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पिछले 70 वर्षों में होता रहा हिन्दी फिल्मों में राष्ट्रवाद का विकास

 

Several memorable Hindi films, over the last 70 years, have appealed to people’s sense of patriotism, valour and self-sacrifice for the nation. Their subjects range across freedom struggle, invasions & battles, sports, ancient and medieval history, insurgency etc. The common theme running across them is pride in being Indian and duty towards the nation. But admittedly they are fewer in number when compared with the vast output from the Bombay film industry, now called Bollywood.

–प्रियदर्शी दत्त

पिछले 70 वर्षों में हिन्दी की अनेक यादगार फिल्मों ने लोगों में देशभक्ति भाव, शौर्य और देश के लिए बलिदान का भाव भरा है। फिल्मों के विषय स्वतंत्रता संघर्ष, आक्रमण और युद्ध, खेल, प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास, विद्रोह आदि रहे हैं। लेकिन सबके मूल में भारतीय होना और देश के प्रति कर्तव्य का भाव रहा है। लेकिन आज के बॉलीवुड में कम संख्या में देशभक्ति की फिल्मे बन रही है। पुराने जमाने के बम्बई फिल्म उद्योग में देशभक्ति फिल्मों की संख्या अधिक हुआ करती थी।

भारत में फिल्म उद्योग स्वतंत्रता आंदोलन के समय उभरा। 19वीं शताब्दी के नाटक की तरह इस बात की प्रबल संभावना थी कि फिल्मों के माध्यम से देशभक्ति की भाव का संचार किया जा सकता है। 1876 में लॉर्ड नॉर्थब्रुक प्रशासन ने मंच से राजद्रोह दृश्य खत्म करने के लिए नाटक प्रदर्शन अधिनियम लागू किया था। इसी तरह ब्रिटिश शासन ने सेंसर कार्यालय और पुलिस के माध्यम से फिल्मों पर कड़ी नजर रखी। वर्ष 1943 में रामचन्द्र नारायण जी द्विवेदी  उर्फ कवि प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट निकला। यह वारंट बॉम्बे टॉकिज की फिल्म किस्मत में भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में अप्रत्यक्ष रूप में शासन के विरुद्ध लिखे गाने को लेकर जारी किया गया था। यह गाना था ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है।’ इसी गाने में आगे लिखा गया है ‘शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी, तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी।’दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) में भारत मित्र राष्ट्रों की ओर था और वास्तविक रूप में जर्मनी और जापान का शत्रु था। 1942 में सिंगापुर और बर्मा के लड़खड़ाने के बाद भारत में जापानी आक्रमण की चिंता वास्तविक होने लगी। लेकिन अंग्रेज चलाक तरीके से समझते थे कि जंग (युद्ध) का मतलब स्वतंत्रता संघर्ष है और विदेशी का जिक्र गाने में अंग्रेजों के लिए किया गया है। गिरफ्तारी से बचने के लिए कवि प्रदीप भूमिगत हो गए।

15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की घोषणा के साथ इस तरह की बाधाएं दूर हो गई। लेकिन राष्ट्रवाद के विषय पर हमने फिल्मों को बनते नहीं देखा। स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष के बाद स्वतंत्र देश में देशभक्ति फिल्म का न बनना एक विषय रहा। ऐसा इसलिए कि तुलनात्मक दृष्टि से 1952 की मिस्र की क्रांति पर अनेक फिल्मे बनी और बांग्लादेश की मुक्ति पर भी फिल्में बनी। इस संबंध में कुछ अपवाद भी है। वजाहत मिर्जा ने शहीद फिल्म का लेखन किया और इसका निर्देशन रमेश सहगल ने किया। इस फिल्म ने 1948 में अच्छा व्यवसाय किया। इस फिल्म का गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो’ कमर जलालाबादी ने लिखा था। 1950 में सबसे अधिक कामयाब फिल्म थी सामाधि। इसका निर्देशन भी रमेश सहगल ने किया था। कहा जाता है कि यह फिल्म नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित थी। उसी वर्ष आजाद हिन्द फौज पर एक और फिल्म आई। यह फिल्म थी पहला आदमी और इसका निर्देशन महान निर्देशक विमल रॉय ने किया था।

