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केन्द्रीय बजट दिला सकता है स्केवेंजिंग के नर्क से मुक्ति


– जयसिंह रावत
मौजूदा सरकार का अंतिम पूर्ण बजट होने के कारण वित्त मंत्री सीतारमण ने अपने बजट 2023-24 में समाज के लगभग सभी वर्गों को छूने का प्रयास किया है। खासकर आयकर छूट की सीमा 5 लाख से बढ़ा कर 7 लाख और पुरानी कराधान व्यवस्था के तहत टैक्स स्लैब 6 की जगह 5 करने के साथ ही छूट की सीमा 2.50 लाख सालाना से बढ़ाकर 3 लाख करने से न केवल सरकारी कर्मचारियों बल्कि मध्यम वर्ग ने भी राहत की सांस ली है। लेकिन इस बजट में सामाजिक तौर पर जो महत्वपूर्ण बात नजर आ रही है वह सफाई कर्मचारियों को मैन्वल स्केवेंजिंग से मुक्ति दिलाने के लिये सेप्टिक टैंकों और गन्दी नालियों की सफाई के लिये मशीनीकरण शुरू करने की है। वास्तव में कानूनी प्रावधानों के बावजूद व्यवहारिक कठिनाइयों और दृढ़ इच्छा श्क्ति के अभाव में सिर पर मैला ढोने या दूसरों की गन्दगी को हाथ से साफ करने का कलंक समाज के माथे से साफ नहीं हो रहा है। अब भी हर साल सेकड़ों की संख्या में सफाईकर्मी सीवरलाइनों के अन्दर दम घुटने से जान गंवा रहे हैं। आज भी स्केवेंजिंग का काम अनुसूचित जाति के एक वर्ग के भरोसे चल रहा है।

 

सफाईकर्मियों की जगह मशीनें करेंगी गंदगी साफ

वित्त मंत्री द्वारा पेश केन्द्र सरकार के वार्षिक बजट 2023-24 में संकल्प लिया गया है कि सेप्टिक टैंकों और नालों से मानव द्वारा गाद निकालने का काम पूरी तरह से मशीनयुक्त बनाने के लिये शहरों को तैयार किया जायेगा। जाहिर है कि केन्द्र सरकार इस प्रथा की मुक्ति के लिये नगर निकायों को मशीनें उपलब्ध करायेगी या उसके लिये अगल से बजट देगी। स्वच्छता अभियान के तहत केन्द्र सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौच मुक्ति का अभियान 2014 से चला चुकी है। हालांकि खुले में मुक्ति के लिये अक्टूबर 2019 तक का लक्ष्य रखा गया था जो कि व्यवहार में अभी तक अधूरा है। फिर भी उस मिशन के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों घरों में शौचालय बने हैं। अब इस अभियान को अगर दिलोजान से चलाया गया तो इंसानों की एक बिरादरी को सचमुच दूसरों की गन्दगी साफ करने से कलंक से मुक्ति मिल जायेगी। महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर दोनों ने ही हाथ से मैला ढोने की प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 15, 21, 38 और 42 के प्रावधानों के भी खिलाफ है। आजादी के 7 दशकों बाद भी इस प्रथा का जारी रहना देश के लिये शर्मनाक है और शीघ्रातिशीघ्र इसका अंत होना चाहिये।

सेकड़ों सफाईकर्मी तोड़ते हैं सीवर लाइनों में दम

लातूर महाराष्ट्र के सांसद सुधाकर तुकाराम के एक प्रश्न के उत्तर में लोक सभा में 2 फरबरी 2021 को तत्कालीन सामाजिक अधिकारिता मंत्री थावर चन्द गहलोत का जवाब था कि 31 दिसम्बर 2020 तक उससे पिछले 5 सालों में देशभर में सीवर लाइनें साफ करते हुये 340 सफाइकर्मियों की मौतें हुयीं। इनमें सर्वाधक 52 सफाईकर्मी उत्तर प्रदेश में मारे गये उसके बाद तमिलनाडू की गंदी नालियां जाति विशेष के कर्मियों के लिये मरघट बनीं जहां 43 लोगों ने जानें गंवाई। देश की राजधानी दिल्ली जहां से इस समाजवादी-धर्म निरपेक्ष-लोकतांत्रिक गणराज्य का संचालन होता है, में 36 सफाईकर्मियों ने नारकीय परिस्थितियों में दम तोड़ा। समाजिक अधिकारिता मंत्री का यह भी जवाब था कि देश में अब तक 13 राज्यों में 13,657 मैला ढोने वालों की पहचान की गई है, लेकिन 2011 की जनगणना में परिवारों के आंकड़ों से बड़ी संख्या में गंदे शौचालयों को हटाने को ध्यान में रखते हुए राज्यों से कहा गया है कि वे अपने सर्वेक्षण की दोबारा समीक्षा करें। उसी दौरान 4.97 लाख घरों में मानव मल की सफाई पशुओं द्वारा किये जाने की भी पहचान हुयी। इससे पहले 1992 से लेकर 2005 तक देश में 7.7 लाख सिर पर मैला ढोने वालों की पहचान की गयी थी। उसके बाद 2010 में 1.18 लाख मैनुअल स्कैवेंजरों की पहचान की गयी।

