पुस्तक समीक्षा : “मुंडो का चौंरा अर ल्वे का घट” (गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध)
-दिनेश शास्त्री-
पुराणों में वर्णित केदारखण्ड जिसे आज गढ़वाल नाम से जाना जाता है, पराक्रम, पुरुषार्थ, शौर्य और बलिदान की धरती रही है। देश – विदेश के विभिन्न भागों से यहां आए पूर्वज बीहड़ पर्वतों को काट कर इन्हें खेती योग्य बनाने वाले कम पुरुषार्थी नहीं रहे होंगे। पहाड़ों को काट कर उपजाऊ खेत बनाने वाले पूर्वज कितने कर्मठ रहे होंगे, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जब पुरुषार्थ से कुछ अर्जन अथवा संचय हो जाता है तो उसकी रक्षा भी अपरिहार्य हो जाती है। उस क्रम में भी पूर्वजों ने अथक पुरुषार्थ किया। संपति की सुरक्षा और स्वाभिमान की रक्षा किसी भी जीवंत समाज की पहचान होती है और उसके लिए यहां के रणबांकुरों ने खूब बलिदान भी दिए।
संहिता के रूप में न सही लेकिन विभिन्न स्रोतों से पूर्वजों के शौर्य और पराक्रम का विवरण हमें यत्र – तत्र बिखरा मिलता है। सच यह भी है कि यहां जितने भी वीर योद्धा हुए उनसे कहीं अधिक गुमनामी के अंधेरे में खो गए। इनमें कुछ नाम लोगों की जुबान पर हैं, जैसे लोदी रिखोला। इन्हें गढ़वाल का भीम भी कहा जाता था। लोदी रिखोला इतने शक्तिशाली थे कि नजीबाबाद के किले के मुख्य द्वार को उखाड़कर स्वयं रिखणीख़ाल उठाकर ले आये थे। एक और बड़ा नाम आता है पन्थ्या काला का। पन्थ्या काला ने तत्कालीन गढ़वाल नरेश के काले कानून का निरंतर तीव्र विरोध कर सत्याग्रह करते हुए अंत में आत्मदाह कर लिया था लेकिन आत्मोत्सर्ग की उस घटना से काला कानून समाप्त हुआ। इसी तरह माधो सिंह भंडारी बड़े शूरमा थे। उन्होंने न सिर्फ तिब्बत विजय की, बल्कि मलेथा जैसी शुष्क भूमि के लिए पहाड़ काट कर एक नहर बना दी जिसके लिए उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र की बलि दे दी थी। इसी तरह वीरता में यहां की नारियां भी पीछे नहीं रही, इनमें तीलू रौतेली का नाम हर कोई जानता है। मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाली (गढ़वाल की लक्ष्मीबाई) वीरांगना तीलू रौतेली ने गढ़वाल की पूर्वी सीमा पर अत्याचारी कत्यूरों से निरंतर सात वर्षों तक जूझते हुए त्रस्त सीमान्त जनता को राहत की सांस दिलाई और अंततः वीरगति को प्राप्त हुई।
आधुनिक काल में दरबान सिंह नेगी तथा गबर सिंह नेगी ब्रिटिश राज्य में शौर्य पुंज के रूप में उभरे। दरबान सिंह नेगी तथा गबर सिंह नेगी ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फ़्रांस और जर्मनी में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए और शौर्य के लिए तत्कालीन सर्वोच्च पदक “विक्टोरिया क्रॉस” प्राप्त कर गढ़वाल का नाम रोशन किया।
इसी तरह तोता राम थपलियाल ने विश्व युद्ध के दौरान एक विशेष गढ़वाली पलटन खड़ी की और उसका नेतृत्व कर अपूर्व साहस व शौर्य का परिचय देकर सम्मान खडग (स्वोर्ड ऑफ़ ऑनर) प्राप्त किया। इसी कड़ी में नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली
