ब्लॉगराजनीति

आजादी से पहले भी भारत में आम चुनाव होते थे मगर…


-जयसिंह रावत
भारत की धरती पर इन संस्थाओं के क्रमिक विकास का इतिहास ईसा से हजारों साल पहले से मौजूद है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सभा (सामान्य सभा) और समिति (बुजुर्गों का घर) का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा, ऐतरेय ब्राह्मण, पाणिनि की अष्टाध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, महाभारत, अशोक स्तंभ शिलालेख, बौद्ध और जैन ग्रंथ और अन्य ग्रंथों के अलावा हमारे इतिहास में उत्तर-वैदिक काल के दौरान कई गणराज्यों के अस्तित्व प्रमाण मौजूद हैं। लेकिन जहां तक हमारी आधुनिक संसदीय शासन प्रणाली और विधायी संस्थाओं का उद्भव तथा विकास का सवाल है तो इसे ब्रिटिश राज की विरासत जरूर माना जायेगा। भारत में 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत के शासन की बागडोर अपने हाथ में लिये जाने के बाद शुरू हुये प्रशासनिक सुधारों के साथ चुनावों की शुरुआत हो गयी थी। लेकिन उस दौर के चुनावों में आज की तरह प्रत्येक वयस्क भारतीय नागरिक को मताधिकार न हो कर केवल ग्रेजुएट करदाता को ही यह अधिकार था।

भारत में 132 साल पहले हुयी चुनावों की शुरुआत

सबसे शुरुआती चुनावों में से एक 1892 का चुनाव था, जिसने भारत में प्रतिनिधि सरकार की शुरुआत को चिह्नित किया। 1909 और 1921 के चुनाव भी महत्वपूर्ण थे, क्योंकि वे शासन में भारतीयों की भागीदारी को धीरे-धीरे बढ़ाने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा शुरू किए गए संवैधानिक सुधारों का हिस्सा थे। 1919 के अधिनियम के तहत, इंपीरियल एसेंबली का विस्तार किया गया और एक द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत की गई। निचला सदन 144 सदस्यों की विधान सभा थी, जिसमें से 104 निर्वाचित होते थे और 40 तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए नामांकित होते थे। ऊपरी सदन राज्यों की परिषद थी जिसमें 34 निर्वाचित और 26 नामांकित सदस्य होते थे और कार्यकाल पाँच वर्ष का होता था। 1919 के अधिनियम में प्रशासन के विषयों को केंद्रीय और प्रांतीय के रूप में वर्गीत करने और प्रांतीय विषयों के संबंध में स्थानीय सरकारों को अधिकार हस्तांतरित करने का भी प्रावधान था और उन सरकारों को राजस्व और अन्य धन के आवंटन के लिए। ब्रिटिश शासन में जनता की भागीदारी के लिये चुनाव अवश्य हुये मगर इनमें जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व केवल नाममात्र का था और शासन पर असली नियंत्रण ब्रिटिश हुकूमत का ही था।

इंडियन काउंसिल एक्ट में हुआ मताधिकार का विस्तार

सन् 1861 के इंडियन काउंसिल एक्ट ने भारत में विधान परिषदों के लिए चुनाव का एक सीमित रूप पेश किया कर दिया था। हालाँकि उस व्यवस्था के तहत मतदाता वर्ग बहुत छोटा था, जिसमें मुख्य रूप से धनी, शिक्षित और प्रभावशाली व्यक्ति शामिल थे। उसके बाद 1892 के इंडियन काउंसिल एक्ट ने मताधिकार को थोड़ा विस्तारित किया, जिससे अपेक्षाकृत एक बड़े वर्ग के मतदाताओं को मतदान की अनुमति मिली। इससे विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि हुई। इसी कड़ी में इंडियन काउंसिल 1909 (मॉर्ले-मिंटो सुधार) एक्ट एक महत्वपूर्ण सुधार था। जिसने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की शुरुआत की जिसका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने विरोध स्वरूप चुनाव का वहिष्कार किया था। उस समय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी थी। हालाँकि, अधिकांश सदस्य अभी भी निर्वाचित होने के बजाय नियुक्त किए गए थे। उसके बाद 1919 का भारत सरकार अधिनियम (मोंटेगु-चेम्सफोर्ड सुधार) ने निर्वाचित भारतीय जन प्रतिनिधियों और ब्रिटिश अधिकारियों के बीच सरकार की शक्तियों को विभाजित करते हुए द्वैध शासन की अवधारणा पेश की। इसने मताधिकार का भी विस्तार किया, हालाँकि यह मताधिकार भी संपत्ति की योग्यता के आधार पर सीमित था।

 

