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पाकिस्तान पर कुछ नोट्स-31 : जब दुश्मन ने दिया कंधा !

–सुशील उपाध्याय

मेरे एक परिचित हैं, शाहिद उस्मान। लाहौर के रहने वाले हैं और पाकिस्तान की नेशनल आर्ट एकेडमी में पढ़ाते हैं। घुमंतू किस्म के आदमी हैं और अक्सर लोगों को उस इतिहास से रूबरू कराते हैं जिसको पाकिस्तान में इरादतन दबाकर रखा जाता रहा है। पाकिस्तान के बारे में हिंदुस्तान के लोगों की जो दृष्टि हैं, उसके विषय में वह बहुत अलग तरह से सोचते हैं। वे कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के संदर्भ में कोई एक देश नहीं है, बल्कि एक देश के भीतर कई देश हैं, इन्हें उप राष्ट्रीयता भी कह सकते हैं जो हिंदुस्तान को लेकर अलग-अलग तरह की सोच रखती हैं। इनमें पंजाबी, सिंधी, पख्तून, बलोच, मुहाजिर और अल्पसंख्यकों का नजरिया काफी हद तक एक-दूसरे से अलग तरह का है। और पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के लोगों का नजरिया तो भारत को अच्छी तरह पता रहा ही है।


भारत को लेकर पख्तून लोग ना के बराबर दुश्मनी का भाव रखते हैं। उसकी वजह यह है कि सीमांत गांधी आखिर तक कोशिश करते रहे कि यह प्रांत भारत का हिस्सा बन जाए। सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के बेटे वली खान ने भी लगभग इसी दृष्टि के साथ अपनी राजनीतिक पार्टी और सूबाई सरकार का संचालन किया। इसी से मिलता-जुलता नजरिया बलोच लोगों का भी है। बलूचिस्तान को पाकिस्तान में मिलाए जाने से पहले वह कई महीने तक एक स्वतंत्र देश रह चुका है। इसलिए वहां के लोगों की निगाह में पाकिस्तान की सत्ता में बैठे लोग ज्यादा बड़े दुश्मन है, बनिस्बत भारत के। बल्कि, वहां के अलगाववादी यह उम्मीद करते हैं कि उनकी लड़ाई को भारत से मदद मिल सकती है।


पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में भारत के बारे में अलग तरह की सोच के पीछे मजबूत आधार दिखते हैं। मसलन, विभाजन के समय एक प्रदेश के तौर पर पूरा का पूरा सिंध पाकिस्तान को मिला इसलिए वहां बंटवारे का दर्द इतना गहरा नहीं रहा जितना कि किसी एक जाति या समुदाय के दो हिस्सों में बंट जाने पर होता है। वहां नफरत का एहसास हो सकता है, लेकिन वह उतना खुला हुआ और उग्र नहीं दिखता जितना कि पाकिस्तान में मौजूद पंजाबी उप राष्ट्रीयता में दिखता है। चूंकि पंजाबी कम्युनिटी लगभग पूरे देश को कंट्रोल करती है और सेना में भी इसी कम्युनिटी का दखल है इसलिए पाकिस्तान के भीतर पंजाबी वर्सेस सिंधी या पंजाबी वर्सेस बलोच और पंजाबी वर्सेस पख्तून, ये सब हर तरफ दिखाई देता है। असल विरोध का झंडा पाकस्तान के पंजाबियों के हाथ में ही दिखेगा।
एक दूसरी निगाह से देखें तो मुहाजिर किसी को पसंद नहीं आते और उनसे भी बुरी स्थिति अल्पसंख्यकों की है। यहां के मूल लोगों को लगता है कि मुहाजिरों की वजह से उन्हें अपने संसाधनों का बंटवारा करना पड़ा है। बात साफ है कि यहां कोई एक पाकिस्तान नहीं है जो हिंदुस्तान से एक जैसे स्तर की नफरत करता हो। हर किसी की नफरत का लेवल अलग है, गहराई अलग है। बल्कि अल्पसंख्यकों में कहीं ना कहीं भारत के साथ जुड़ाव का एहसास है। उन्हें लगता है कि जब कोई और मदद नहीं करेगा तो भारत से मदद जरूर मिलेगी। इसकी बड़ी स्पष्ट वजह भी है कि किसी भी अल्पसंख्यक के लिए पाकिस्तान के पड़ोसी अफगानिस्तान और ईरान कोई विकल्प हो नहीं सकते। चीन चले जाने का कोई रास्ता है ही नहीं इसलिए उनकी एक परोक्ष निष्ठा हमेशा से हिंदुस्तान के साथ ही रही है।
कुल मिलाकर देखिए तो हिंदुस्तान के साथ नफरत और मोहब्बत दोनों ही पंजाबियों की ओर से ज्यादा उग्र और आक्रामक दिखती हैं। इस सबके बीच मुहाजिरों की स्थिति सर्वाधिक विचित्र है। वे हर जगह खुद को सबसे बड़ा पाकिस्तानी साबित करने में जुटे रहते हैं, जबकि उनमें से ज्यादातर सामान्य बातचीत में भी उन जगहों और उस धरती का जिक्र करते मिल जाएंगे जिसे छोड़कर वे पाकिस्तान आए। इसलिए उनके साथ केवल पूर्वी पंजाब ही नहीं, बल्कि मुरादाबाद, अंबाला, बरेली, देवबंद, अलीगढ़, लखनउ, दिल्ली, आगरा भी पाकिस्तान चला आया हैै। ठीक उसी तरह जैसे कि इस हिस्से को छोड़कर भारत जाने वाले लोगों के साथ कराची, लाहौर, रावलपिंडी, सियालकोट, बन्नू, और भी न जाने कितने शहर और इलाके हिंदुस्तान चले गए।
दोनों देशों और लोगों के बीच के रिश्ते में हर कहीं ‘तुम्हीं से नफरत, तुम्हीं से मोहब्बत‘ जैसी सिचुएशन दिखती है। स्थिति यह है कि यदि पाकिस्तानियों को अमेरिका-इंग्लैंड और हिंदुस्तान में से किसी एक जगह जाने-घूमने का मौका दे दिया जाए तो हरेक दसवां पाकिस्तानी हिंदुस्तान का टिकट कटा लेगा। शायद ही किसी दूसरे देश के मामले में ऐसा हो। जरा, 1965 को याद कर लीजिए, जनरल अयूब और लाल बहादुर शास्त्री के बीच ताशकंद में जो बातचीत हुई, उससे पहले जनरल अयूब किसी भी स्तर पर शास्त्री जी को इस लायक नहीं समझ रहे थे कि उनके साथ बात की जा सके। तब सोवियत दबाव के बाद बात हुई, समझौता भी हो गया और उसी रात में शास्त्री जी चल बसे। इसके बाद जो कुछ हुआ, आज उस पर न पाकिस्तान के लोगों को यकीन है, ना हिंदुस्तान के लोग यकीन कर पाते हैं और शायद खुद जनरल अयूब भी यकीन नहीं कर पाते थे होंगे कि उन्होंने अपने उस दुश्मन की अर्थी को कंधा दिया था, जिसका वे मखौल उड़ाते थे।
इस बात के प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध है कि 11 जनवरी, 1966 को जब लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हुआ तो उनके पास सबसे पहले पहुंचने वाले शख्स पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ही थे। उन्होंने शास्त्री जी के पार्थिव शरीर को देख कर कहा था कि यहाँ एक ऐसा आदमी लेटा हुआ है जो भारत और पाकिस्तान को एक साथ ला सकता था। उनकी आंखें नम थी। जब शास्त्री जी के शव को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद हवाईअड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में भारत के साथ-साथ पाकिस्तानी झंडा भी झुका हुआ था। जिस वक्त शास्त्री जी की अर्थी को वाहन से उतारकर विमान पर चढ़ाया गया तब उनको कंधा देनेवालों में सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन के साथ राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ान भी थे। इस पर बीबीसी ने एक डाक्यूेंट्री भी प्रसारित की थी। इस घटना से समझ लीजिए कि दोनों देशों का रिश्ता क्या है!
शाहिद उस्मान कहते हैं कि यह किसी भी औसत आदमी की कल्पना से परे है कि जिसे कुछ दिन पहले हम अपना दुश्मन मान रहे थे, उसकी मौत पर हमारे मुल्क का झंडा आधा झुका हुआ था। और यह केवल एक तरफ से नहीं है, दोनों तरफ से है। पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की मौत पर भारत में भी लगभग वैसे ही गम का इजहार किया था, जैसा इजहार पाकिस्तान ने गांधी जी की हत्या पर किया था। इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि दोनों देशों की दुश्मनी किसी वाजिब आधार पर नहीं है, बल्कि इसकी बुनियाद गैरवाजिब ईगो पर टिकी हुई है। सत्ता में रहने वालों का ये भाव कि हम किसी सूरत तुमसे कम नहीं हैं, दोनों देशों की दूरी को स्थायी तौर पर बनाकर रखता है
जारी…..
सुशील उपाध्याय

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