प्रसंग -सीता स्वयंबर : राम कथा के साथ अपनी कथा
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा-
रामचरितमानस में सीता स्वयंवर का यह प्रसंग हमने इंटर में हिंदी की पाठ्य पुस्तक में पढ़ा था, तो तब से ये चौपाई याद है -हमारे हिन्दी टीचर श्री माहेश्वरीदत्त जी डिमरी बड़ा रस लेकर इस प्रसंग की व्याख्या करते थे ।
डिमरी जी स्वयं स्थानीय रामलीला में दशरथ की भूमिका निभाते थे ,गाते भी सुन्दर थे । वह रुद्रप्रयाग के बेलणी नामक मोहल्ले में हमारे निकटतम पड़ोसी भी रहे , तो कभी उन्हें हारमोनियम पर अपनी बेटी उषा के साथ मानस की चौपाइयां या विनय-पत्रिका के पद गाते हुए सुनता था,तो उनके निकट चले जाता था, ऐसे गुरु जी अब कहां मिलेंगे!! डिमरी जी कई ललित कलाओं में दक्ष व्यक्तित्व थे -उनके द्वारा निर्मित एक विशाल ऑयल painting जिसका शीर्षक था Mural Painting of Coronation of Ram- उनकी यह कृति एक समय मैंने उत्तर प्रदेश विधानसभा के तिलक हाल में टंगा देखा था ।
उनकी कई उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं लेकिन उसको मैं पहले भी पोस्ट कर चुका हूं –अब जरा सीता स्वयंवर पर फिर वापस आ रहा हूं लेकिन उससे पहले फिर एक याद शेयर करने का मन हुआ- हाईस्कूल में हमारे एक क्लासफेलो थे श्री कुलानंद पंत जिन्होंने स्थानीय रामलीला में सीता की भूमिका की थी और उनके साथ राम की भूमिका में हमारे अंग्रेजी के लेक्चरर स्व०हरिप्रसाद जी काला थे , जो कालान्तर में एडिशनल कमिश्नर सेल्स टैक्स के पद से सेवानिवृत्त हुए और ४-५ साल पहले यहीं देहरादून में दिवंगत हुए , मेरा सौभाग्य रहा कि मृत्यु से कुछ ही दिन पहले मैने उनके दर्शन कर लिए थे । वे बहुत खुश हुए थे , देर तक मेरा हाथ थामें रहे ।……
फिर मूल विषय पर लौटता हूं –
“गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥
सकुची व्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी। तन मन बचन मोर पनु सांचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा ।।
तौ भगवान स्कंद उर बासी।करहि मोहि रघुवर के दासी।।जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहु। हो तेहि मिलहि न कछु संदेहु।।” –
स्वयंवर पंडाल में सीता की वाणी रूपी भ्रामरी लज्जा रुपी रात्रि के कारण उसके मुख रूपी कमल के अन्दर ही कैद हो गई , बाहर न आ सकी और सीता जी के आंखों के अश्रु पलकों के अंदर ऐसे छिप गए जैसे कंजूस आदमी अपना सोना धन यत्नपूर्वक छुपाकर कर रखता है। सीता की व्याकुलता बढ़ी जा रही थी – जाने क्या होता है ? कुछ पाने की प्रत्याशा में परिणाम के लिए बेसब्री बढ़नी स्वाभाविक है लेकिन सीता मन ही मन खुद को ढांढस बंधाती है कि राम के प्रति मेरे मन में यदि प्रीति सच्ची है, तो कोई वजह नहीं कि वे मुझे मिलकर ही रहेंगे अस्तु धनुषभंग उन्हीं के द्वारा होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। जिसका जिसके प्रति सच्चा प्रेम होता है वह उसे अवश्य मिलेगा।-GPB