संसद इमारत उद्घाटन का कैसा होगा इतिहास?
अजीत द्विवेदी
देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित 19 पार्टियों ने संसद भवन की नई इमारत के उद्घाटन का बहिष्कार करने का फैसला किया है। विपक्षी पार्टियों ने एक साझा बयान जारी करके 28 मई को होने वाले उद्घाटन में हिस्सा नहीं लेने का ऐलान किया है। विपक्ष की ओर से बहिष्कार के दो मुख्य कारण बताए गए हैं। पहला, ‘संसद से लोकतंत्र की आत्मा को ही छीन लिया गया है, तो हमें एक नई इमारत की कोई कीमत नजर नहीं आती है’। दूसरा, ‘नए संसद भवन का उद्घाटन एक यादगार अवसर है। हमारे इस भरोसे के बावजूद कि यह सरकार लोकतंत्र के लिए खतरा है और जिस निरंकुश तरीके से नई संसद का निर्माण किया गया था, उसके प्रति हमारी अस्वीकृति के बावजूद हम मतभेदों को दूर करने के लिए इस अवसर पर शामिल होने के लिए खुले थे। लेकिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए नए संसद भवन का उद्घाटन खुद ही करने का प्रधानमंत्री मोदी का फैसला न केवल उनका अपमान है, बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला है’।
ये दोनों बातें अपनी अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संसद सिर्फ एक इमारत नहीं होती है और न उसकी भव्यता से संसदीय प्रणाली की गरिमा परिभाषित होती है। संसद देश भर की जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के बीच खुले दिल से बहस, विचार-विमर्श और संवाद की जगह होती है। संसद, देश के संपूर्ण आबादी के हितों को ध्यान में रख कर कानून बनाने की जगह होती है। कई बार कानून बनाने में सांसदों की एक राय होती है और कई बार एक राय की बजाय बहुमत से कानून बनता है लेकिन हर बार यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कानून के हर पहलू पर खुले दिल से चर्चा हुई है और जो सबसे बेहतर हो सकता है उसे मंजूर किया गया है।
इस देश के 60 हजार मजदूरों का पसीना बहा है इसे तैयार करने में और 140 करोड़ लोगों की खून पसीने की कमाई इसके निर्माण में शामिल है। इसलिए संसद किसी एक नेता या किसी एक पार्टी की जागीर नहीं हो सकती है। विपक्षी पार्टियों का भी बराबर का हिस्सा इस इमारत में है और शासन की इस महान प्रणाली में भी है। उन्हें अपनी मौजूदगी से प्रतिरोध की नई मिसाल बनानी चाहिए। दूसरी ओर सरकार को भी बड़ा दिल दिखाना चाहिए। अभी तक ऐसा लग रहा है कि सरकार ने औपचारिकता दिखाने के लिए विपक्ष को न्योता भेजा है। कायदे से सरकार के शीर्ष स्तर से विपक्ष के साथ संपर्क का प्रयास होना चाहिए और उन्हें उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए मनाना चाहिए।
यही कारण है कि आजादी के बाद से अब तक सारे बड़े फैसले और सारे बड़े काम प्रधानमंत्री ही करते आए हैं। वह देश का नेता होता है और उसके फैसलों, उसकी दृष्टि से देश का भविष्य तय होता है। इसलिए अगर प्रधानमंत्री संसद की नई इमारत का उद्घाटन करते हैं तो यह विरोध का कारण नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि विपक्ष को इसका पता नहीं है। विपक्ष को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का फर्क पता है। इसके बावजूद उसने एक तकनीकी मुद्दे को बहिष्कार का आधार बनाया है तो उसका कारण राजनीतिक है। विपक्ष की पार्टियों को इसमें राजनीति करने का मौका दिख रहा है। द्रौपदी मुर्मू देश की पहली अदिवासी राष्ट्रपति हैं। इसलिए विपक्षी पार्टियों ने राष्ट्रपति के मान-अपमान का मुद्दा उठा कर उसे देश के दलित व आदिवासी समुदाय के मान-अपमान से जोड़ा है।
बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकतंत्र में विपक्ष की महत्वपूर्ण जगह होती है, लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अगर नए संसद भवन के उद्घाटन के ऐतिहासिक मौके पर विपक्ष गैरहाजिर रहता है तो उसे कोई मिस नहीं करने जा रहा है और न लंबे समय तक इसे याद रखा जाएगा। उससे यह ऐतिहासिक अवसर प्रभावित नहीं होगा। यह याद रखना चाहिए कि किसी भी देश के इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते और जब ऐसे अवसर आते हैं तो उस क्षण में जो मौजूद रहता है इतिहास उसी का होता है। महात्मा गांधी जैसा महान व्यक्तित्व देश की आजादी के क्षण में संसद में उपस्थित नहीं था।