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जीएमवीएन को पीपीपी मोड के लिए प्रयोगशाला बनाने पर क्यों तुली सरकार?

-दिनेश शास्त्री-

अर्से बाद पटरी पर लौट गढ़वाल मंडल विकास निगम के कर्मचारियों को एक बार फिर आंदोलन की राह पर धकेलने की तैयारी हो गई है। कारण यह है कि सरकार निजीकरण की दिशा में पहला कदम उठाने जा रही है, यह कदम है निगम के करीब बीस बंगलों को पीपीपी मोड में देने का। इससे निगम के कार्मिकों को एक तरह से यह संदेश दिया जा रहा है कि वे प्रोफेशनल नहीं हैं, बोलचाल की भाषा में कहें तो सक्षम नहीं हैं कि महत्वपूर्ण बंगलों का संचालन कर सकें, मानो आज तक केवल खानापूर्ति की जा रही थी और अब सरकार इन्हें चलाना चाहती है। कम से कम सरकार की मंशा से तो यही झलकता है जबकि यही निगम कार्मिक कठिन परिश्रम कर इन बंगलों से निगम का खजाना भरते आ रहे हैं। ताजा खबर यह है कि सरकार में बैठे कुछ नवाचारी अफसरों ने मन बना लिया है कि जीएमवीएन की बेशकीमती संपत्तियों को पीपीपी मोड में देने को आतुर हैं, यह हाल तब है जबकि कोरोना काल के बाद सब कुछ ठीक चल रहा है लेकिन अफसरों को कुछ नया करके दिखाना है, इसलिए जीएमवीएन को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है, गनीमत यह है कि केएमवीएन यानी कुमाऊं मंडल विकास निगम पर अभी नवाचारी अफसरों की नजर नहीं गई है। वैसे बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? देर सवेर केएमवीएन में भी यही प्रयोग किया जाना है, आज जीएमवीएन  की बारी है कल केएमवीएन का नंबर भी जरूर आएगा।
जीएमवीएन के नियंता अफसरों के क्रियाकलापों पर एक नजर डालना उचित होगा, मुनि की रेती स्थित वुडवुल फैक्ट्री को शट डाउन करने का ताना बाना बुन लिया गया है, जबकि वर्तमान में इस फैक्ट्री के पास एक करोड़ से अधिक के ऑर्डर हैं। मैनेजमेंट को दुरुस्त करने के बजाय ताला ठोकने की मंशा समझ से परे है। वैसे निगम का इस मामले में रिकॉर्ड बेहद खराब है। कोटद्वार की फ्लस डोर फैक्ट्री पर ताला लगाने की याद बहुत कम लोगों को होगी। यही नहीं भगीरथी मिनरल याद है आपको? और तो और तिलवाड़ा की लीसा फैक्ट्री का क्या हाल हुआ जबकि शुरुआती दौर में ये सभी उपक्रम जीएमवीएन के रत्न माने जा रहे थे, किंतु कुप्रबंधन के कारण एक के बाद एक उद्यम बंद कर ठीकरा कर्मचारियों के सिर फोड़ दिया गया। कुप्रबंधन के जिम्मेदार हाकिमों का कहीं जिक्र तक नहीं हुआ। यानी यह एक चरित्र सा हो गया है।
उत्तराखंड आने वाले पर्यटकों के मन में जीएमवीएन के प्रति कितना सम्मान है? यह जानना और समझना हो तो प्रसिद्ध ट्रैकर स्वराज यादव की पुस्तक पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है जो जीएमवीएन को उत्तराखंड में साहसिक पर्यटन के लिए सर्वाधिक भरोसेमंद उपक्रम मानती हैं। अकेली महिला जब जीएमवीएन से आत्मीयता पाती है तो अभिभूत हो जाती है। यह एक उदाहरण भर है। कम से कम बंगलों को पीपीपी मोड में देने पर आमादा अफसर उस किताब को ही पढ़ लेते।
अब बात करें प्रतिरोध के स्वरों की। जीएमवीएन कर्मचारी संघ के नेता मनमोहन चौधरी तथा
