साहित्य अकादमी की पसन्द इस बार दिलचस्प है
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा
वर्ष 2024 के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार हेतु चयनित होने की घोषणा के साथ ही गगन गिल जी की कविता की पंक्तियां गगन में गूंजनी शुरु हो गई हैं। उनकी कविताओं में स्त्री होने के अहसास के साथ असुरक्षा का भय व्याप्त है, जो शायद महानगरीय सभ्यता का असर है। उनकी इस कविता को पढ़कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का द्रवित होना स्वाभाविक है । गगन गिल जी को हार्दिक बधाई देने में मुझे खुशी हो रही है । उन्होंने अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करने में संकोच नहीं किया और “मातृशक्ति नमन* के नारे के सच को भी उजागर कर ही दिया । -GPB
दिन के दुख अलग थे-गगन गिल
दिन के दुख अलग थे।
रात के अलग
दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना
बाढ़ की तरह
अचानक आ जाते वे
पूनम हो या अमावस
उसके बाद सिर्फ़
एक ढेर कूड़े का
किनारे पर
अनलिखी मैली पर्ची
देहरी पर
उसी से पता चलता
आज आए थे वे
ख़ुशी होती
बच गए बाल-बाल आज
रातों के दुख मगर
अलग थे
बचना उनसे आसान न था
उन्हें सब पता था
भाग कर कहाँ जाएगा
जाएगा भी तो
यहीं मिलेगा
बिस्तर पर
सोया हुआ शिकार
न कहीं दलदल
न धँसती जाती कोई आवाज़
नींद में
पता भी न चलता
किसने खींच लिया पाताल में
सोया पैर
किसने सोख ली
सारी साँस
कौन कुचल गया
सोया हुआ दिल
दुख जो कोंचते थे
दिन में
वे रात में नहीं
जो रात को रुलाते
वे दिन में नहीं
इस तरह लगती थी घात
दिन रात
सीने पर
पिघलती थी शिला एक
ढीला होता था
जबड़ा
पीड़ा में अकड़ा
दिन गया नहीं
कि आ जाती थी रात
आ जाते थे
शिकारी।–
*गगन गिल*