भारत में एक साल में 23 लाख लोगों की असामयिक मौतें हुयीं प्रदूूषण से
–जयसिंह रावत
दुनियाभर में विभिन्न कारणों से प्रदूषण का कहर बढ़ता जा रहा है। इनमें मानवीय कारण भी हैं तो प्राकृतिक कारण भी हैं। विश्व की सबसे पुरानी स्वास्थ्य पत्रिकाओं में से एक ‘‘द लैसेंट’’ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन और भारत प्रदूषण के कहर से सर्वाधिक प्रभावित हैं। चूंकि जनसंख्या के मामले में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है तो प्रदूषण के काल ने भी चीन को पीछे छोड़ कर भारत को अपने पहले निशाने पर ले लिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बढ़ती आबादी और आबादी की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने तथा उसकी सुख सुविधाओं के लिये प्रकृति के साथ बेतहासा छेड़छाड़ या संसाधनों पर अत्यधिक दबाव के कारण प्रदूषण का खतरा ज्यादा बढ़ रहा है।
लैसंेट पत्रिका द्वारा गठित लैसेंट कमीशन के एक नए अध्ययन के अनुसार प्रदूषण के कारण विश्व में 2019 में 90 लाख और भारत में 23 लाख से अधिक लोगों की असामयिक मृत्यु हुई। जबकि चीन में प्रदूषण से लगभग 21 लाख लोगों की मौत हुयी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 16 लाख मौतें अकेले वायु प्रदूषण के कारण हुईं, और 5,00,000 से अधिक मौतें जल प्रदूषण के कारण हुईं।
हालाँकि घरेलू वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण जैसे अत्यधिक गरीबी से जुड़े प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों में गिरावट आई है, लेकिन औद्योगिक प्रदूषण, परिवेशी वायु प्रदूषण और विषाक्त रासायनिक प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों में वृद्धि से इस गिरावट की भरपाई हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 2000 में पारंपरिक प्रदूषण से होने वाला नुकसान भारत की जीडीपी का 3.2 प्रतिशत था। तब से पारंपरिक प्रदूषण के कारण होने वाली मृत्यु दर में गिरावट के साथ ही आर्थिक नुकसान में भी काफी कमी आई है, लेकिन यह नुकसान अभी भी भारत की जीडीपी का लगभग 1 प्रतिशत है।
दरअसल परिणाम की परवाह किए बिना हवा, भूमि, पानी और समुद्र में छोड़ा गया मानवजनित अवांछित कचरा ही प्रदूषण होता है जो कि मानव स्वास्थ्य और इस पृथ्वी के बातावरण के लिए एक खतरा है और आधुनिक मानव जगत को खतरे में डालता है। धूल कण और विभिन्न गैसें वायु को प्रदूषित कर रही हैं। ओजोन, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड, मीठे पानी का प्रदूषण, पारा, नाइट्रोजन, फास्फोरस, प्लास्टिक और पेट्रोलियम अपशिष्ट द्वारा समुद्र का प्रदूषण और सीसा, पारा, कीटनाशकों, औद्योगिक रसायनों, इलेक्ट्रॉनिक कचरे और रेडियोधर्मी कचरे द्वारा भूमि जहरीली हो रही है।
वास्तव में हम जिस वातावरण में रहते हैं उसका हमारे स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। घरेलू, कार्यस्थल, बाहरी और इनडोर के वातावरण कई अलग-अलग तरह से स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर सकते हैं। हवा की खराब गुणवत्ता जिसमें हम सांस ले सकते हैं, जो दूषित पानी हम पी सकते हैं और जिस परिवेश में हम रहते हैं, वह हमारे जीवन की गुणवत्ता निर्धारित करता है। हालाँकि आनुवांशिक कारक भी बीमारियाँ पैदा करने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन पर्यावरणीय कारक विभिन्न बीमारियों के होने में अधिक सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के लिए 1992 में भारत सरकार द्वारा अपनायी गयी नीति के विवरण में पारंपरिक उपाय के स्थान पर प्रदूषण की रोकथाम पर जोर दिया गया। साथ ही प्रदूषण की रोकथाम के लिए महत्वणपूर्ण तत्व के रूप में उपलब्ध श्रेष्ठ एवं व्यावहारिक तकनीक अपनाने की पहचान की गई। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और इससे जुड़े संगठनो में प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण से संबंधित विभिन्नि कार्यक्रमों एवं योजनाओं का ध्यान, स्वच्छ और कम अपशिष्ट तकनीकों, अपशिष्ट न्यूनीकरण, पुनरूउपयोग या पुनरूचक्रीकरण, जल की गुणवत्ता में सुधार, पर्यावरण अंकेक्षण, प्राकृतिक संसाधन का लेखांकन, जन आधारित मानकों का विकास, संस्थागत एवं मानव संसाधन विकास आदि, विषयों पर जोर दिया गया है। प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण की संपूर्ण समस्या को आदेश और नियंत्रण विधियों के संयोजन के साथ ही स्वैच्छिक नियमों, राजकोषीय उपायों, जागरूकता के प्रचार आदि द्वारा निपटाने की व्यवस्था की गयी, मगर समस्या पर काबू फिर भी नहीं पाया जा सका है।
