पहाड़ का वो लोक जीवन जो प्रकृति के साथ जीवंत था : आधुनिकता निगल गयी पहाड़ियों की संस्कृति को
– लेखक– प्रभुपाल सिंह रावत
सन 1980 से पहले की यादें जो आज भी जेहन में बार बार आती रहती हैं। पहले गाँव के लोग साक्षर नहीं होते थे,महिलाए तो होती ही नहीं थी। उन्हें उस समय पढ़ाना भी एक तरह अभिशाप ही था लोग स्कूल भेजना बुरा मानते थे। गांवों में लोग सुबह से मध्य रात्रि तक खेती पाती, पशुपालन, लकडी, घास आदि पर ही समय बिताते थे उन्हें एक मिनट की भी फुर्सत नहीं थी। पुरुष लोग सुबह चार पांच बजे उठकर पशुओं को गौशाला से बाहर निकालना,हल लगाना आदि कार्य में व्यस्त रहते थे। उनके लिए खाना आदि खेत में ही ले जाते थे। हल चलाते समय भी बीच-बीच में उनको तम्बाकू की लत रहती तथा हुक्का साथ-साथ चलता ।
उस समय ताश, जुआ, शराब, नशा आदि का बिल्कुल भी प्रचलन नहीं था। दिन में भी आराम नहीं करते थे, हल, निसुडा,ज्यूडा, डोरी बुनना आदि कार्य होते थे। रात को किसी एक घर में वृद्ध लोग गपशप व अपनी व्यथा एक दूसरे को शेयर करते थे। सर्दियों में अंगीठी सेकते तथा तम्बाकू का लुफ्त लेते। गाँव में कोई चिठ्ठी लिखना पढ़ना नहीं जानता था। एक दो ही आदमी ऐसे होते थे जो पूरे गाँव की चिठ्ठी लिखते या पढते थे। न फोन न अखबार कुछ भी साधन नहीं थे। रेडियो व घड़ी भी किसी किसी के घर में था समय देखने के लिए लोग व पढने वाले बच्चे धूप की छाँव देखकर समय का अंदाजा लगाते थे।बिजली न होने के कारण लोग चिमनी,लैम्प, कांच की बोतल में तेल डालकर बत्ती जलाते। तम्बाकू पर काफी जोर रहता था, तम्बाकू फरसी, चिलम, बसथ्वाया या पतब्यडा बनाकर पीते थे । दो प्रकार के तम्बाकू भरते थे एक चगटीदार दूसरा वगैर चगटी का। फरसी,चिलम आदि में पानी रोज डालते थे। सब अपनी ही मातृभाषा बोलते,हिन्दी कोई जानता ही नहीं था। जो रहे भी होगे वे टूटी फूटी हिन्दी बोलते थे।
उस समय नौकरी पेशा भी नहीं था दो चार ही नौकरी वाले थे। उनके मनीआर्डर आते थे वो भी मात्र बीस तीस-चालीस रूपये के, तो लोग कहते थे आज उनका मनीआर्डर आ रखा है। कर्ज लेने पहुंच जाते थे। डाकिया स्वयं गाँव में आता था। दिन में पुरुष लोग पशुओं को चुगाने जंगल जाते।उस समय काफी काम होते थे जैसे छप्पर बनाना,कीला,ज्यूडा,निसुडा,मंदरा,चारपाई छाना आदि।बैठक के लिए मुछेला,लकड़ी का प्रबंध करना।बच्चों के पढने के लिए चिमनी,लैम्प की रोशनी होती थी। लोगों को सुबह आग जलाने के लिए एक दूसरे के घर से आग क्याडा जलाकर या अंगरकुला लाकर जलाते थे। उनको पता रहता था कि आग उनके यहाँ मिलेगी। माचिस भी नहीं होती थी जब पैसा ही नहीं था तो माचिस कहाँ से आती।चाय पीने को लोग गुड़ का कटक लगाते,चीनी तो किसी किसी के घर मिलती।
खेती में काफी किस्म की फसलें होती जैसे- गेंहू, जौ, धान, मंडुवा, ज्वार, झंगोरा, कौणी, मक्का, गहथ, उडद, तोर, चोलाई,चिन्मय, रैयास, अदरक, हल्दी, मिर्च आदि। साग भाजी में भी राई,मूली,ककडी,तोरी,करेला,कद्दू,लौकी,मीठा करेला,भिन्डी,बैंगन,आदि होता था।
अब महिलाओं की बात करते हैं,महिलाओं का जीवन व दिनचर्या बहुत कष्टदायक था। उस समय समय लडकियों की शादी नौ वर्ष से अठारह वर्ष में हो जाती थी। एक दो साल तक तो नयी नवेली बहू का ससुराल में मन ही नहीं लगता था, वह हमेशा डर के साये में जीवन बिताती, कभी कभी वे इकठ्ठा होने पर घास लकड़ी के पेड पर चढते समय करूणामयी गीत गाकर अपना दिल बहलाती।
तब मन में कुछ शान्ति मिलती उनके लिए बहुत ही दुखदायी समय होता था। सुबह चार बजे उठकर पूरे भरे परिवार के लिए गेंहू,जौ,मंडुवा पीसती। जन्दरा चलाते समय कभी नींद की झपकी भी आ जाती तो सास की गाली सुननी पडती है। उस समय की
गाली भी भद्दी हैती थी।उसके बाद धान कूटने के लिए ओखली में काम करती।जिसमें धान,झंगोरा होता था।उस समय गाँव में पानी भी किसी स्रोत
व झरने से लाना होता था जो एक से तीन किलोमीटर दूर थे।
