जलियांवाला बाग काण्ड के 104वीं बर्षगांठ पर शहीदों को शत् शत् नमन ।
-अनन्त आकाश
104बर्ष पहले 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने अंग्रेज़ी हुकमरानोंं के क्रूरतम चेहरे को उजागर किया, जब जनरल डायर के नेतृत्व में बैसाखी के दिन हजारों की संख्या में एकत्रित निहत्थी जनता पर गोलीबारी कर उनकी नर संहार किया गया। इतिहास में इसे जलियांवालाबाग नरसंहार के नाम से कुख्यात है ।
बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में रोलेट एक्ट, अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों व दो नेताओं सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। करीब 5,000 लोग जलियाँवाला बाग में इकट्ठे थे। ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी जिसे न होने देने के लिए और कुचलने के लिए वो कुछ भी करने के लिए तैयार थे।
जब नेता बाग़ में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। सैनिकों ने बाग़ को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10 मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियाँवाला बाग़ उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। अमृतशहर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियाँवाला बाग़ में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जबकि अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। इस घटना के प्रतिघात स्वरूप सरदार उधमसिंह ने 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ ड्वायर को गोली चला के मार डाला। उन्हें 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
इस सामुहिक हत्याकांड के बाद अंग्रेजी हुकमरान यहीं नहीं रूके बल्कि बाद को उन्होंने जनता की एकता को तोड़ने के लिये देश में साम्प्रदायिकता को खूब हवा दी । इसके चलते 1924 में कोहाट मे भयानक हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए । इसके बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली और इन्हें खत्म करने की जरुरत महसूस की जा रही थी । काग्रेंसी नेताओं ने हिन्दू और मुस्लिम नेताओं के बीच सुलहनामा लिखा कर दंगों को रूकवाने का प्रयत्न किया । इस समस्या के समाधान के लिये क्रान्तिकाऱी आन्दोलन ने भी योगदान दिया । इस सन्दर्भ में एक लेख 1928 के जून में कीर्ति में छपा तथा भगत सिंह व उनके साथियों के विचारों को आगे प्रस्तुत किया गया। आज राष्ट्र के सन्दर्भ मे भगत सिंह और उनके साथियों के विचार और भी प्रासंगिक हो गए हैं ।
आजादी के काफी बर्षों बाद भी कमोबेश आज हम उसी मुकाम पर आ खड़े हैं ,जहाँ साम्प्रदायिक आधार पर भारी विभाजन तथा पूंजीवाद का नंगा स्वरूप आमजन के सामने है जिसके कारणों से आज हम त्रस्त हैं ,इसलिए हमें साम्प्रदायिकता एवं कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ एकजुटता के संघर्ष करते हुऐ साम्प्रदायिक सौहार्द तथा सभी के लिये प्रगति का रास्ता प्रशस्त करना होगा ,यही आज के दिन जलियांवाला बाग के उन शहीदों के प्रति सच्ची श्रृध्दान्जलि होगी ।इसी आधार पर शहीदे आजम भगतसिंह एवं क्रान्तिकारियों स्वप्न साकार होंगे