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जबरदस्त आन्दोलनों के वार झेलती रही धामी सरकार सालभर


-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की दूसरी पारी का पहला साल कई मायनों में यादगार रहेगा। इस एक साल में उत्तराखण्ड में कुछ ऐसे भी काम हुये जिनका अनुकरण अन्य भाजपाई राज्यों ने भी किया। लेकिन इसके साथ ही ऐसे भी काण्ड हुये जिनसे राज्य में जबरदस्त जनाक्रोष भड़कने के साथ ही सारे देष का ध्यान उत्तराखण्ड की ओर आकर्षित हुआ। खास कर इन काण्डों में सत्ताधारी दल के नेताओं की प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका के कारण न केवल भाजपा की अपितु उत्तराखण्ड की भी खासी बदनामी हुयी। इन सब बबंडरों से मुख्यमंत्री धामी सरकार केन्द्रीय नेतृत्व के आशीर्वाद  से सकुशल  निकलती गयी।

चुनाव हारने पर भी बने मुख्यमंत्री

मुख्यमंत्री धामी का अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव हार जाने के बावजूद दुबारा मुख्यमंत्री बनना अपने आप में एक बड़ी घटना थी जिसकी उम्मीद स्वयं उनकी पार्टी के नेताओं को न थी क्योंकि वे धामी की हार का लाभ मुखमंत्री बनने के लिये उठाने को लालायित थे। हार के बावजूद दुबारा ताजपोषी से धामी को पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व का स्पष्ट आशीर्वाद जगजाहिर हो गया। इससे धामी की स्थिति काफी मजबूत हो गयी। मुख्यमंत्री की कुर्सी दुबारा संभालने के बाद धामी की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि चम्पावत के उपचुनाव में असाधारण जीत थी जिसमें उन्होंने कुल मतों का 90 प्रतिशत हिस्सा हथिया कर इतिहास रच दिया।

अन्य राज्यों से भी ली बढ़त

इन राजनीतिक जीतों के बाद धामी ने प्रशसनिक क्षेत्र में भी अपना सिक्का जमाने की कोशिश  की और इसकी पहले समान नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करने के लिये कमेटी के गठन से की गयी। हालांकि उत्तराखण्ड को इसकी जरूरत ही नहीं है, क्योंकि यहां 85 प्रतिशत आबादी हिन्दू है जिसकी नागरिक संहिताएं 1955 और 1956 में ही बन गयीं थी। हालांकि भ्रष्टाचार और घोटालों के दलदल में फंसे उत्तराखण्ड को सबसे पहले लोकायुक्त की जरूरत है जिसका वायदा भाजपा ने 6 साल पहले किया ष्था। सी तरह सख्त भूकानून का भी वायदा खड़ा है।  हालांकि समान नागरिक संहिता का धरती पर उतरना इतना आसान नहीं है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व से सम्बन्धित अनुच्छेद 44 के ऊपर भविष्य में नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक के भारी भरकम रोड़े हैं। बहरहाल कानून लागू हो या न हो उसका राजनीतिक असर तो पहले ही होने लग गया। इसलिये धामी का अनुसरण अन्य भाजपायी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी किया जिससे धामी की स्थिति पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत हुयी।

मुलायम नेता के कठोर कानून

कॉमन सिबिल कोड की ही तरह धामी ने कठोर धर्मान्तरण और नकल विरोधी कानून बना कर अन्य भाजपा शासित राज्यों के समक्ष उदाहरण पेश किये और अन्य मुख्यमंत्रियों से आगे बढ़त ली। इससे पार्टी के सर्वोच्च मठाधीष मोदी-षाह द्वय की नजरों में धामी की जगह मजबूत हुयी। लेकिन राज्य की महिलाओं के लिये सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण का कानून तो बन ही चुका है जिसका अनुसरण अन्य राज्य भी करेंगे। इसी तरह धामी के शासनकाल में मोटे अनाजों पर भी अच्छा काम हुआ जिसका प्रसार अन्य राज्यों में हो रहा है। यद्यपि मोटे अनाजों को प्रोत्साहित करने की शुरुआत हरीश  रावत ने अपने कार्यकाल में काफी मजबूती से कर दी थी।