अंग्रेजी शासन काल में पेशावर कांड के नायक बन कर उभरे। गढ़वाली ने अपने ही भारतीयों पर गोली न चलाने की हुक्म उदूली करके भारतीय सेना में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में शानदार पहल की। श्रीदेव सुमन का नाम कौन नहीं जानता? शहीद श्रीदेव सुमन ने अपने अंचल को तत्कालीन राजतन्त्र से मुक्ति दिलाने के लिए अमानवीय यातनाएं झेलते हुए अपना बलिदान दे दिया। उनसे बहुत पहले वीर पुरिया नैथानी को गढ़ चाणक्य के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने सुन्नी मुसलमान शहंशाहे -हिंद औरंगजेब के दरबार में जाकर निर्भयता से अरबी -फारसी में वार्तालाप कर अपने वाक् चातुर्य से गढ़वाल राज्य को जजिया कर से मुक्ति दिलाई और सय्यद मुस्लमान से कोटद्वार भाबर के इलाके को मुक्त करवाया और इस्लामी सेना द्वारा गढ़वाल के मंदिरों को तोड़ने से रुकवाया।
स्वतंत्र भारत में जसवंत सिंह ने सन 1962 के भारत – चीन युद्ध में अकेले दम पर 300 चीनी सैनिकों को मौत की नींद सुलाकर भारत माँ की रक्षा करते हुए खुद भी अरुणाचल की तवांग घाटीे में बलिदान दे दिया। ऐसे गढ़ गौरवों के महान कार्य आम जनता के बीच केवल पवाड़ों, चौफलौं, थडिया गीतों तथा जागरों तक ही सीमित रहे हैं। इन गौरव गाथाओं को न तो स्कूली पुस्तकों में जगह मिली न इस दिशा में सोचा ही गया। यह तो अंगुलियों पर गिनने जैसे कुछेक नाम हैं। अतीत से लेकर आज तक अनेक ज्ञात – अज्ञात वीर, भड़ों ने गौरव गाथाएं लिखी, तभी तो “मुंडो का चौंरा अर ल्वे का घट” का मुहावरा अस्तित्व में आया होगा। बहुत संभव है तिब्बत के युद्धों को छोड़ दें तो यहां के वीरों के शौर्य की गाथाएं शेष भारत तक नहीं पहुंची, उन्हें पहुंचाया तो प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले गढ़वाली वीरों ने, 1930 के चर्चित पेशावर काण्ड के नायक चंद्रसिंह गढ़वाली ने, जसवंत सिंह ने और उसके बाद से आज तक कारगिल युद्ध और प्रथम सीडीएस बिपिन रावत जैसे तमाम वीरों ने।
लोक में लम्बे समय से प्रथम विश्व युद्ध की अनुगूंज के रूप में एक गीत चर्चित रहा – ” सात समोदर पार च जाण ब्वे, जाज म जौलू कि ना”। वैसे तो कई लोकगायकों ने अपने सुर में इस गीत को ढाला लेकिन लोक के चितेरे नरेंद्र सिंह नेगी ने जब इसे स्वर दिया तो अमूल्य धरोहर बन गया। उनके कंठ से गीत कर्णप्रिय तो लगा ही, इतिहास बोध कराने वाला भी सिद्ध हुआ।पिछली पीढ़ी के लगभग सभी लोगों ने इस गीत को सुना और गुना होगा लेकिन प्रख्यात शिक्षाविद, चिंतक और लेखक देवेश जोशी को यह गीत ज्यादा अपील कर गया और उन्होंने इसमें निहित जर्मन – फ्रांस शब्दों को बीज रूप में पकड़ कर शोध शुरू किया तो पूरे छह साल बाद एक महत्वपूर्ण दस्तावेज सामने आ गया – “गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध” शीर्षक पुस्तक के रूप में। आज यह पुस्तक चर्चा का विषय बनी है तो इसकी विषयवस्तु के कारण। लोक में प्रचलित गीत अगर ऐसे चिंतक को अपील न करता तो हमारा समाज इस अप्रतिम शौर्य को जानने समझने से ही वंचित रह जाता।