1952 में बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी फिल्म आनंद मठ आई। इसका निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था हेमेन गुप्ता स्वतंत्रता सेनानी थे और वह वर्षों जेल में रहे। हेमेन गुप्ता फांसी से बच गए थे। बाद में उन्होंने फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाया। आनंद मठ दस बड़ी फिल्मों में शुमार नहीं हुई। बड़ी फिल्मों में आन, बैजू बावरा, जालतथा दाग थी जिनमें संगीत, रोमांस, सस्पेंस और सामाजिक ड्रामा था। 1940 और 1950 के दशक में सामाजिक, रोमांटिक, संगीतप्रधान, एक्शन, सस्पेंस, पौराणिक फिल्में बनी। देशभक्ति और राष्ट्रवादी फिल्में अपवाद थीं। 1953 में शोहराब मोदी ने झांसी की रानी फिल्म बनाई लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। 1953 में शीर्ष पर नंद लाल जसवंत लाल की फिल्म अनारकली रही। इसी तरह 1956 में बंकिमचन्द्र चटर्जी के ऐतिहासिक उपन्यास पर बनी दुर्गेश नंदिनी फिल्म भी असफल साबित हुई।

इसका अर्थ यह नहीं है कि दर्शक राष्ट्रवादी भावना से मुंह मोड़े हुए थे। इसका अर्थ सिर्फ यही था कि भारत के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता अकेली चुनौती नहीं थी। इससे पहले 1946 चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर में यह दिखाया गया था कि किस तरह धनवान लोग गांव में रहने वाले गरीबों का शोषण करते है। इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह में प्रवेश मिला। 1953 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने राही फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में असम के चाय बगानों में अंग्रेजी मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण को दिखाया गया था।

स्वतंत्रता के बाद फिल्मों को अपना जीवन मिला। 1940 और 1950 में लोगों की पसंद को देखा गया। नए गणराज्य की अपनी समस्याएं थी और लोगों का ध्यान उसी ओर था। 1950 के दशक की सबसे कामयाब फिल्म महबूब खान की मदर इंडिया (1957) रही। इस फिल्म में गांव की गरीब महिला राधा (नरगिस अभिनित) के दो बच्चों के पालने और धुर्त साहूकार के विरुद्ध संघर्ष को दिखाया गया था। 1955 की सबसे सफल फिल्म थी राज कपूर की श्री 420 । इस फिल्म में गरीबों का खून चूसने वाली पोंजी योजनाओं की विपत्ति को दिखाया गया था। 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी ने अनाड़ी फिल्म बनाई। इस फिल्म के हीरो थे राज कपूर। इस फिल्म में शहरों में घातक जहरीली दवाइयों के भयावह परिणाम दिखाए गए थे। स्वतंत्र भारत की समस्याओँ को फिल्मों में जगह मिली।

1960 के दशक में यह जाहिर हुआ कि भारत को केवल आंतरिक चुनौतियों का ही सामना नहीं करना है। सैन्य दृष्टि से भी भारत को तैयार रहना है। देश ने 60 के दशक में 1960 में गोवा मुक्ति युद्ध, 1962 में चीनी आक्रमण और 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण को झेला था। फिर 1971 में भी भारत-पाक युद्ध हुआ। इन युद्धों से हम, शौर्य, देशभक्ति और बलिदान को लेकर सचेत हुए।

उसके बाद से अनेक देशभक्ति फिल्में आई। इनमें हकीकत (1964), हमसाया (1968), प्रेम पुजारी (1970), ललकार (1972), हिन्दुस्तान की कसम (1973), विजेता (1982) और आक्रमण (1975) शामिल हैं। अपने समय के मुताबिक प्रहार (1991), बॉर्डर (1997) और एलओसी करगिल (2003), टैंगो चार्ली (2005), शौर्य (2008), 1971 (2007), गाजी अटैक (2017) जैसी फिल्में बनी। इन फिल्मों से साधारण भारतीय लोगों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़ा।

