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राहुल सांकृत्यायन जयन्ती पर विशेष : सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ,

डा0 आनंद सुमन सिंह

बचपन में तीसरी क्लास में उर्दू पढ़ने के दौरान नवाजिन्दा-बाजिन्दा का शेर पढ़ते पढ़ते राहुल सांकृत्यायन ने तय कर लिया, उनकी जिंदगी तो सैर के नाम ही समर्पित रहेगी। सही मायनों में उन्होंने घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के जरिए हिंदी साहित्य में यात्राओं के जरिए संस्कृतियों से रू-ब-रू होने और ज्ञान की खिड़कियां खोलने की नई विधा ही विकसित की, जिसका उनके पहले हिंदी साहित्य में कतई अभाव था। वो कई भाषाओं से जानकार थे. जिस देश में यात्रा पर जाते, वहां की भाषा भी साथ में सीखकर लौटते।

दरअसल सांकृत्यायन में घुमक्कड़ी का बीज डालने वाले उनके नाना थे। उनका बचपन काफी हद तक ननिहाल में बीता था। नाना फौज में नौकरी कर चुके थे। पूरे देश में घूमे थे. वह नाती को फौजी जीवन की कहानियां सुनानते थे। रोचक तरीकों से देश की उन सारी जगहों के बारे में बताते थे, जहां वह घूम चुके थे।

*9 अप्रैल 1893* को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गॉव में पैदा हुए, राहुल सांकृत्यायन का असल नाम *’केदारनाथ पाण्डे’* था। 1930 में लंका में बौद्ध होने पर उनका नाम ‘राहुल’ हुआ। राहुल नाम के आगे सांस्कृत्यायन इसलिए लगा कि पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय था।

वह लंबे समय तक हिमालय पर रहे। मसूरी में उनका एक घर था। बनारस में रहे। लाहौर में मिशनरी काम किया। दक्षिण भारत में कुर्ग में 4 महीने रहे। दुनिया के तमाम देशों की ओर गए और जब लौटे तो एक नई किताब की रचना की। कई बार नेपाल, श्रीलंका, लद्दाख और तिब्बत की यात्राएं कीं, वहां लंबा प्रवास किया।

साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये।

उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये।

सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें *इगोर राहुलोविच* नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ।

राहुल जी को हिन्दी और हिमालय से बड़ा प्रेम था। वे १९५० में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह *कमला सांकृत्यायन* से हुआ। इसके कुछ बर्षो बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे, लेकिन बाद में उन्हें मधुमेह से पीड़ित होने के कारण रूस में इलाज कराने के लिए भेजा गया। १९६३ में सोवियत रूस में लगभग सात महीनो के इलाज के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नही हुआ। १४ अप्रैल १९६३ को उनका दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में देहांत हो गया।

राहुल सांकृत्यायन ने इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा की. चीन, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि, ईरान में घूमे। आजादी की लड़ाई में भी कूदे। किसान मज़दूरों के आंदोलन में उनके साथ रहे 1938-44 तक भाग लिया, किसान संघर्ष में 1936 में भाग लिया। सत्याग्रह भूख हड़ताल किया।

राहुल सांकृत्यायन जी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जेल में 29 महीने (1940-42) रहे। इसके बाद सोवियत रूस चले गए। वहां लौटे तो कुछ दिनों तक भारत में रहे तो फिर चीन और श्रीलंका के लिए निकल पड़े।

घुमक्कड़ी के बारे में वह कहते थे, मेरी समझ में दुनिया की सबसे बेहतर चीज है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है।

वह हिंदी, संस्कृत के साथ तिब्बती, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, चीनी, जापानी, सिंहली भाषाओं के साथ अंग्रेजी के बहुत अच्छे जानकार थे। वह मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ खुद के जीवन क्षितिज को विस्तार देती है।

वे सदैव घूमते ही रहे और *129 किताबें* लिख डालीं। जिस तरह उनके पांव कभी नहीं रुके, उसी तरह उनके हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रुकी। उनकी लेखनी से विभिन्न विषयों पर प्राय: 150 से अधिक ग्रन्थ लिखे गए. प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या करीब 129 है। दुनिया जरूर बदलती जा रही है लेकिन उनकी किताबें अब भी आपको तमाम देशों को भूगोल के साथ संस्कृतियों से जोड़ते हुए घूमा लाएंगी।

*उनकी जन्म जयन्ती पर महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन को विनम्र श्रद्धांजलि!!*
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