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चुनाव में उभरे मुद्दे अरसे तक रहेंगे चर्चा में

 

 

-दिनेश शास्त्री

लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान में अब गिनती के घंटे रह गए हैं, ऐसे में चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सतह पर उभरे सवालों पर एक नजर डाली जानी चाहिए। उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो अग्निवीर, बेरोजगारी, महंगाई के साथ प्रदेश की जमीनों की लूट के मुद्दे प्रमुख रूप से रहे हैं। निश्चित रूप से उत्तराखंड की सीमा तिब्बत (चीन) और नेपाल से लगी हुई हैं। इस तरह यह इलाक़ा सामरिक दृष्टि से काफ़ी महत्वपूर्ण है। देश में इस वजह से भी उत्तराखंड का विशेष महत्व है। चुनाव तो आते जाते रहेंगे लेकिन इस तरह के बुनियादी मुद्दे लंबे अरसे तक लोगों के जेहन में बने रहेंगे। लोग यह भी देखेंगे कि किसने उनके साथ धोखा किया और कौन उनकी फिक्र करता है?


उत्तराखंड की अवधारणा को ताक पर रखने का पाप भी पिछले दो दशक में ही हुआ है। पृथक राज्य की मांग सिर्फ राजनीतिक इकाई के लिए नहीं थी बल्कि यहां की संस्कृति और अस्मिता का मामला भी था। शुरुआत में पहली निर्वाचित सरकार ने राज्य से बाहर के लोगों को 500 वर्ग मीटर भूमि खरीद की छूट दी तो दूसरी सरकार ने उसकी सीमा आधी कर कुछ हद तक नियंत्रित किया लेकिन वर्ष 2017 के बाद ऐसा क्या हुआ कि निवेश के नाम पर पहाड़ों की जमीन की असीमित मात्रा में खरीद की छूट दे दी गई। नतीजा क्या हुआ? प्रदेश की बेशकीमती जमीनें बिक गई। इस पाप का दोषी कौन है?
यह बात किसी से छिपी तो है नहीं। आईने की तरह बात साफ है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के समय में ज़मीन ख़रीद के नियमों को जिस तरह से छूट दी गई थी, इससे अब यह डर भी पैदा हो गया है कि चीन से लगी सीमा पर मौजूद गांव में अगर कोई चीनी कंपनी निवेश के नाम पर ज़मीन ख़रीद लेती है या फिर भारत की ही किसी पार्टनर कंपनी के साथ मिलकर बॉर्डर इलाक़े के गांवों की सारी ज़मीनें ख़रीद लेती है तो देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है”। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बेशकीमती जमीनें अवांछित लोगों के हवाले यह पाप करने वाले भी बेशर्मी से वोट मांगने आए तो लोगों को कतई आश्चर्य नहीं हुआ और इसके साथ ही यह स्थापित हो गया कि राष्ट्रवाद की बात केवल भाषणों में होती है। यथार्थ कोसों दूर है। कांग्रेस के पूर्व विधायक मनोज रावत का आरोप है कि आदि कैलाश और माणा जैसी जगहों पर विदेश के लोग जमीन खरीद चुके हैं, इसके घातक नतीजे हो सकते हैं। कल माणा या आदि कैलाश में रिजॉर्ट बनाने वाली कंपनी क्या कर बैठे, और उसकी गतिविधियां देशविरोधी हों, इसकी गारंटी कौन लेगा? मौजूदा राज्य सरकार ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश तो की है लेकिन जो सौदे पहले हो चुके हैं, उनका क्या होगा? अब तो चिड़िया खेत चुग चुकी है। यह पाप देवभूमि के साथ किसने किया?
एक और मामला है – तीर्थ पुरोहितों की भावनाओं को आहत करने का। पांच साल पहले एक देवस्थानम बोर्ड अस्तित्व में आया था। तीरथ सिंह रावत ने उस मामले की गंभीरता को समझने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि यह आत्मघाती कदम था। तब शुरुआत बदरी केदार से हुई थी लेकिन यकीन मानिए तब अगर गंगा की लहरों पर भी इसी तरह का बोर्ड बिठाया जाता तो क्या होता। इससे हमारे तीर्थ पुरोहितों के हक हकूक हमेशा के लिए तिरोहित हो जाते। इसके लिए मंशा समझने की जरूरत है। खुद को सर्व शक्तिमान समझने वाले नेता क्या कुछ नहीं कर सकते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है किंतु एक विशेष कालखंड में जो कुछ हुआ, उसका ध्यान मतदाता को है और उन्हीं लोगों को चुनाव में आजमाना है तो देखा जा सकता है कि धर्मनगरी में लोग किस तरह की प्रतिक्रिया देते हैं।
अब जबकि बहुत कम समय मतदान के लिए रह गया है तो लोगों को यह चुनाव भी करना है कि उनकी नुमाइंदगी कौन बेहतर कर सकता है। ज्यादा कुछ इस संबंध में बताने की जरूरत है नहीं। आज का मतदाता इतना विवेकशील है कि वह अपने भले बुरे को बखूबी जानता है और उसी के अनुरूप निर्णय लेता है। निश्चित रूप से यह एक परीक्षा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं  और उत्तराखंड हिमालय के संपादक मंडल के वरिष्ठ सदस्य हैं -एडमिन )

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