पहला साल रहा बबंडरों से भरपूर

पुष्कर धामी की दूसरी पारी का पहला साल एक के बाद एक काण्डों के कारण बबंडरों से भरपूर रहा। इन काण्डों के कारण भड़के बंबडरों का रुख सीधे सीधे धामी सरकार की ओर रहा। खास कर अंकिता भण्डारी हत्याकांड की तोहमत के कारण धामी सरकार को भारी जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। पुष्कर धामी ने 23 मार्च 2022 को दूसरी पारी में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके कुछ ही महीनों बाद चमोली जिले के हेलंग में घसियारी घास लूट काण्ड हो गया। 15 जुलाइ 2022 को हेलंग में बिजली प्रोजेक्ट वालों के इशारे पर सीआइएसएफ ने गांव की महिलाओं से घास लूटने के साथ ही पुलिस ने बच्चे समेत उन्हें कई घण्टों तक हिरासत में रखा और महिलाओं के साथ इस ज्यादती का प्रशासन ने बचाव किया जिससे ऊंगली धामी सरकार की ओर ही उठी। इस काण्ड ने सरकार की राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी की।

पेपर लीक घटनाओं ने पीछा नहीं छोड़ा

हेलंग काण्ड कुछ ठण्डा होता तब तक अगस्त 2022 में पेपर लीक काण्डों की परतें खुलने लगीे जो कि अब तक जारी हैं। पेपेर लीक की आग सुलग ही रही थी कि सितम्बर में अल्मोड़ा जिले के भिकियासैण में सवर्ण युवती से विवाह करने पर एक दलित नेता जगदीश  चन्द्र की सितम्बर की शुरुआत में हत्या हो गयी। इसके विरोध में भी राजनीनीतिक दलों ने प्रदर्शन किये। भिकियासैण के बाद उत्तरकाशी के मोरी ब्लाक में मंदिर प्रवेश  को लेकर एक दलित युवा की पिटाई का मामला भी खूब उछला।

अंकिता हत्याकाण्ड से राष्ट्रव्यापी बदनामी

धामी सरकार पर सबसे बड़ा धब्बा पौड़ी गढ़वाल की अंकिता भण्डारी की ऋषिकेश  के निकट वरिष्ठ भाजपा नेता विनोद आर्य के पुत्र पुल्कित आर्य के वनन्तरा नाम के रिसार्ट में हत्या ने लगाया। इस हत्याकाण्ड से समूचा उत्तराखण्ड आग बबूला हुआ। सारे देश में यह मामला उछला। हालांकि पुलिस ने तत्काल इस मामले में गिरफ्तारियां कीं। भाजपा ने आरोपी के पिता को पार्टी से निकाला और भाई से लालबत्ती वाला पद भी छीना, मगर शुरुआत में ऐसी परिस्थितियां बनीं जिससे सरकार की नीयत पर विपक्ष का ऊंगली उठाना स्वाभाविक ही था। गिरफ्तारियों के बावजूद मृतका के माता पिता का  विश्वास  भी सरकार नहीं जीत पायी। मृतका की मां का हत्याकांड की जांच सीबीआइ से कराने की मांग को लेकर हाइकोर्ट जाना भी साबित करता है कि राज्य सरकार की जांच पर मृतका के माता पिता को भी भरोसा नहीं है।

सरकार के अपने ही कालिख पुतवाने में लगे रहे

उत्तराखण्ड में सरकारी नौकरियों की बंदरबांट का सबसे बड़ा उदाहरण विधानसभा में असरदार लोगों के करीबियों को बैकडोर से नियुक्तियां दिलाने का तो था ही लेकिन अधीनस्थ चयन सेवा आयोग और फिर जब राज्य लोक सेवा आयोग की भर्तियों में भी पेपर लीक की परतें खुलती गयीं तो राज्य के लोग हतप्रभ रह गये। भर्ती घोटाले के सबसे बड़े मास्टर माइण्ड हाकमसिंह का नाम सामने आया तो उसकी सत्ताधारी दल के बड़े नेताओं के साथ तस्बीरें भी सोषियल मीडिया पर तैरने लगीं। तस्बीरें ही नहीं हाकम सिंह स्वयंउत्तरकाशी  जिले में भाजपा का एक प्रमुख नेता रहा। हाल ही में राज्य लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सहायक अभियंता भर्ती मामले में हरिद्वार के भाजपा नेता संजय धारीवाल की गिरफ्तारी ने विपक्ष के हाथ सरकार और सत्ताधारी दल के खिलाफ पेपर लीक घोटालों को लेकर एक और बड़ा हथियार मिल गया। हाल ही में भाजपा ने अपने जिन मण्डल अध्यक्षों की घोषणा की थी उनमें संजय धारीवाल का भी नाम था। बाद में षक की सुई संजय की ओर घूमते ही उससे हरिद्वार के मंगलौर मंडल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा ले लिया गया। इस भाजपा  नेता का नाम पटवारी-लेखपाल भर्ती पेपर लीक में भी आ रहा है। हरिद्वार के ही ज्वालापुर मंडल के एक पूर्व महामंत्री नितिन चौहान का नाम भी लेखपाल पेपर लीक मामले में आया है। पेपर लीक मामलों में अब तक अधीनस्थ चयन सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और सचिव सहित 60 से अधिक लोगों की ताबड़तोड़  गिरफ्तारियां करा कर धामी सरकार ने तोहमत से पल्ला  छुड़ाने का प्रयास तो अवष्य किया, लेकिन पार्टी के अपने ही लोगों ने सरकार पर कालिख पोतने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

