जन्मदिन पर स्मरण : जन्मजात विद्रोही थे टिहरी की जनक्रांति के नायक परिपूर्णानन्द पैन्यूली
-जयसिंह रावत
टिहरी राज्य की जनक्रांति के डिक्टेटर, प्रख्यात पत्रकार, पूर्व सांसद एवं समाजसेवी परिपूर्णानन्द पैन्यूली ऐसे जीवित इतिहास थे जिन्होंने बाल्यकाल से ही अपने विद्रोही तेवरों के कारण इतिहास रचना शुरू कर दिया था। पहला इतिहास उन्होंने टिहरी की राजशाही की उस जेल से फरार होकर रचा जिस जेल में श्रीदेव सुमन ने 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद प्राण त्यागे थे। दूसरा इतिहास भारत के दीर्घतम् राजवंशों में से एक पंवार वंश के शासन को ध्वस्त करने वाली टिहरी की जनक्रांति का नेतृत्व करने पर रचा। तीसरा इतिहास उन्होंने गढ़वाल की राजनीति में अजेय माने जाने वाले पंवार वंश के अंतिम महाराजा मानवेन्द्र शाह, जिन्हें बोलान्दा बदरीनाथ या जीता जागता बदरीनाथ भी कहा जाता था, को चुनावी मुकाबले में परास्त कर रचा। पैन्यूली उस ऐतिहासिक लोकसभा के सदस्य रहे जिसका कार्यकाल 6 साल था और जिसके कार्यकाल में इमरजेंसी भी लगी थी। क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण मात्र 17 साल की उम्र में 5 साल की सजा पाना, जेल से ही बारहवीं की परीक्षा देना और हिमालयन हिल स्टेट रीजनल काउंसिल के चुनाव में हिमाचल प्रदेश के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार को परास्त करना जैसी घटनाऐं भी उनके ऐतिहासिक चरित्र को उजागर करती हैं। स्वतंत्रता सेनानी, लेखक और पत्रकार परिपूर्णा नन्द पैन्यूली को अगर एक जीवित पुराकथा (लिविंग लिजेण्ड) कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनका जन्म 19 नवम्बर 1924 में टिहरी नगर के निकट छोलगांव में हुआ था। उनके दादा राघवानन्द पैन्यूली टिहरी रियासत के दीवान थे और पिता कृष्णा नन्द रियासत के इंजिनीयर थे। इनका पूरा परिवार माता श्रीमती एकादशी देवी और अनुज सच्चिदानंद सहित समाज सेवा और स्वाधीनता आन्दोलन के लिये समर्पित रहा।
सूरजकुंड बम कांड में 5 साल की सजा
क्रांतिकारी परिपूर्णानन्द पैन्यूली प्रारंभिक शिक्षा टिहरी, गाज़ियाबाद; बनारस एवं मेरठ में हुयी । सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान मेरठ बम काण्ड में पकड़े जाने पर उन्हें 5 वर्ष की कैद हुयी। मेरठ जेल में वह चौधरी चरण सिंह के भाई श्यामसिंह, बनारसी दास और भैरव दत्त धूलिया आदि के साथ रहे। उसी दौरान उन्होंने जेल से फरार होने का प्रयास भी किया मगर सफल नहीं हुये। मेरठ जेल से ही उन्होंने कक्षा बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की और उसी दौरान परीक्षा देने के लिये लखनऊ ले जाया गया। इस कैदी ने प्रथम श्रेणी में इंटर की परीक्षा पास की।
राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद राजशाही के खिलाफ
रफी अहमद किदवई की मदद से वह मेरठ जेल से 1946 में समय से पहले रिहा हो कर गृहनगर टिहरी आ गये और उसी दौरान वहां चल रहे किसान आन्दोलन में शामिल हो गये। आन्दोलन के दौरान 24 जुलाइ 1946 को पकड़े जाने पर उन्हें टिहरी जेल भेजा गया। जेल की अमानवीय स्थिति के खिलाफ उन्होंने 13 सितम्बर से 22 सितम्बर तक भूख हड़ताल भी की। आखिरकार उन्हें 27 नवम्बर 1946 को राजद्रोह के आरोप में मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय थपलियाल ने दादा दौलतराम आदि कई राजनीतिक बंदियों के साथ विभिन्न समयावधियों की सजा सुनाई। पैन्यूली को दफा 224 के तहत 18 माह की कठोर कैद और 500 रुपये अर्थदण्ड की सजा हुयी थी।
