उत्तराखंड की नारी के अदम्य साहस, पराक्रम और देशप्रेम की प्रतीक है तीलू रौतेली

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-अनंत आकाश –
इतिहास के पन्नों में जहाँ ‌1857 की बीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का नाम बडे़ ही आदर से लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार उतराखण्ड में बीरांगना तीलू रौतेली का नाम बडे़ ही आदर से लिया जाता है । 8 अगस्त को  तीलू रौतेली की 462 वीं जयन्ती थी। सरकार की ओर से राज्यभर की अनेक क्षेत्र की बीरंगानाओं को सम्मानित किया जा रहा है ।तीलू रौतेला का जन्म जिनका नाम‌ तिलोत्तमा देवी था ।अपनी कम उम्र में ही रणभूमि में कूद चुकी थी तथा अपनी कम उम्र में ही अपने दुश्मनों से सात बार युद्व लड़े तथा 22 बर्ष की उम्र में ही बीरगति प्राप्त की ।

भारत की प्राचीन गौरवशाली गाथा में नारी शक्ति सदैव पूजनीय रही, हमारे प्राचीन ग्रंथों से लेकर महाकाव्यों तक में नारित्व की ही प्रधानता रही है। किन्तु उत्तरोत्तर रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में पुरूषों को प्रधानता से देखा गया किन्तु केन्द्र में महिला ही रही हैं। वर्तमान काल में भी हमारे देश में अहिल्या बाई, रानी दुर्गावती और राणी लक्ष्मीबाई ,सावित्री बाई फूले ,लक्ष्मी सहगल जैसी महान वीर एवं साहसी अनेक नारियों ने विश्वभर में भारत को गौरवान्वित किया ।

मध्यकालीन भारत के उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के चौंदकोट पट्टी के गुराड गांव में पन्द्रह वर्षीय वीरबाला तीलू रौतेली ने अपने अदम्य साहस और वीरता का जो परिचय दिया, उसकी गौरवगाथा विश्व की महान नारियों में से एक‌ है ।

इतिहास गवाह है कि हमारा उत्तराखण्ड सदैव से वीर भड़ों का क्षेत्र रहा है । इसका प्रमाण महाभारत काल से लेकर आज तक कई उदाहरणों एवं प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है । यहां के वीर भड़ों में वीर माधोसिंह भण्डारी, लोदी रिखोला और मालूशाही आदि का नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है । परन्तु एक पंद्रह वर्षीय तरूणी तीलू रौतेली ने साधन विहीन होते हुए भी दुर्गम से दुर्गम पहाडियों में सात वर्ष तक अपने दुश्मनों से युद्व लडा, वह एक ऐतिहासिक एवं प्रेरणादायक प्रसंग है ।

कत्यूरियों का उत्तराखण्ड में आठवीं शताब्दी तक शासन रहा । उसके बाद गढवाल में पवार एवं कुमाऊं में कत्यूरियों के साथ चंद वंश का शासन रहा । धीरे-धीरे कुमांऊ में चंद वंश प्रभावशाली होते रहे और कत्यूरी इधर उधर बिखरने लगे । उन्होंने चारों ओर लूटपाट और उत्पात मचाकर अशांति फैलाना शुरू किया । तीलू रौतेली के समय गढ़वाल एवं कुमाऊँ में छोटे-छोटे राजा, भड़ व सामन्त थोकदारी की प्रथा थी । सीमाओं का क्षेत्रफल राजाओं द्वारा जीते गए भू-भाग से निर्धारित होता था । अस्थिरता इतनी थी कि आज यह भू-भाग इस राजा के अधीन है तो कल किसी और राजा के अधीन। कत्यूरी राजा धामशाही ने गढवाल एवं कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र खैरागढ (कालागढ के पास) में अपना अधिपत्य जमा लिया था। उसे बड़ा  अत्याचारी माना जाता था ।
गढवाल के महाराजा फतेहशाह ने थोकदार(सामन्त ) भूपसिंह गोर्ला को इस क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी थी। जब थोकदार भूपसिंह व उनके दोनों पुत्र भक्तू व पत्या इस रण में दिवंगत हो गए तो, कहते हैं कि भूपसिंह की पन्द्रह वर्षीय पुत्री वीरबाला तीलू ने कमान संभाली और उसने वीरता के साथ युद्ध कर अपने क्षेत्र को दुश्मन से मुक्त किया । तीलू रौतेली ने अपने मामा रामू भण्डारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल व सहेलियां देवकी व बेलू तथा घिमंडू आदि के संग मिलकर एक सेना का गठन किया । इस सेना के सेनापति महाराष्ट्र से छत्रपति शिवाजी के सेनानायक श्री गुरू गौरीनाथ थे । उनके मार्गदर्शन से सेकड़ों युवकों ने  छापामार युद्ध कौशल सीखा । तीलू अपनी सहेलियों देवकी व वेलू के साथ मिलकर दुश्मनों को पराजित करने हेतु निकल पडी । उन्होंने सात वर्ष तक लडते हुए खैरागढ, टकौलीगढ़, इंडियाकोट भौनखाल, उमरागढी, सल्टमहादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफराईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ, भलंगभौण व चौखुटिया सहित तेरह किलों पर विजय पाई । 15 मई 1683 को विजयोल्लास में तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को तट (नयार नदी) पर रखकर नदी में नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया ।
हालांकि तीलू रौतेली पर अनेक पुस्तकें हैं ,नाट्य मंचित एवं गाथाऐं हैं, परन्तु इनकि फिर से व्यापकता कि आवश्यकता महसूस की जा रही है ।

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अनन्त आकाश
9410365899

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