विधानसभा में बैकडोर भर्तियों का मामला भी खूब उछला

धामी सरकार के कार्यकाल में विधानसभा की बैकडोर भर्तियों का भण्डाफोड़ होना कोई मामूली घटना नहीं थी। सरकार के कहने से विधानसभा अध्यक्षा ने डीके कोटिया की अध्यक्षता में भर्तियों की जांच के लिये जो कमेटी बनायी उसने केवल 2016 के बाद की नियुक्तियों को निरस्त करने की सिफारिष कर अपने ही ऊपर उंगली उठाने का अवसर दे दिया। कमेटी की सिफारिश  पर विधानसभा अध्यक्षा ऋतु खण्डूड़ी ने तत्काल 2016 के बाद के नियुक्त 228 कर्मचारियों को बिना नोटिस के बर्खास्त कर भेदभाव का एक जीता जागता नमूना पेश  कर दिया। अब सवाल उठ रहा है कि जब सभी भर्तियां गलत तरीके से की गयी हैं तो केवल 2016 के बाद के कर्मचारियों को ही क्यों हटाया गया। जबकि ऐसी नियक्तियां अन्तरिम विधानसभा के गठन से ही प्रकाष पन्त के कार्यकाल से शुरू हो गयी थी।

बेरोजगार आन्दोलन भी भड़का

पेपरलीक और बैकडोर भर्तियों से प्रदेश  का युवा हताश  और निराश है। इसी हताषा से बेरोजगार संघ का आन्दोलन उभरा है। लेकिन धामी सरकार ने युवाओं को समझाने बुझाने के बजाय आन्दोलन के दमन का रास्ता अपना कर आग में घी डालने का काम किया। ऐसा माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री को ऐसी पुलिसिया सलाह उनके मुंह लगे अफसर दे रहे हैं।

आगे चुनौतियां कम नहीं

कुल मिला कर देखा जाय तो पुष्कर धामी का एक साल तोहमतों, सरकार विरोधी आन्दोलनों के जरिये जनाक्रोषों और महंगाई-बेरोजगारी जैसी समस्याओं के कारण जनता में निराशाओं से भरा अवष्य रहा। मगर धामी जिस आत्म विष्वास के साथ इन झंझावातों से निकले हैं उस आत्मविश्वास ने उनकी लम्बी राजनीतिक पारी का संकेत अवष्य दिया है। खास कर गावों में जा कर प्रवास करने और सीधे आम जनता से संवाद करने से उन्होंने पार्टी के अन्दर अपने विरोधियों को फिलहाल अपने अपने इरादों का अहसास तो दिला दिया मगर उनकी चुनौतियां यही खत्म नहीं हुयीं। आगे और भी अग्नि परीक्षाएं देनी होंगी। धामी लोकप्रिय घोषणाओं की झड़ियां तो लगा रहे हैं मगर राज्य की माली हालत बेहद नाजुक है। उन घोषणाओं को धरती पर उतारना भी एक गंभीर चुनौती है। खास कर आने वाले साल लोकसभा चुनाव हैं। राज्य के कर्मचारी पुरानी पेंशन को लेकर आन्दोलित हैं। हिमाचल में कांग्रेस सरकार ने अपने कर्मचारियों की यह मांग मान ली है और केन्द्र सरकार सहित भाजपा की राज्य सरकारें पुरानी पेंशन देने के पक्ष में नहीं हैं। उसका सीधा असर उत्तराखण्ड के कर्मचारियों पर पड़ेगा। अगर लोकसभा चुनाव भाजपा के मनवांछित नहीं रहे तो राज्य में बड़ा राजनीतिक भूचाल आ सकता है।

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