1960-70  के दशक में अभिनेता हरिकिशन गिरि गोस्‍वामी उर्फ मनोज कुमार ने फिल्‍मों में सकारात्‍मक और देशभक्ति के विचारों का जिम्‍मा संभाला। इसी लिए उन्‍हें ‘’भारत कुमार’’ का उपनाम भी मिला। उन्‍होंने फिल्‍म शहीद(1965) में क्रांतिकारी भगत सिंह की भूमिका अदा की। उनकी उपकार (1967) जैसी फिल्‍मों ने फौज की नौकरी छोड़ चुके व्‍यक्ति के काला बाजारी और नकली दवाओं के जाल में उलझने के खतरों को दर्शाया। पूरब और पश्चिम (1970) में उन्‍होंने पश्चिम में भारतीय संस्‍कृति की अलख जलाये रखी।

1970 के दशक तक, भारत को पश्चिम में पिछड़ा और प्रतिगामी देश समझा जाता था। मनोज कुमार ने पूरब और पश्चिम में भारतीय संस्‍कृति की श्रेष्‍ठता को सामने रखा। उदारीकरण के पश्‍चात स्थिति में बदलाव आया, जिसमें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रदर्शन ने भारत को वैश्विक स्‍तर पर उदीयमान दर्जा दिलाया। 1960 के दशक के मध्‍य के बाद से, अमरीका और ब्रिटेन जैसे पश्चिम के औद्योगिक देशों में जाने वाले भारतीय नागरिकों की संख्‍या में वृद्धि हुई है। इसने सुदूर राष्‍ट्रवाद की भावना के उदय का मार्ग प्रशस्‍त किया, जिसके द्वारा भारतीय अपनी पहचान पर गर्व करने लगे। ‘’आई लव माई इंडिया’’ (परदेस 1997) जैसे गीतों ने इस भावना को बरकरार रखा।

लगान (2001), चक दे इंडिया (2007), भाग मिल्‍खा भाग (2013), दंगल (2016) जैसी फिल्‍मों ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए खेलों का सहारा लिया। इस संबंध में 29 जून 1911 में कोलकाता में आईएफए शील्‍ड मैच में  मोहन बगान की ईस्‍ट यॉर्कशायर रेजिमेंट पर जीत की घटना पर आधारित अरूण रॉय की बंगाली फिल्‍म इगारो या द इमॉर्टल इलेवन (2011) का उल्‍लेख भी किया जाना चाहिए। यह किसी ब्रिटिश टीम पर किसी भारतीय फुटबॉल क्‍लब की पहली जीत थी। इस घटना के शताब्‍दी वर्ष के अवसर पर आई यह फिल्‍म उसके प्रति श्रद्धांजलि स्‍वरूप थी।

देशभक्ति के प्रति फिल्‍मकारों का आकर्षण बरकरार है और यह इस बात से साबित होता है कि वर्ष 2002 में भगत सिंह के बारे में तीन हिन्‍दी फिल्‍मों का निर्माण किया गया। ये फिल्‍मे थीं – राजकुमार संतोषी की द लिजेंड ऑफ भगत सिंह, गुड्डू धनोवा के निर्देशन में बनी 23 मार्च : शहीद और सुकुमार नायर की शहीद-ए-आजम । 2004 में विख्‍यात निर्देशक श्‍याम बेनेगल की फिल्‍म नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस : द फॉर्गाटन हीरो आई। लेकिन बॉक्‍स ऑफिस पर कामयाबी के लिए देशभक्ति ही अकेला जादू नहीं है, जैसा कि चटगांव शस्‍त्रागार विद्रोह (1930-34) पर आधारित आशुतोष गोवारिकर की फिल्‍म खेले हम जी जान से (2010) की नाकामयाबी से साबित हुआ। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्‍ट्रवाद सिनेमा के रूपहले पर्दे पर आने के नये रास्‍ते तलाशना जारी रखेगा। उसे दर्शकों को लुभाने के लिए लगातार खुद को नये सिरे से खोजना जारी रखना होगा।

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  • लेखक दिल्‍ली स्थित स्‍वतंत्र शोधकर्ता और स्‍तंभकार हैं।

लेख में व्‍यक्‍त किये गये विचार उनके निजी 

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