महाकुम्भ 2025: श्रद्धालुओं के अमृत स्नान की लाइफ लाइन बने पीपे के पुल
In the grand event of the Maha Kumbh, pontoon bridges play a very significant role. These bridges serve as remarkable connectors between the Sangam area and the Akhara area during this vast festival. The administration has divided the 40-square-kilometer fair area into 25 sectors. Pontoon bridges are an integral part of the Maha Kumbh. These bridges require minimal maintenance but need to be monitored 24 hours a day. Alok Kumar, an engineer from the Public Works Department, explained that pontoon bridges are temporary structures. They are built on large, hollow iron boxes (pontoons) that float on the water’s surface. Locally, these are commonly referred to as “pontoon bridges” in Prayagraj. Constructed to facilitate smooth movement for devotees in the Maha Kumbh 2025, these bridges are not only for the general public but also ensure the movement of grand camps of the 13 Akharas, as well as chariots, elephants, horses, and over 1,000 vehicles during the Amrit Snan (nectar bath) and royal baths. In August 2023, the responsibility for this monumental task was assigned. A total of 30 pontoon bridges were built for the Maha Kumbh, utilizing 2,213 pontoons (massive hollow iron boxes)—the highest number ever recorded. More than 1,000 laborers, engineers, and officials worked 14-hour shifts on this project. The construction of these bridges was completed by October 2024 and handed over to the fair administration.
-Uttarakhand Himalaya.in
महाकुम्भ के भव्य आयोजन में पीपे के पुलों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो गई है। विराट आयोजन में संगम क्षेत्र और अखाड़ा क्षेत्र के बीच पीपे के पुल अद्भुत सेतु का काम कर रहे हैं। प्रशासन ने 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले मेले को 25 सेक्टरों में विभाजित किया है। पीपे के पुल महाकुम्भ का अभिन्न अंग हैं। ये पुल कम रखरखाव वाले होते हैं, लेकिन इनकी 24 घंटे निगरानी जरूरी होती है।
पीपे के पुल: प्राचीन तकनीक और आधुनिकता का अद्भुत संगम
लोक निर्माण विभाग के अभियंता आलोक कुमार ने बताया कि पीपे के पुल अस्थायी पुल है। पानी की सतह पर तैरने वाले लोहे के बड़े खोखले डिब्बों (पांटून) के सहारे बनाया जाता है। इन्हें प्रयागराज में आम बोलचाल की भाषा में ‘पीपे का पुल’ कहा जाता है। महाकुंभ 2025 में श्रद्धालुओं को सहज आवाजाही देने के लिए बनाए गए ये पुल न केवल आम नागरिकों बल्कि 13 अखाड़ों की भव्य छावनी प्रवेश और अमृत स्नान, राजसी स्नान के दौरान रथ, हाथी-घोड़े और 1,000 से अधिक वाहनों के आवागमन को भी सुनिश्चित कर रहे हैं।
15 महीनों में 30 पीपे के पुलों का 2213 पांटून से निर्माण
अगस्त 2023 में उन्हें इस विराट कार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। महाकुम्भ के लिए 30 पीपे के पुलों के निर्माण में 2,213 पांटून (विशाल लोहे के खोखले डिब्बे) का उपयोग किया गया, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इस परियोजना में 1,000 से अधिक मजदूरों, इंजीनियरों और अधिकारियों ने 14-14 घंटे तक काम किया। अक्टूबर 2024 तक इन पुलों का निर्माण कार्य पूरा कर लिया गया और मेला प्रशासन को सौंप दिया गया।
विशाल लोहे के पांटून क्रेनों से नदी में किए गए स्थापित
गंगा नदी पर 30 पीपे के पुलों का निर्माण महाकुम्भ में अब तक का सबसे बड़ा कार्य है। मेले के समापन के बाद इन पुलों को हटाकर अन्य स्थानों पर संग्रहीत कर दिया जाएगा। “मजबूत लोहे की चादरों से बने खोखले पांटून को क्रेन की मदद से नदी में उतारा जाता है। फिर इन पर गर्डर रखकर नट और बोल्ट से सुरक्षित किया जाता है। बाद में हाइड्रोलिक मशीनों से पांटून को सही जगह पर फिट किया जाता है। इसके बाद लकड़ी की मोटी पट्टियों, बलुई मिट्टी और लोहे के एंगल से पुल को और अधिक स्थायित्व दिया जाता है। अंत में पुल की सतह पर चकर्ड प्लेटें लगाई जाती हैं ताकि श्रद्धालुओं और वाहनों के आने जाने के लिए सतह मजबूत बनी रहे।
पांच टन वजन वाले पांटून कैसे तैरते हैं? आर्किमिडीज सिद्धांत का कमाल
एक पांटून का वजन लगभग 5 टन होता है, फिर भी यह पानी में तैरता है। इसका रहस्य आर्किमिडीज के सिद्धांत में छिपा है। पीडब्ल्यूडी अभियंता आलोक कुमार ने बताया, “जब कोई वस्तु पानी में डूबी होती है, तो वह अपने द्वारा हटाए गए पानी के बराबर भार का प्रतिरोध झेलती है। यही सिद्धांत भारी-भरकम पांटून को पानी में तैरने में मदद करता है।” पुलों की डिजाइन इस तरह बनाई गई है कि यह 5 टन तक का भार सहन कर सकते हैं। यदि इस सीमा से अधिक भार डाला जाए, तो पुल के क्षतिग्रस्त होने या डूबने का खतरा बढ़ जाता है। इसीलिए पुलों पर भीड़ प्रबंधन बेहद जरूरी होता है।
17.31 करोड़ की लागत से बने 30 पुल, नागवासुकी मंदिर पुल सबसे महंगा
30 पीपे के पुलों के निर्माण में 17.31 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। इनमें से नाग़वासुकी मंदिर से झूसी तक बना पुल सबसे महंगा (1.13 करोड़ रुपये) पड़ा, जबकि गंगेश्वर और भारद्वाज पुल की लागत 50 लाख से 89 लाख रुपए के बीच रही।
ढाई हजार साल पुरानी है पीपे के पुल की तकनीक
पीपे के पुलों की तकनीक 2,500 वर्ष पुरानी है। पहली बार इनका उपयोग 480 ईसा पूर्व में फारस के सम्राट ज़र्क्सीस प्रथम (Xerxes I) ने ग्रीस पर आक्रमण के दौरान किया था। चीन में भी झोउ राजवंश (11वीं सदी ईसा पूर्व) के दौरान ऐसे पुलों का उपयोग किया जाता था। भारत में पहला पीपे का पुल अक्टूबर 1874 में हावड़ा और कोलकाता के बीच हुगली नदी पर बनाया गया था। इसे ब्रिटिश इंजीनियर सर ब्रैडफोर्ड लेस्ली ने डिजाइन किया था। यह पुल लकड़ी के पोंटून पर टिका था, लेकिन एक चक्रवात के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। अंततः 1943 में इसे हटाकर प्रसिद्ध हावड़ा ब्रिज बना दिया गया।
महाकुंभ के बाद पुलों का होगा दोबारा उपयोग
महाकुंभ 2025 के बाद इन पुलों को अलग कर सुरक्षित स्थानों पर रखा जाएगा। अधिकारियों के अनुसार, कुछ पुलों को सराइनायत (कनिहार), त्रिवेणीपुरम और परेड ग्राउंड, प्रयागराज में संग्रहित किया जाएगा। वहीं, कुछ को उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में अस्थायी पुलों के रूप में उपयोग किया जा सकता है।