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“बाणभट्ट की आत्मकथा”-मार्फत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी –

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा

कहानी से कहानी जुड़ती हैं, यह सत्य है I मैं अपनी पुस्तकों पर खरीद की तारीख दर्ज करना नहीं भूलता, ,इसके साथ मेरी भी एक कहानी जुड़ी होती है किन्तु फिलहाल इतना कहना पर्याप्त है कि यह किताब मैंने २४ नवम्बर १९८४ के दिन खरीदी थी उस दिन ट्रेन में सफर करते समय मेरा झोला गायब हो गया था I अपने गंतव्य स्टेशन पहुँचने से कुछ ही देर पहले मुझे टॉयलेट जाना पड़ा , यह किताब और झोला ही मैं अपनी सीट पर छोड गया था तभी स्टेशन आ गया -जब मैं अपनी सीट पर आया तो मेरा झोला गायब था लेकिन यह किताब सीट पर बची रह गई थी………।

इस पुस्तक में बाणभट्ट की आत्मकथा की प्रस्तावना ऐसे शुरु होती है-
“जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता
दशास्यचूड़ामणिचक्रचुम्बिन
:सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो
भवच्छिदस्त्रयम्बकपादपांसव:।।”
यद्यपि बाणभट्ट नाम से ही मेरी प्रसिद्धि है;पर यह मेरा वास्तविक नाम नहीं है।इस नाम का इतिहास लोग न जानते,तो अच्छा था।

मैंने प्रयत्नपूर्वक इस इतिहास से अनभिज्ञ रखना चाहा है;पर नाना कारणों से अब मैं इस इतिहास को अधिक नहीं छिपा सकता।मेरी लज्जा का प्रधान कारण यह है कि मेरा जन्म जिस प्रख्यात वात्सायन वंश में हुआ है ;उसके धवल कीर्ति तट पर यह कहानी एक कलंक है। मेरे पितृ-पितामहो के गृह वैद वेदाध्यायियों से भरे रहते थे। उनके घर की शुक सारिकाएं भी विशुद्ध मंत्रोच्चारण कर लेती थी,और यद्यपि लोगों को यह बात अतिशयोक्ति जंचेगी परन्तु यह सत्य है कि मेरे पूर्वजों के विद्यार्थी उन शुक सारिकाओं से डरते रहते थे। वे पद पद पर उनके अशुद्ध पाठों को सुधार दिया करती थी।”
………बाणभट्ट अपने समय में इतने पॉपुलर गद्य लेखक हुए कि उनकी चर्चा किए बिना सारी साहित्यिक चर्चाए अधूरी मानी जाती थी, शायद इसलिए उनके बारे में यह उक्ति चल पड़ी कि “बाणोच्छिष्टं जगत सर्वम्।” (इस दुनियां में साहित्य नाम से जो कुछ दिखाई देता है उसे बाण की जूठन समझिए)—

इस ऐतिहासिक उपन्यास की शुरुआत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भी उसी पद लालित्य के साथ की है, मानों बाणभट्ट स्वयं यह कथा लिख रहे हों I
मुझे याद है इंटरमीडिएट की पढ़ाई करते समय हमारे पाठ्यक्रम में बाणभट के उपन्यास कादंबरी का एक चैप्टर “शुकनासोपदेश ” था I
इसमें वर्णन है कि युवराज चन्द्रापीड को उसके एक वयोवृद्ध मंत्री शुकनास थे, जो राज परिवार के हितैषी थे और बड़े नीतिज्ञ थे I राजकुमार चन्द्रापीड के राज्याभिषेक के पहले दिन शुकनास ने राजकुमार को शासन चलाने के बारे में अपने कुछ अनुभव शेयर किये। उन्होंने एक पारिवारिक शुभचिंतक की हैसियत से राजकुमार को उन दुर्गुणों से सावधान किया जो प्रायः राज्यसत्ता प्राप्त होने के बाद अक्सर युवा राजाओं में देखे गए हैंI मंत्री शुकनास का यह उपदेश विद्यापीठों में दिया जाने वाला एक दीक्षांत भाषण जैसा लगता है- “यौवनारम्भे प्रायः शास्त्रजलप्रक्षालननिर्मलापि कालुष्यमुपयाति बुद्धिः ।

— शुकनास ने कहा – अक्सर यह देखा गया है कि राज्याभिषेक के दिन जब राजा का जलाभिषेक किया जाता है तो, उस जल के साथ ही उसके शरीर में विद्यमान सारी उदारता और विनयशीलता तथा अन्य सारे सद्गुण धुलकर साफ़ हो जाते हैं और बचा रह जाता है केवल एक निष्ठुर शरीर जो राज्य सिंहासन पर विराजमान हो जाता है —GPB

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