टिहरी राजशाही की जेल से फरारी
सजा मिलने के ठीक 13 वें दिन ही परिपूर्णानन्द पैन्यूली 10 दिसम्बर 1946 को दिन दहाड़े टिहरी जेल से फरार हो गये। दिसम्बर के महीने की कड़ाके की ठंड में उन्होंने भिलंगना और भागीरथी नदियां पार कीं तथा नंगधड़ंग साधू के वेश में जंगलों से भटकते-भटकते चकराता पहुंचने में कामयाब हुये और वहां से वह साधू वेश में ही देहरादून आये और दूसरे ही दिन दिल्ली चले गये जहां उनकी मुलाकात जयप्रकाश नारायण और जवाहर लाल नेहरू से हुयी। जयप्रकाश नारायण ने उन्हें शंकर छद्म नाम देकर बंबई भेज दिया। वहां एक राजनीतिक जलसे के दौरान उनकी भेंट संयुक्त प्रान्त के प्रीमियर पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त से हुयी तो उन्होंने पैन्यूली को ऋषिकेश में रह कर गतिविधियां चलाने की सलाह दी ताकि टिहरी पुलिस उन्हें ब्रिटिश इलाके से पकड़ न सके। ऋषिकेश पहुंच कर पैन्यूली ने टिहरी राजशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलन के प्रमुख नेता भगवानदास मुल्तानी के घर को अपना ठिकाना बनाया। उस आन्दोलन में मुल्तानी का घर श्रीदेव सुमन और नागेन्द्र सकलानी जैसे बड़े आन्दोलनकारी नेताओं का अड्डा हुआ करता था। पैन्यूली के अनुज सच्चिदानंद पैन्यूली भी स्वाधीनता सेनानी हैं।
अनुपस्थिति में ही प्रजामण्डल की कमान
टिहरी नगर में 26 एवं 27 मई 1947 को हुये अधिवेशन में परिपूर्णानन्द पैन्यूली को उनकी अनुपस्थिति में ही प्रजामण्डल का प्रधान और दादा दौलतराम को उप प्रधान चुन लिया गया। चूंकि पैन्यूली जेल से भगोड़े थे और उनके प्रत्यर्पण की सारी औपचारिकताएं भी पूर्ण थीं इसलिये वह देश की स्वतंत्रता तक प्रतीक्षा करते रहे और 15 अगस्त 1947 को जैसे ही देश आजाद हुआ तो वह टिहरी चल पड़े लेकिन उसी दिन उन्हें नरेन्द्रनगर में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां उनके साथ अमानुषिक बर्ताव हुआ। जिसके खिलाफ उन्होंने भूख हड़ताल भी की। पैन्यूली की गिरफ्तारी के बाद राजशाही के खिलाफ आन्दोलन और अधिक भड़क उठा। अखिल भारतीय लोक परिषद के नेताओं तथा कर्मभूमि के सम्पादक भक्त दर्शन आदि के हस्तक्षेप और भारी जनाक्रोश के चलते उन्हें सितम्बर 1947 में रिहा कर दिया गया। उसके बाद उन्होंने जनवरी 1948 की 15 तारीख तक राजशाही की हुकूमत पलटवाकर ही दम लिया। टिहरी विधानसभा के चुनाव और अन्तरिम सरकार के गठन में उनकी अहं भूमिका रही। यह चार सदस्यीय मंत्रिमण्डल भी 1 अगस्त 1949 को टिहरी के भारत संघ में विलय तक चला। विलय की प्रकृया में भी पैन्यूली की अहं भूमिका रही।
हिमालयी रियासतों का नेतृत्व
राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जहां ब्रिटिश भारत में कांग्रेस सक्रिय थी वहीं रियासती भारत या देशी राज्यों में कांग्रेस का ही अनुसांगिक संगठन ‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद’ या All India States Peoples’ Conference (AISPC) सक्रिय थी। इसका गठन 1927 में किया गया था। इसकी कमान पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन् 1939 में स्वयं संभाली जो कि 1946 तक इसके अध्यक्ष रहे। नेहरू के बाद डा0 पट्टाभि सीतारमैया ने परिषद की कमान संभाली जो कि 25 अप्रैल सन् 1948 में लोक परिषद के कांग्रेस में विलय के समय तक इसके अध्यक्ष और जयनारायण व्यास महासचिव पद पर रहे। इसी लोकपरिषद के तहत पंजाब हिल्स की टिहरी समेत हिमाचल की 35 रियासतों के प्रजामण्डलों के दिशा निर्देशन के लिये ‘‘हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल’’ का गठन किया गया। यह एक तरह से हिमालयी राज्यों की प्रदेश कांग्रेस ही थी और 10 जून 1947 को हुये इस काउंसिल के चुनाव में परिपूर्णानन्द पैन्यूली ने डा0 यशवन्त सिंह परमार को भारी मतों से पराजित किया था। डा0 परमार आधुनिक हिमाचल प्रदेश के निर्माता माने जाते हैं।
लोक सभा सदस्य
पैन्यूली ने लगभग एक हजार साल से अधिक समय तक संयुक्त गढ़वाल और फिर गढ़वाल पर शासन करने वाले पंवार वंश को दो ऐसे झटके दिये जिन्हें इतिहास में कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। टिहरी की राजशाही के खिलाफ जनवरी 1948 में हुयी तख्तापलट क्रांति का नेतृत्व 22 वर्षीययुवा परिपूर्णानन्द पैन्यूली ने ही किया था। टिहरी के भारत संघ में विलय के बाद जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी राजपरिवार ने अपने जडें़ बहुत गहरे तक जमा दी थीं तो पैन्यूली ने सन् 1971 में हुये लोकसभा चुनाव में महाराजा मानवेन्द्र शाह को इतनी बुरी तरह पराजित किया कि महाराजा अगले 20 सालों तक चुनाव से ही तौबा करते रहे। पैन्यूली पहली बार 6 साल तक चली लोकसभा (1971 से 1977) के सदस्य रहे।
मूर्धन्य पत्रकार एवं लेखक
परिपूर्णानन्द पैन्यूली न केवल महान स्वतंत्रता सेनानी रहे बल्कि कई दशकों से उत्तराखण्ड के मूर्धन्य पत्रकारों में से एक हैं। भारत की आजादी और फिर टिहरी रियासत के विलय के बाद सन् 1949 में पैन्यूली पत्रकारिता से जुड़ गये। वह सबसे पहले ”टाइम्स आफ इण्डिया“ की ओर से इलाहाबाद में स्टाफ रिपोर्टर नियुक्त हुए मगर उन्होंने अखबार की नौकरी करने के बजाय देहरादून में उसी अखबार का स्टिंगर बनना पसन्द किया। वह ”टाइम्स आफ इण्डिया“ के अलावा ”हिन्दुस्तान टाइम्स“, ”नेशनल हेरल्ड“, ”पायनियर“ एवं ”इकोनोमिक टाइम्स“ आदि अखबारों से लगभग 60 वर्षों तक जुड़े रहे। उनके लेख कई प्रतीष्ठित राष्ट्रीय पत्रों में छपते रहे हैं। उन्होंने देहरादून से कई वर्षों तक हिमानी साप्ताहिक अखबार चलाया। बाद में हिमानी सान्ध्य दैनिक भी निकला। उसमें पैन्यूली जी प्रबन्ध सम्पादक तथा जयसिंह रावत सम्पादक रहे। परिपूर्णा नन्द पैन्यूली ने दो दर्जन से अधिक हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकें भी लिखीं। उनमें से ”देशी राज्य जन आन्दोलन“ की भूमिका कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष बी.पट्टाभिरमैया ने लिखी थी। इसी प्रकार ”नेपाल का पुनर्जारण“ की भूमिका डा0 सम्पूर्णानन्द और ”भारत का संविधान और संसद तथा संसदीय प्रक्रिया“ की भूमिका आचार्य नरेन्द्र देव ने लिखी थी।