Front Page

मंत्री ही आपा खो बैठे तो संयम की उम्मीद किससे करें?

–दिनेश शास्त्री
तीर्थनगरी ऋषिकेश में मंगलवार को जो घटनाक्रम सामने आया उसने सुसंस्कृत, संस्कारित और शांतिप्रिय उत्तराखंड की फिजा में इस कदर कालिख सा रंग घोल दिया गया है कि माननीय कहलाने वाले भद्रजन सवालों के कठघरे में खड़े हो गए हैं।
अभी तक सुना था कि जब उजड़ने के दिन आते हैं तो किसी भी व्यक्तित्व से विवेक विदा ले लेता है। बदजुबानी की बात भी सुनी जाती रही लेकिन कोई माननीय हाथापाई पर उतर आए तो ऐसा पहली बार दिखा। उत्तर प्रदेश या बिहार में ये बात बेशक आम हो लेकिन उत्तराखंड में भी उसी प्रवृत्ति का अनुसरण होने लगे तो एक अजीब तरह की सिहरन सी होती है। सहसा अनुमान के घोड़े दौड़ने लगते हैं कि  शायद यूपी के अतीक, मुख्तार या बिहार के आनंद मोहन जैसे लोगों की राजनीति में शुरुआत भी इसी तरह हुई होगी?
मान लिया जाए कोई सिरफिरा माननीय की शान में गुस्ताखी कर बैठे तो उसकी अक्ल ठिकाने लगाने के दस इंतजाम हैं, पुलिस है, कोर्ट – कचहरी है, शासन है, प्रशासन है, नगर निगम है, यानी किसी भी तरह से सिरफिरे को कानून के दायरे में लाया जा सकता है लेकिन जब माननीय को खुद हाथ उठाना पड़ जाए, वह भी सरेराह, कोयल घाटी जैसे सार्वजनिक स्थान पर तो माननीय के बारे में राय ठीक तो नहीं हो सकती।
माननीय को यह अधिकार हो सकता है कि किसी समाज विरोधी तत्व की आलोचना करें लेकिन उन्हें यह अधिकार तो कानून भी नहीं देता कि वे अपने गनर के साथ टूट पड़ें। हो सकता है तस्वीर का दूसरा पहलू भी हो, लेकिन जो वीडियो सोशल मीडिया में तैर रहा है उसने प्रेम और घृणा को साफ साफ परिभाषित ही नहीं किया बल्कि सत्ता के अहंकार और माननीय के जमीन छोड़ने की आहट तो दे दी है। सवाल फिर वही उत्पन्न होता है कि जब मंत्री ही आप खो देंगे तो संयम की उम्मीद किससे की जाए। एक बात तो तय है कि माननीय का व्यवहार न तो स्वीकार्य है, न सहन करने योग्य और न सामाजिक स्वीकारोक्ति के योग्य।
इधर सीएम ने मामले की जांच डीजीपी को सौंपी है, उस जांच से कुछ हल निकलेगा, उसकी संभावना कम ही है। किंतु जो छीछालेदर सत्तारूढ़ दल की इस मामले में हो रही है, उसकी कीमत बहुत भारी हो सकती है। हो सकता है माननीय की विदाई हो जाए, या जांच के नाम पर केवल लीपापोती हो या फिर मामला ठंडा करने के लिए माननीय खेद ही व्यक्त कर दें, किंतु अब वक्त आ गया है कि सभ्य समाज में शुचिता का ढोल पीटने वाले एक लक्ष्मण रेखा तो खींच ही दें ताकि इस तरह के प्रकरणों की पुनरावृत्ति न होने पाए। प्रदेश का आम आदमी थू थू कर रहा है, इस हालत में वर्ष 2025 तक सर्वश्रेष्ठ प्रदेश उत्तराखंड कैसे बन पाएगा। यह सवाल अनुत्तरित नहीं रहना चाहिए

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!