तब केवल धनी और उच्च शिक्षित ही होते थे मतदाता

भारत सरकार अधिनियम 1935 के अनुसार 1936-37 की सर्दियों में ब्रिटिश भारत में प्रांतीय चुनाव हुए। उस समय जिन ग्यारह प्रांतों में चुनाव हुए उनमें मद्रास, मध्य प्रांत, बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे प्रेसीडेंसी, असम, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, बंगाल, पंजाब और सिंध शामिल थे। मतदताओं को करदाता और ग्रेजुएट होना जरूरी था इसलिये निर्वाचक मंडल बहुत छोटा था। शासन में जनता की भागीदारी के लिहाज से 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने विधान परिषदों की शक्तियों का और विस्तार किया और प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत की। इसने मताधिकार का भी उल्लेखनीय रूप से विस्तार किया, हालाँकि इसमें अभी भी संपत्ति की योग्यता और अन्य कारकों के आधार पर सीमाएँ थीं। इसी भारत सरकार अधिनियम-1935 के तहत भारत में 1937 में पहले बड़े चुनाव हुये थे। इस चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कई प्रांतों में बहुमत हासिल किया। इस पूरी अवधि के दौरान, भारत में चुनावों का दायरा सीमित था और वे पूरी तरह से लोकतांत्रिक सिद्धांतों को प्रतिबिंबित नहीं करते थे। हालाँकि, इन चुनावों ने स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतांत्रिक संस्थानों के विकास की नींव रखी।

प्रान्तीय एसेंबलियों को मिली स्वायत्तता

भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने संघीय और प्रांतीय स्वायत्तता पेश की और केंद्र और प्रांतों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण के लिए भी प्रावधान किए। इस अधिनियम में अन्य बातों के अलावा एक ‘‘अखिल भारतीय संघ’’ की परिकल्पना की गई थी, जिसमें ब्रिटिश प्रांत और इसमें शामिल होने के इच्छुक भारतीय रियासतें शामिल थे। 1930 के गोलमेज सम्मेलन तक भारत पूरी तरह से एकात्मक राज्य था और प्रांतों के पास जो भी शक्तियाँ थीं वे केंद्र द्वारा उन्हें दी गई थीं। अर्थात प्रांत केवल केंद्र के एजेंट थे। इस अधिनियम में पहली बार एक संघीय प्रणाली का प्रावधान किया गया जिसमें न केवल ब्रिटिश भारत के राज्यपालों के प्रांत बल्कि मुख्य आयुक्तों के प्रांत और रियासतें भी शामिल थीं। इसने अंततः उस एकात्मक प्रणाली को तोड़ने की कोशिश की जिसके तहत ब्रिटिश भारत अब तक प्रशासित था। दरअसल पूर्व के 1919 के अधिनियम का सिद्धांत संघ के बजाय विकेंद्रीकरण आधारित था। नए अधिनियम के तहत प्रांतों को पहली बार कानून में अलग-अलग संस्थाओं के रूप में मान्यता दी गई, जो अपने क्षेत्र में कार्यकारी और विधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, सामान्य परिस्थितियों में केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त थे। हालाँकि, भारत सरकार अधिनियम, 1935 के लागू होने के बाद भी, भारत में केंद्र सरकार का संविधान बना रहा।

 


आजादी से पहले सबसे बड़ा चुनाव 1945 में

19 सितंबर 1945 को, वायसराय लॉर्ड वेवेल ने घोषणा की कि केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव दिसंबर 1945 से जनवरी 1946 में होंगे। यह भी घोषणा की गई कि एक कार्यकारी परिषद का गठन किया जाएगा और इसके बाद एक संविधान-निर्माता निकाय का गठन होगा। हालाँकि भारत सरकार अधिनियम 1935 में एक अखिल भारतीय महासंघ का प्रस्ताव था, लेकिन यह नहीं हो सका क्योंकि सरकार का मानना था कि रियासतें इसमें शामिल होने के लिए तैयार नहीं थीं। परिणामस्वरूप, 375 सदस्यों को चुनने के बजाय, केवल 102 निर्वाचित सीटें भरी जानी थीं। इसलिए केंद्रीय विधानमंडल के चुनाव भारत सरकार अधिनियम 1919 की शर्तों के तहत आयोजित किए गए थे। इस चुनाव में केन्द्रीय एसेंबली के लिये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 102 निर्वाचित सीटों में से 57 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उस चुनाव में मुस्लिम लीग को 30 ने अकाली दल को 2, यूरोपियन को 8 और निर्दलियों को को 5 सीटें लिीं थी। ये ब्रिटिश भारत में आखिरी आम चुनाव थे। इस चुनाव के बाद वायसराय की अंतरिम काउंसिल या कैबिनेट का गठन हुआ। इसमें कांग्रेस के सदस्यों ने 2 सितम्बर 1946 को कार्यभार ग्रहण किया तथा मुस्लिम लीग के सदस्य पहले नानुकुर के बाद 26 अक्ूबर 1946 को इसमें शामिल हुये। वायसराय की इस कैबिनेट में पंडित जवाहरलाल नेहरू वायसराय और कमांडर इनचीफ के बाद तीसरे और सरदार पटेल चौथे नम्बर पर थ। सत्ता हस्तातरण की व्यवस्थाओं के लिसे वायसराय ने 1947 में कैबिनेट का पुनर्गठन किया और उसमें भी पंडित नेहरू अन्य सदस्यों में सबसे ऊपर थे।

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!