गैरसैंण जितनी दूरी क्यों बरत रहे अपने? कुछ भी ठीक नहीं चल रहा सत्तारूढ़ भाजपा में

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दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड की राजनीति में इस समय अपने ही अपनों से दूर होते नजर आ रहे हैं। दूर भी इतने कि जितना “नकली” राजधानी देहरादून से गैरसैंण है। खास बात यह कि ये अपने कोई छोटे मोटे नेता नहीं, दो पूर्व मंत्री हैं। आपको सब कुछ याद आ गया होगा। एक तीरथ सिंह रावत और दूसरे त्रिवेंद्र सिंह रावत। निशाने पर स्वाभाविक रूप से सीएम पुष्कर सिंह धामी हैं। अक्सर एक वाक्य यह कहा जाता है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है लेकिन यहां इसे थोड़ा बदलना होगा। सच यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है।
पिछले कुछ घटनाक्रमों को देखें तो यह बात जाहिर भी होती है। भर्ती परीक्षाओं में घपला घोटाला करने वालों के विरुद्ध बेहद कड़ी कार्रवाई की नजीर पेश करने की बात आपने भी सुनी होगी, लेकिन एक एक कर दो दर्जन के करीब आरोपी जमानत पा चुके हैं, बाकी भी जमानत पर छूट जाएं तो आश्चर्य क्यों करना। राजाजी पार्क में उत्तराखंड की बेटी का कत्ल हो गया, आरोपी पकड़े भी गए लेकिन जिस वीआईपी की खातिर अंकिता की जान गई, उसके नाम का खुलासा हिमालय जैसी विराटता वाली पुलिस आज तक नहीं कर पाई और न ही हाकम के हाकिम का पता चल पाया।
खैर यह तो दूसरी बातें हैं। असली राजनीतिक उबाल तो पूर्व सीएम तीरथ सिंह रावत और त्रिवेंद्र रावत के बयानों से आया है। तीरथ सिंह ने बेलाग बोल दिया कि उत्तराखंड में कमीशनखोरी है तो सिस्टम के कान खड़े होने स्वाभाविक थे लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। दूसरे पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत ने स्मार्ट सिटी के कामकाज में भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर चाय के प्याले में तूफान ला दिया। अब एक अंगुली सीएम की ओर उठी तो तीन अंगुलियों का इन नेताओं की ओर उठना भी लाजिमी था। सवाल पूछा जा रहा है कि “जीरो टॉलरेंस” का जुमला तो आपने ही उछाला था हजूर! आपके सत्तासीन होते ही एनएच का घोटाला सामने आया था। याद आपको भी होगा, जिन अफसरों को तब दोषी माना जा रहा था, आपके रहते ही वे शासन सत्ता के नवरत्नों में गिने जाने लगे थे। उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। घोटाले का लाभार्थी कौन था, ये भी सामने नहीं आया। सीबीआई से जांच की बात भी आपने की, और फिर अधिकारियों के मनोबल के कमजोर होने की आशंका में आप ही पीछे हट गए तो आज भ्रष्टाचार की बात कहने का नैतिक अधिकार फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।
हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि पूर्व सीएम तीरथ सिंह रावत को एक तो काम करने का मौका नहीं मिला। जुम्मा जुम्मा 115 दिन होते ही क्या हैं? इतने दिन में राजकाज तो समझने में ही लग जाते हैं। ऊपर से तब कोरोना की मार चल रही थी। हमने खुद पूर्व सीएम को पीपीई किट पहन कर अस्पतालों में जाते देखा है। कुंभ का आयोजन अलग से था। इस दृष्टि से देखा जाए तो उन्हें बरी किया जा सकता है लेकिन पूरे चार साल तक सत्तासुख भोगने वाले नेता अगर भ्रष्टाचार बढ़ने की बात करें तो उनसे यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि तब मौन क्यों साधे थे हजूर?