निसंदेह देवेश जोशी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य कर इस दस्तावेज को आकार प्रदान किया है। गढ़वाल राइफल में भर्ती होने वाले युवकों को बेशक उन शौर्यगाथाओं की जानकारी हो लेकिन जनसामान्य के लिए यह सुलभ न था किंतु देवेश जोशी ने अपनी माटी और थाती के प्रति संवेदनशीलता समाज को बहुत बड़ी सौगात दी है।
कहना न होगा कि गढ़वाल के वीर भड़ों की गाथाओं को यहां के जटिल भूगोल की वजह से शायद राष्ट्र की मुख्यधारा में जगह न मिल पाई हो लेकिन यह निर्विवाद है कि गढ़वाल राइफल की वजह से देश दुनिया ने इस धरती के रणबांकुरों के शौर्य को समझा। खासकर अंग्रेजों ने गढ़वाली जवानों की बहादुरी को शिद्दत से महसूस किया।
गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध में देवेश जोशी ने गढ़वाली वीरों के शौर्य का सिलसिलेवार ब्यौरा प्रस्तुत किया है और एक पुस्तक से अधिक यह रिफरेंस बुक बन गई है जो न सिर्फ पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है।
पुस्तक आम पाठकों के साथ इतिहास और सैन्य विज्ञान के छात्रों के लिए भी ज्यादा उपयोगी होगी, यह इसकी विषयवस्तु से स्पष्ट होता है।
पुस्तक को देवेश जोशी जी ने 40 अध्यायों में लिखा है। गढ़वाल की शौर्य परम्परा अध्याय में वे यहां की माटी की विशेषता बताते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के कारण, प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख लड़ाइयों, ट्रेंच वार फेयर, तत्कालीन गढ़वाल की परिस्थितियां, गढ़वाली जवानों की बहादुरी के प्रति अंग्रेज अफसरों का नजरिया, गढ़वाली जवानों का युद्ध के लिए प्रस्थान, फ्लेंडर्स के ऑपरेशन, फेस्टुबर का युद्ध, नोव शेपल का युद्ध, ऑबर्स का युद्ध, बैटल ऑफ लूस, मिस्र का युद्ध, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बचे सैनिकों की घर वापसी, दूसरे चरण में मेसोपोटामिया का रण, खान बगदादी, सलोनिका और गैलीपोली में तैनाती, टर्की के मोर्चे पर युद्ध कौशल, पहली बटालियन का कुर्दिस्तान में मोर्चा, शरकत में तैनाती, तृतीय अफगान युद्ध, वजीरिस्तान और स्पिन घारा रिज, अहने टंगी और रियरगार्ड एक्शन जैसे दुरूह स्थानों पर युद्ध के बारे में प्रामाणिक और क्रमबद्ध जानकारी का यह अभी तक एकमात्र समग्र दस्तावेज माना जा सकता है। इन युद्धों में कितने सैनिक हताहत हुए, कितने बच कर घर लौटे और कितने अपने अदम्य साहस के लिए सम्मानित हुए, उन सबका विवरण बहुत बारीकी से जुटाया गया है।
सूबेदार दरबान सिंह नेगी वीसी, राइफलमैन गबर सिंह नेगी वीसी, सु. मेजर धूम सिंह चौहान, ले. कर्नल नत्थू सिंह सजवाण के रणकौशल और उपलब्धियों को भी पुस्तक में समाहित किया गया है। वैसे भी इन महान व्यक्तित्वों के बिना पुस्तक अधूरी ही रहती।