पंदेरा में दो चार महिलाए इकठ्ठा होकर एक दूसरे को अपनी सास की कहानियाँ सुनाते थे।उसके बाद वे गौशाला से रात का गोबर साफ करके खेतों में फेंकने जाती है,उन्हे एक सेकेंड का भी समय नहीं है।फिर घास,लकड़ी लेने के लिए जंगल या खेतों में जाती।खाने का समय नहीं मिलता तो वे रोटी चलते चलते नमक या गुड़ के साथ खाती थी। उसके बाद दिनभर खेत में गून्जा,मिट्टी के डाले फोड़ते। घर में छोटे बच्चों को दूध पिलाने की फुर्सत नहीं,बच्चे रोते बिलखते हैं उनकी निवार की चारपाई के नीचे बरसू रखते थे यदि बच्चा मल मूत्र भी कर दे तो सूख जाता है। ताकि बच्चे को ठंड भी न लगे।उस दौरान बच्चों को आठ नौ साल की उम्र के बाद ही स्कूल भेजते थे।शिक्षा को उस समय आवश्यक नहीं समझा जाता था।कहते थे कि जीवित रहेगा तो जैसे तैसे खेती करेगे,खा लेगा।पहनने के लिए उन दिनों चप्पल,जूते तक नहीं होते थे।इतना पैसा नहीं था कि चप्पल खरीद सकें।कपड़े भी सालभर में एक ही बार बनाते थे वो भी कौथिक के समय पर,दर्जी घर में आकर सिलता था।दुकानदार से उधार लाते थे फिर उसे एक साल बाद पैसे देते,जब घर की हल्दी,मिर्च बिकती। महिलाओं का जीवन कष्टदायक था वे बार बार घर का काम जल्दी न करने पर सास की गाली व टोकाटोकी सहती रहती थी।
उस समय घर में एक दो कमरे होते थे।आठ दस आदमियों के लिए सोने के लिए जगह नहीं होती तो महिलाओ को गौशाला में भी जाना पड़ता था।प्रसव भी महिलाए गौशाला में ही हैती थी। गौशाला के बाहर दरवाजे पर कंडाली बांधी जाती थी ताकि भूत पिचास का भय न हो।
महिलाओ की दिनचर्या घास,लकडी,कूटना,पीसना,खाना बनाना,बर्तन साफ करना,कपड़े धोना,घर की लिपाई पुताई,बच्चों की देखभाल,पीन्डा खुरसना,आदि अनेक काम है।महिलाए भीगी बिल्ली की तरह रहती थी उन्हें सास का डर बराबर सताता रहता था
उस समय सास का हुकुम मानना बहू के लिए ज़रूरी होता था। महिलाओं को कभी कभी भरपेट भोजन भी नहीं मिलता था
। वे सिर्फ बाडी,कपला,मंडुवा की रोटी,झंगोरा का भात आदि पर ही निर्भर थी। फल फ्रूट तो उस जमाने में नाम भी नहीं जानते थे।बड़े परिवार में अनाज भी ज्यादा लगता था।गेंहू के आटा मेहमान के लिए रखा जाता था। गाँव में सन 1954 से पहले प्रधान का पद भी नहीं था।अंग्रेजी हुकुमत के समय मालगुजार,थोकदार ही गांव के कार्य निपटाते थे।गाँव में झगड़ा,जन्म मृत्यु का रिकॉर्ड रखना,भूमि का किस्त आदि कार्य मालगुजार,थोकदार ही करते थे।
पहले समय में लड़की की शादी में उसके पिता वर पक्ष से बारात का खाना पीना व अन्य खर्च वसूलते थे। कन्यादान सिर्फ दिखावा था। ये प्रथा सन 1985 के आसपास से बन्द हुई है। उस समय लड़की को देने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखा जाता था कि लडका व परिवार कैसा हो। कहते थे कि परिवार में जेठ, जेठानी, सास ससुर, ननद, देवर आदि हो। ससुर पेन्शनर हो। खेती पाती खूब हो।चार जोड़ की गोठ हो,गाय,भेड,बकरी आदि हो,सिचाई वाली जमीन हो,मकान बड़ा हो,घास के लिए जंगल नजदीक हो। हल लगाने के लिए बड़े सफेद रंग के बैल हो,खान्कर लगे हो,लडका नौकरी पर हो यदि न भी हो तो चलेगा,खेती खूब हो।पढा लिखा न हो लेकिन अपना नाम लिखना जानता हो।कम जाति का न हो। घर में रेडियो,घड़ी हो।सास गाली देने वाली न हो,मकान बड़ा व पठालेदार हो।मेहमानबाजी खूब हो। महिलाए दहेज में दूध देने वाली गाय,बकरी व अनाज का भारा लाती थी।उस समय अनाज रखने के लिए कुन्ना,कनस्तर,मालू के पत्तों से बना बर्तन होते थे।अनाज को ढैपुर मे रखते थे। बीज का अनाज छांटकर रखते थे।गम्भीर बीमारी में घरेलू वैद्य ही उपचार करते थे।लोगों के पास पैसा नहीं था।
घरेलू वैद्य ही जड़ी बूटियों को पीसकर
दवाई बनाते थे जो कि बहुत कड़वी होती थी।शादी-विवाह में भी साधारण भोजन बनता था जैसे भात,उडद की गाढी दाल,भुनी मिर्च,घी,अरसा,सब्जी पंडित बनाते थे। भोजन पंक्ति में जूते चप्पल उतारकर खाते थे तथा एक साथ उठते थे। मालू के पत्तों में भोजन परोसा जाता था। लिखने को और है लेकिन फिर कभी- – -।
लेखक- प्रभुपाल सिंह रावत
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