बहरहाल अपनी राजनीतिक स्थिति सिद्ध करने से लोकतंत्र में कोई रोक टोक नहीं होती। यही वजह है कि सत्तरूढ दल में ही अपने अपनों से ही दूर होते नजर आ रहे हैं। दूरी भी इतनी कि शायद ही कभी खत्म हो सके। ठीक उतनी ही दूरी है जितनी दून से देहरादून के बीच की है और जोड़ने वाली सड़क इस “आपदा” में ध्वस्त हो गई है। यानी पहाड़ भी पहले से कुछ ज्यादा ऊंचे दिखने लगे हैं। ऐसे में विपक्ष में बैठे लोग चटकारे ले रहे हैं तो यह मौका भी अपनों ने ही तो दिया है न! खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की अगर यह जरूरत भर है तो भी घर की फूट तो उजागर हो ही गई है। पहाड़ में एक कहावत है – गौं पड़ी फूट, मुल्क मची लूट। अब घर की फूट का विपक्ष फायदा उठाए तो दोष जनता को मत देना कि 2024 में क्या प्रतिफल मिला। हालांकि उससे पहले भी एक और परीक्षा सामने आने वाली है, उसका सामना कुंद हुए तीरों से तो नहीं कर सकते।
कहना न होगा कि बैठे बिठाए विपक्ष का काम आसान करने का यह उपक्रम प्रदेश के हित में तो नहीं होता। नौकरशाही एक ऐसा चतुर घोड़ा मानी जाती है जो घुड़सवार के “वजन” को आंक कर ही आगे बढ़ता है। जब घर में ही विरोध के स्वर मुखर होते हैं तो घुड़सवार के आदेशों की अवहेलना का मंजर नजर आने लगता है, तब आप समीक्षा बैठकों में अफसरों को कितना ही फटकार लगा दें, विकास की गति मंद ही होती है और नुकसान राजनेताओं का नहीं, सिर्फ और सिर्फ जनता का होता है। विकास कार्यों में देरी से लागत बढ़ती है और कीमत जनता चुकाती है। लिहाजा जो जनादेश आपको दिया, उसकी अवहेलना होती है।
लगे हाथ बिन मांगे एक सलाह तो यह है कि घर में संवादहीनता की स्थिति खत्म कर जनादेश का सम्मान कीजिए, गैरसैंण की ठंड का सामना करने की हिम्मत दिखाइए और देहरादून का मोह छोड़ कर दूरी को पाटेंगे तो शायद एक बार फिर लोग भरोसा करने लगें वरना देहरादून से दिल्ली तक एक दूसरे की शिकायत करने या सफाई देने में वक्त गुजारा तो लोग माफ़ नहीं करेंगे। कम से कम अंतरिम सरकार की तरह का हाल तो सामने नहीं आना चाहिए। आज दो पूर्व सीएम बिदके हुए दिख रहे हैं, कल अगर विधायक बिदकते हुए नजर आए तो क्या होगा, इस बात की चिंता तो होनी ही चाहिए। वैसे भैंस के आगे बीन बजाने का शौक हमें भी नहीं है। हमारी सद्भावना तो प्रदेश के विकास को लेकर है। अगर जनता का मान रखना हो तो इसके अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं है। रिश्तों में जमीं बर्फ को पिघलाने की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं की है। अभी भी वक्त है दून से गैरसैंण की दूरी घटाएंगे तो हिमालय आशीष देगा, वरना अपनी मर्जी से आपको रोक भी कौन सकता है।
आखिरी बात यह कि न्याय की बात करना अपनी जगह है, लोगों की अपेक्षा न्याय होते देखने की होती है और इसीलिए वे पांच साल के लिए गद्दी सौंपते हैं। माना जाता है कि किसी भी सरकार का पहला साल हनीमून पीरियड होता है। उस दौरान चुनाव पूर्व दिखाए गए सपनों को साकार करने का खाका खींचा जाता है लेकिन यह सब होते नहीं दिख रहा है, उल्टे नेताओं का अपनों पर ही आक्षेप का दौर जनता की अपेक्षाओं को धूल धूसरित करता है और वह अपना रास्ता खुद बनाती है। देखना यह है कि दून से गैरसैंण जितनी दूरी यथावत रहती है या ध्वस्त हुई सड़क एक बार फिर से बन कर जोड़ती है?

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