केएमवीएन कर्मचारी संघ और उत्तराखंड निगम कर्मचारी महासंघ के प्रमुख दिनेश गुरुरानी ने दो टूक कहा है कि निजीकरण की शुरुआत के इस कदम का डटकर विरोध किया जायेगा। वे मानते हैं कि कर्मचारी वर्ग ने बड़ी मेहनत से इन बंगलों का संचालन किया है, अब जबकि सब कुछ ठीक चल रहा है तो कमाऊ बंगलों को पीपीपी मोड में देने का कोई औचित्य नहीं है। श्री गुरुरानी कहते हैं कि दोनों निगमों ने उत्तराखंड की आतिथ्य की समुन्नत परंपरा का निर्वाह करते हुए इन निगमों की प्रतिष्ठा को स्थापित किया है, इसे भंग करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। उन्होंने कहा कि पीपीपी मोड का मंसूबा पालने वालों को अपने आत्मघाती कदम पर पुनर्विचार करना चाहिए।
इधर जीएमवीएन के कर्मचारी भी सरकार के मंसूबे की भनक पाने के बाद आगबबूला हैं। बीती 22 सितम्बर को ऋषिकेश में गढ़वाल मंडल विकास निगम कर्मचारी संघ ने मनमोहन चौधरी की अध्यक्षता में आपात बैठक कर सरकार के इरादे को घातक बताते हुए पुरजोर विरोध करने का निर्णय लिया। इसी बैठक में एक अन्य बिंदु पर श्यामसिंह पंवार ने जीएमवीएन तथा केएमवीएन के एकीकरण के संबंध में कहा कि 1976 में ये दो निगम बनाए गए थे। यदि इनका एकीकरण किया जाना है तो इन्हें उत्तराखण्ड पर्यटन विकास परिषद में समायोजित किया जाए। जीएमवीएन कर्मचारी संघ के महासचिव बी.एम. जुयाल ने निगम की परिसम्पतियों को खुर्द बुर्द करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। इसका पुरजोर विरोध किया जायेगा। वे सवाल करते हैं कि पहले यह बताया जाए कि यदि निगम के 20 पर्यटक आवास गृहों को पीपीपी मोड में दिया जाता है तो उन कर्मचारियों को कहां समायोजित किया जायेगा?  मनमोहन चौधरी ने कहा कि शीघ्र ही उनका प्रतिनिधिमंडल इस बाबत आला अफसरों से मुलाकात कर अपनी बात रखेगा। ताकि निगम की परिसंपत्तियों को बचाया जा सके। प्रचार मंत्री रणवीर रावत ने कहा कि वुडवुल फैक्ट्री को बंद करने के बजाय वहां की खामियों को दूर किया जाए। उन्होंने चेताया कि प्रबंधन यह ध्यान रखे कि कर्मचारियों को आंदोलन के लिए विवश न किया जाए।
अब बात करें पीपीपी मोड में प्रस्तावित परिसंपत्तियों की। इनमें फिलहाल जीएमवीएन की प्रतिष्ठा की धुरी कहलाने वाले द्रोण होटल को मुख्य बताया जा रहा है। इसके अलावा केदारनाथ, बदरीनाथ, पीपलकोटी, ऋषिकेश सहित वे सभी बंगले हैं जो निगम के कमाऊ  संसाधन हैं। बताया जा रहा है कि यह प्रस्ताव उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद का है। जीएमवीएन के एमडी बंशीधर तिवारी के मुताबिक उन्हें तो लिस्ट देनी है, वह दे दी जाएगी। यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि पूर्व एमडी स्वाति भदौरिया ने निगम की उन्नति के लिए बड़ा प्लान तैयार किया था, किंतु उनके खाते में कोई उपलब्धि न जुड़ जाए, इसलिए उन्हें निगम से चलता कर दिया गया। विडंबना यह है कि सरकार के स्तर पर भी निगम के उत्थान के मामले में कभी गंभीरता नहीं दिखाई गई। इसी एक अफसर को ठोक बजा कर तीन साल का टास्क देकर तैनात किया जाए तो कोई वजह नहीं जो देश के तमाम निगमों में जीएमवीएन और केएमवीएन सबसे आगे दिखें, क्योंकि इन दिनों निगमों के पास न सिर्फ एक्सपर्टाइज है बल्कि भगवान का दिया वह सब कुछ है जो पर्यटन के सर्वांगीण विकास का पैमाना है किंतु लाख टके का सवाल यह है कि सत्ता या शासन में बैठे लोगों में से ऐसा चाहता कौन है? किसको इतनी फिक्र है कि उत्तराखंड के पर्यटन की पहचान बने ये दो निगम आगे बढ़ें, अगर ये मंशा नहीं है तो बार बार इन्हें प्रयोगशाला क्यों बनाया जा रहा है। अगर यह सिर्फ “शौक” के लिए किया जा रहा है तो दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा।

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