कानून नहीं दिला पाया स्केवेंजिंग से मुक्ति

दरअसल कानून अकेले किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। अगर इस अमानवीय समस्या का समाधान कानून के पास होता तो नब्बे के दशक में समस्या तब समाप्त हो जाती जब पहली बार 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1993 आ गया था। जिसका उद्ेश्य मानव मल-मूत्र को हटाने के लिए सफाई कर्मचारियों के नियोजन को अपराध घोषित कर सफाई कार्य के हाथ से किए जाने का अन्त करने और देश में शुष्क शौचालयों की और वृद्धि पर पाबंदी लगाने के लिए संपूर्ण भारत के लिए एक समान विधान अधिनियमित करना था।
जब इस कानून से काम नहीं चला तो उसके बाद सितम्बर 2013 में संसद द्वारा ‘‘हाथ से मैला साफ करने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013’’ पास किया गया। वह अधिनियम 6 दिसम्बर 2013 से प्रभावी हुआ। इस अधिनियम में अस्वच्छ शौचालयों और मैनुअल स्केवेंजिंग संबंधी उपबंधों का पहली बार उल्लंघन करने पर 1 वर्ष की सजा या 50 हजार का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। दूसरी बार उल्लंघन करने पर 2 वर्ष की सजा और 1 लाख का जुर्माना हो सकता है। तीसरी बारः उल्लंघन करने पर 5 पांच साल की सजा या 5 लाख के जुर्माने या दोनों का प्रावधान है। इस अधिनियम की धारा 22 के अन्तर्गत पाये गये अपराध संज्ञेय एवं गैर जमानती हैं। लेकिन फिर भी समाज के एक खास वर्ग को इससे पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल सकी।

नगर निकायों ने भी कानून का पालन नहीं किया

अब तक कानून तो बनते रहे मगर वे कानून अपने उद्ेश्य की पूर्ति न कर सके। करते भी कैसे? क्योंकि बिना सफाई के नगर नर्क बन जायेंगे। इसलिये 2011 के कानून का उल्लंघन स्वयं नगर निगम और नगरपालिका जैसे नगर निकाय भी नहीं कर रहे थे। इस समस्या का निदान के लिये पहले भी सुझाव आये थे कि सफाई का काम हाथ से या मजदूरों से कराने के बजाय नगर निकाय मशीनों से करायें। उन मशीनों पर कोई भी और और किसी भी जाति का सामान्य कर्मचारी काम कर सकता है। लेकिन नगर निकायों को ऐसी मशीनें नहीं दी गयीं। अब उम्मीद की जा सकती है कि भारत सरकार की मदद से सारे देश के शहरों में मशीनों से ही नालियों, सीवरलाइनों और सेप्टिक टैंकों की सफाई हो सकेगी। मैन्वल स्केवेंजिंग से एक जाति विशेष का उद्धार नहीं हो पा रहा है। संसद में 2021 में स्वयं सरकार ने स्वीकार किया था कि इस पेशे में लगे लोगों में 97.25 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति के थे।

भंगी शब्द तक सरकारी शब्दकोश से नहीं हटा

हमारे दश में यह दौर परोक्ष धार्मिक क्रांति का है। धर्म विशेष पर खतरे का इशारा कर राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किये जा रहे हैं। देश में प्रसिद्ध स्थलों और नगरों का नाम बदलने की होड़ लगी हुयी है। मगर समाज और राजकीय शब्दकोश से ‘‘भंगी’’ ’’चूड़ा’’या ‘‘मेहतर’’ शब्दों का उन्मूलन नहीं हो रहा है। जबकि हरिजन और दलित जैसे शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंघ लग चुका है। ‘‘भंगी’’ ऐसा शब्द है जिसका उपयोग ऊंची जातियों में ‘‘गाली’’ के लिये होता है। हैरानी का विषय यह है कि आज भी लगभग 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से गुजरात, दिल्ली, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, और चण्डीगढ़ की अनुसूचित जातियों की सूची में भंगी, मेहतर या चूरा जातियों का उल्लेख किया गया है। अगर इस जाति के लोगों को आरक्षण या कोई सरकारी लाभ चाहिये तो उसे इन राज्यों में भंगी, मेहतर या चूरा होने का सरकारी प्रमाणपत्र देना होगा।

गांधी और अम्बेडकर मैला ढोने की प्रथा से थे बहुत आहत

महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर दोनों ने ही हाथ से मैला ढोने की प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 15, 21, 38 और 42 के प्रावधानों के भी खिलाफ है। आजादी के 7 दशकों बाद भी इस प्रथा का जारी रहना देश के लिये शर्मनाक है और शीघ्रातिशीघ्र इसका अंत होना चाहिये।

 

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