लैसेंट रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में विशेष रूप से महत्वाकांक्षी प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना के साथ वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयास किए गये हैं, जो कि प्रधान मंत्री द्वारा 2016 में गरीब ग्रामीण महिलाओं को रसोई गैस में स्थानांतरित करने में मदद करने के लिए शुरू की गई योजना है। लेकिन कमियां अब भी काफी बनी हुई हैं। भारत ने प्रदूषण स्रोतों को कम करने के लिए उपकरण और नियामक शक्तियां विकसित की हैं, लेकिन स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशा निर्देशों के अनुरूप प्रदूषण नियंत्रण प्रयासों को चलाने और पर्याप्त सुधार हासिल करने के लिए कोई केंद्रीकृत प्रणाली नहीं है।
देश की अत्यधिक आबादी, औद्योगिक विकास और पर्यावरणीय मुद्दों को देखते हुए भारत में प्रदूषण को नियंत्रित करना एक जटिल और बहुआयामी चुनौती है। यह विकराल समस्या जुमलों से हल नहीं हो सकती। इसको प्रभावी ढंग से सुलझाने के लिए विभिन्न स्तरों पर तत्काल उपायों की आवश्यकता है। भारत को मौजूदा पर्यावरण कानूनों और विनियमों को लागू और मजबूत करना चाहिए। इसमें उद्योगों और वाहनों के लिए उत्सर्जन मानक स्थापित करना और लागू करना शामिल हो।
बिजली उत्पादन के लिए कोयले और अन्य जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने से वायु प्रदूषण में काफी कमी आ सकती है। इसके लिये सौर और पवन उर्जा जैसे नये विकल्पों पर जोर दिया जा सकता है। वायु प्रदूषण में वाहनों की भूमिका सबसे अधिक होती है। अतः कुशल और विश्वसनीय सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों में निवेश करने से सड़क पर निजी वाहनों की संख्या कम हो सकती है। इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने से भी मदद मिल सकती है। टिकाऊ कृषि पद्धतियों को लागू करने से अत्यधिक कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग से होने वाले मिट्टी और जल प्रदूषण को कम किया जा सकता है। इसमें जैविक खेती और सटीक कृषि तकनीकों को बढ़ावा देना शामिल है। प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने से ठोस कचरे के अनुचित निपटान से होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सकता है। इसमें पुनर्चक्रण, खाद बनाना और खतरनाक कचरे का जिम्मेदार निपटान शामिल है। जल निकायों में छोड़ने से पहले औद्योगिक और नगरपालिका अपशिष्ट जल का उपचार करके जल प्रदूषण की समस्या का समाधान किया जा सकता है। सीवेज उपचार सुविधाओं को लागू करने और औद्योगिक निर्वहन पर नियम लागू करने से भी इस दिशा में मदद मिल सकती है। प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ाना और जनता को प्रदूषण में उनके व्यक्तिगत योगदान को कम करने के बारे में शिक्षित करना महत्वपूर्ण है।
उद्योगों और घरों के लिए किफायती और टिकाऊ विकल्पों सहित प्रदूषण नियंत्रण के लिए नई प्रौद्योगिकियों और समाधान विकसित करने के लिए अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहित किया जा सकता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रदूषण से निपटना एक दीर्घकालिक प्रतिबद्धता है जिसके लिए सरकार, उद्योगों, समुदायों और व्यक्तियों के समन्वित प्रयासों की आवश्यकता होती है। भारत में पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रभावी प्रदूषण नियंत्रण रणनीतियों को विकसित करने और लागू करने के लिए नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और नागरिक समाज को मिलकर काम करना होगा।