत के राजनीति इतिहास में उत्तराखण्ड ने नया पन्ना जोड़ा

भारत में पहली बार अदालत ने 27 मार्च 2016 को जारी राष्ट्रपति शासन के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर केन्द्र सरकार द्वारा गिरायी गयी राज्य सरकार बहाल की तथा हाइकोर्ट के फैसले को जायज ठहराते हुये सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार अपनी देखरेख में राज्य विधानसभा में बहुमत का फैसला करा कर केन्द्र के सत्ताधारियों की मनमानी पर रोक लगाई। इस दौरान हरीश रावत ने एक दिन के लिये हाइकोर्ट के आदेश पर और बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधानसभा में 10 मई 2016 को कराये गये शक्ति परीक्षण के बाद दूसरी बार 11 मई को बिना शपथ के सत्ता हासिल की। देखा जाय तो उन्हें एक ही कार्यकाल में तीन बार कुर्सी पर चढ़ने का मौका मिला। अदालत ने राज्य में 45 दिन तक राष्ट्रपति शासन होने के बावजूद उन्हें बर्खास्त माना ही नहीं था। उत्तराखण्ड में चुनी हुयी सरकारों को विपक्ष से नहीं बल्कि सत्ताधारी दल के अपने लोगों से खतरा होता रहा है जो कि अवसरवाद और पदलोलुपता का एक जीता जागता उदाहरण है।

9 rebels of Congress who had revoted and joind BJP in 2016

पंत हिमाचल के समर्थक मगर उत्तराखण्ड राज्य के विरोध में थे

पंजाब के नेता हिमाचल को पंजाब में मिलाना चाहते थे। इसके लिये डा0 परमार को मुख्यमंत्री पद की पेशकश भी की गयी मगर न केवल परमार बल्कि समूचा राजनीतिक नेतृत्व और यहां तक कि ज्यादातर रियासतों के राजा भी इस पहाड़ी क्षेत्र के अलग प्रशासन के लिये एकताबद्ध और अडिग रहे। यही नहीं 1953 में जस्टिस फजल अली की अध्यक्षता में गठित पहले राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी बहुमत से हिमाचल को पंजाब में मिलाने की सिफारिश कर दी थी मगर डा0 परमार के अनुरोध पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिमाचल का अलग अस्तित्व बनाये रखने का निर्णय लिया। मजेदार बात तो यह रही कि जो पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त इस उत्तराखण्ड को हर हाल में मैदानी संयुक्त प्रान्त में जोड़े रखने के लिये जोर लगाते रहे, उन्होंने भी हिमाचलियों की अलग अस्तित्व बनाये रखने की मांग का समर्थन किया था।

केन्द्र शासित उत्तराखण्ड बेहतर होता

उत्तराखण्ड के राजनीतिक हालात को देखते हुये अब यह विचार उभरने लगा है कि जिस तरह 15 अप्रैल 1948 को 30 हिमालयी रियासतों को मिला कर अलग केन्द्र शासित हिमाचल बनाया गया था उसी तरह इस उत्तराखण्ड को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में रखने के बजाय केन्द्र शासित क्षेत्र बना दिया गया होता या फिर हिमाचल की अन्य रियासतों के साथ ही इसे भी केन्द्रीय शासन में शामिल कर दिया गया होता तो आज इतने राजनीतिक जांेक इस राज्य को नहीं चूसते। जनवरी 1971 में देश के 18वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद डा0 परमार ने भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये प्रदेश के विकास की डगर बागवानी की ओर बढ़ाई उसके साथ ही पर्यटन और ऊर्जा उत्पादन पर भी जोर दिया गया तो आज हिमाचल ‘भारत के फलों के कटोरे’ के रूप में विख्यात हो गया। इसे सेव राज्य या बगीचों का राज्य भी कहा जाने लगा जबकि उत्तराखण्ड के दिग्भ्रमित नीति नियंता कभी इसे ऊर्जा राज्य, कभी पर्यटन राज्य तो कभी जड़ीबूटी राज्य बनाने के नाम पर लोगों का दिल बहलाते रहे। हिमाचल जब केन्द्र शासन के अधीन गया तो पहली पंच वर्षीय योजना में उसके विकास की आधा रकम वहां सड़कों का जाल बिछाने पर खर्च की गयी। इस बीच वह पार्ट सी का राज्य भी रहा।

Jaysinghrawat@gmail.com

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