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गढ़वाल में अब भी ऐसे गांव हैं जहाँ गोठ परंपरा जीवित है।

-रिखणीखाल से प्रभूपाल  रावत –

पहाड़ों में तेजी से हो रहे पलायन और जीवनचर्या में बदलाव के बावजूद  गढ़वाल में अब भी ऐसे गांव  हैं जहाँ गोठ परंपरा जीवित है।  रिखणीखाल में भी ऐसा ही  एक गाँव ऐसा  है,जहाँ गोठ रखने की प्रथा परम्परागत विरासत से चल रही । यह गोठ गाव से दूर खेतोँ में होता है।

जनपद गढ़वाल के रिखणीखाल में स्थित ग्राम डबराड एक ऐसा अकेला गाँव है,जहाँ के कुछ ग्रामीण व पशुपालक अपने पालतू मवेशियों ( गाय,बैल,बकरी) को गोठ में बाँधते आ रहे हैं।

ऐसा ही एक वाक्या जानकारी में आया है कि एक ऊँची पहाड़ी पर बसा गाँव डबराड है जहाँ पशुपालक स्थिर गोठ में पशुओं को इस बरसात के मौसम में बाहर रखते हैं जिसे अपनी स्थानीय भाषा में ग्वाड कहते हैं।

अब बताते चलते हैं कि ये चित्र में दर्शित गोठ इसी गाँव के सुरेन्द्रपाल सिंह रावत की है।गोठ में मवेशियों की रखवाली के लिए इनके पिता रात को गोठ में रहते हैं।जो गोबर रात भर का होता है उसे सुबह साफ करके किसी नजदीकी खेत में डालते हैं फिर सूखने के बाद व पुराना होने पर दूरदराज के खेतों में फैलाते हैं।गोठ बनाने के लिए बांस,छैडी,मालू के पत्तों,स्योलू की जरूरत होती है तभी छप्पर ( फडिका) तैयार होता है।आसपास के गांवों में ये गोठ की प्रथा लगभग बन्द होने के कगार पर है।

गोठ में मवेशियों को मच्छर कीड़े मकोडे आदि से बचाव के लिए धुऑ का प्रबंध भी करना होता है। मवेशियों की सुरक्षा व जंगली जानवरों से बचाव के लिए बांस की बनी चाहरदीवारी,जिसे टान्टा कहते हैं, लगानी पड़ती है।जिससे गुलदार,भालू आदि जानवर एकदम धावा न बोल सकें।गोठ आमतौर पर बरसात के सीजन में ही बनाते हैं।अब ये प्रथा भले ही अजीबो-गरीब लगती हो लेकिन इससे पहले बीस पच्चीस साल हर गाँव में सब जगह यही प्रथा थी,जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है।

पहले कहते थे भारत कृषि प्रधान देश है,अब वो बात नहीं रही।मवेशियों को पानी पीने के लिए टैंक भी बना है। ये जो गोठ है ये स्थिर गोठ है।अब खेती बाड़ी विलुप्त होती जा रही है तो गोठ भी अन्तिम सांसे गिन रहा है।

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