क्रांतिकारी महेन्द्र प्रताप सिंह राजा होते हुये भी रंक के साथी थे
-जयसिंह रावत
नाम के राजा मगर फकीरों की तरह जीने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और समाज सुधारक महेन्द्र प्रताप का उत्तराखण्ड से गहरा सम्बन्ध रहा है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के मुसरन नामक स्थान पर 1 दिसम्बर 1886 को हुआ। उन्होंने सन् 1914 में देहरादून से ही निर्बल सेवक नाम का अखबार निकाला था। चूंकि उस अखबार का लक्ष्य ही राष्ट्रीय स्वधीनता था इसलिये उसमें छपी सामग्री भी अंग्रेज शासकों को कहां रास आने वाली थी। इसलिये उनसे बार-बार जमानतें मांगी जाती रहीं और अन्ततः राजा साहब ने वह अखबार बन्द कर दिया और देश छोड़ कर ही चले गये। विदेश में स्वतंत्र भारत राष्ट्र की निर्वासित सरकार चलाने वाले यह महान क्रान्तिकारी ने 1946 में भारत लौटने के बाद आजाद देश की संसद का सदस्य रहाा मगर उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षण देहरादून में ही बिताये। भारतीय जनता पार्टी आज भले ही राजा महेन्द्र पताप का गुणगान करती हो मगर वह हमेशा साम्प्रदायिकता के खिलाफ रहे। वामपंथी विचारों के कारण वह जनसंघ के भी विरोधी रहे। इसीलिये वह अटल बिहारी बाजपेयाी के खिलाफ चुनाव लड़े और उन्होंने बाजपेयी जी की जमानत तक जब्त कराई
पिता अंग्रेज भक्त और पुत्र अंग्रेजों का दुश्मन बना
हाथरस के राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युध्द किय मगर अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया तो उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे। सन् 1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्दसिंह का राज्य नहीं लौटाया। उन्हें कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया। राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु होने पर रानी साहब कुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी। राजा हरनारायण सिंह अंग्रेजों के भक्त थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उन्होंने मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने। उनका
पहले राजा थे जो कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुये
आर्य पेशवा के नाम से भी प्रसिद्ध रहे महेन्द्र प्रताप का जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह हुआ। कहा जाता है कि विवाह के बाद जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती। उनके 1909 में पुत्री दृभक्ति और 1913 में पुत्र .प्रेम प्रताप सिंह का जन्म हुआ। सन् 1906 में जिंद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने इन्डियन नेशनल काँग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे। उस समय किसी राजा का कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेना बहुत बड़ी बात होती थी। उन्होंने 1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की और उसके लिये अपने पांच गाँव वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दे दिया। वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया।
देहरादून में निर्बल सेवक अखबार निकाला
वह प्रथम विश्वयुद्ध से लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से देहरादून छोड़ कर विदेश गये। देहरादून में वह ”निर्बल सेवक“ समाचार.पत्र निकालते थे। उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई।
अफगानिस्तान में पहली निर्वासित भारत सरकार का गठन
विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला। मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा राजा महेन्द्र प्रताप और हरिद्वार स्थित स्वामी श्रद्धानंद के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को इंग्लैण्ड ले गया। उसके बाद जर्मनी के शासक कैसर से भेंट की जिसने आजादी में हर संभव सहायता देने का वचन दिया। वहाँ से वह अफगानिस्तान गये। वहां अफगान बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने। स्वर्ण.पट्टी पर लिखा सूचनापत्र रूस भेजा गया।
बाजपेयी को चुनाव में हराया था राजा महेन्द्र प्रताप ने
अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया उसी दौरान वह रूस गये और लेनिन से मिले। राजा साहब 1920 से 1946 विदेशों में भ्रमण करते रहे और उसी दौरान उन्होंने विश्व मैत्री संघ की स्थापना की। वह 1946 में भारत लौटे। वह 1957-1962 के दौरान लोक सभा के सदस्य चुने गये जिससे वे बाद में सेवानिवृत्त हुए। सन् 1979 में उनका देहान्त हो गया। सन् 1957 के लोकसभा चुनाव में मथुरा संसदीय सीट पर राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने निर्दलीय के तौर पर जनसंघ प्रत्याशी और भाजपा के युग पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी को न केवल हराया बल्कि उनकी जमानत तक जब्त कराई थी। वह वामपंथी विचारों के थे और सदैव साम्प्रदायिकता के सख्त खिलाफ रहे। राजा होते हुये भी वह छुआछूत के खिलाफ रहे और उन्होंने उस जमाने में सफाईकर्मियों के घर जा कर खाना तक खाया।