प्रथम विश्वयुद्ध में टिहरी रियासत का योगदान, कुमाऊं का प्रतिभाग, गढ़वाल राइफल के करिश्माई कमांडर, शौर्यगाथा के आधार स्तंभ यानी सम्मानित सैनिक, सूबेदार तोताराम थपलियाल जैसे कुछ प्रमुख व्यक्तित्व हैं, जिन पर पुस्तक में विशद सामग्री दी गई है। अगले अध्याय में वही बीज मंत्र के रूप में विश्वयुद्ध के अनुभवों से उपजे गढ़वाली गीत अलग अध्याय में रखे गए हैं। इस अध्याय में कुल 14 गीत हैं, जो उस कालखंड का न सिर्फ बोध कराते हैं बल्कि हमारी लोक समाज की तत्कालीन परिस्थितियों से भी अवगत कराते हैं।
युद्ध के दौरान गढ़वाली सैनिक अपने परिजनों, मित्रों को जो पत्र लिखे होंगे, उनका संकलन भी पुस्तक में दिया गया है। सेना से आने वाले पत्र सेंसर होते थे, उसके लिए अंग्रेजों ने अनुवादक रखे होंगे और फिर उन्हें भेजने लायक समझ कर ही डाक में जाने दिया होगा, उसके बाद भी मोर्चे पर तैनात सैनिकों ने युद्ध का वर्णन अपने पत्रों में किया है। जोशी जी ने ऐसे कुल नौ पत्रों को जगह दी है। अगले अध्याय में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रिसमस पर युद्धविराम के अवसर का विवरण है। उसके बाद युद्धबंदियों का उल्लेख किया गया है। ठीक एक शताब्दी बाद प्रथम विश्वयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए गढ़वाली सैनिकों के फ्रांस के लेवंटी में अंतिम संस्कार का उल्लेख गौरव का अलग पन्ना है। फ्रांस में बना भारतीय सेना का स्मारक, इंडिया गेट दिल्ली, लैंसडौन का वार मेमोरियल, चंबा का स्मारक का विवरण दिया गया है।
चंद्रसिंह गढ़वाली के पेशावर काण्ड पर एक अलग से अध्याय लिखा गया है। हालांकि इस घटना का प्रथम विश्वयुद्ध से कोई संबंध नहीं है किंतु चंद्रसिंह गढ़वाली ने प्रतिकार के स्वर बुलंद किए, इसलिए उन पर अलग से सामग्री है। पुस्तक के परिशिष्ट में बहुत महत्वपूर्ण सामग्री दी गई है। इसमें मृतक सैनिकों की संख्या के साथ विभिन्न मोर्चों पर अद्भुत रण कौशल और बहादुरी के लिए सम्मानित होने वाले सैनिकों की सूची भी दी गई है। कुलमिलाकर देवेश जोशी ने गढ़वाल की अद्वितीय शौर्य परम्परा को प्रथम विश्वयुद्ध के संदर्भ में दूरदृष्टि के साथ दस्तावेज अपने समाज को सौंपा है। इसके लिए वह साधुवाद के पात्र तो हैं ही, जिज्ञासु पाठकों के लिए भी उन्होंने एक तरह से उपहार भेंट किया है। वरना यह शौर्यगाथाएं मात्र अभिलेखागार की वस्तु बन कर रह जाती।
गढ़वाली समाज के लिए उनका यह योगदान तारीफ के काबिल तो है ही। खास बात यह है कि एक अदद लोकगीत की सार्थकता यही है कि किसी विचारक को पूरा ग्रन्थ लिखने के लिए विवश कर दे और “सात समोदर पार च जाण ब्वे, जाज म जौलू कि ना” गीत के बहाने “मुंडो का चौंरा अर ल्वे का घट” का एक पूरा चलचित्र हमारे सामने गुजर जाता है।
पुस्तक – गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध
प्रकाशक – विनसर पब्लिशिंग कंपनी, देहरादून
मूल्य – 395 रुपए।
पुस्तक अमेजन पर भी उपलब्ध।