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उत्तराखण्ड में सरकारी नौकरियों की राजनीतिक चोरी

सरकारी नौकरियों पर माफिया का डाका

-जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के बहुचर्चित पेपर लीक घोटाले के खुलासे के बाद राज्य में जिस पत्थर को पलटो, उसके नीचे नया भर्ती घोटाला नजर आ रहा है। यहां तक कि प्रदेश के सुशासन के लिये विधान बनाने वाली विधानसभा भी भर्ती घोटालों से अछूती नहीं रह गयी। यहां नियम कायदों को ताक पर रख कर अपने-अपनों को रेवड़ियों की तरह नौकरियाँ  बांटी गयी। अवसरों की इस लूट का लाभ बिहार के रिश्तेदरों ने तक उठाया। अब आप स्वयं ही कल्पना कर सकते हैं कि जो लोग भष्टाचार और भाई भतीजाबाद की सीढ़ियां चढ़ कर प्रदेश की नौकरशाही में पहुंचे होंगे वे कितनी ईमान्दारी से काम कर रहे होंगे। जो कर्मचारी तृतीय श्रेणी के पद को भी 15 लाख में खरीदेगा, उससे ईमान्दारी और निष्ठा की अपेक्षा कैसे की जायेगी? उत्तराखण्ड में बेरोजगारी निरन्तर बढ़ रही है, और रोजगार के जो थोड़े बहुत अवसर पैदा हो भी रहे हैं वे आम लोगों तक पहुंचने से पहले ऊपर ही गायब हो रहे हैं।

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अवसरों की समानता की गांरटी देता है। संविधान के अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि भारत क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी नागरिक के बीच कोई भी सरकारी नौकरी अर्थात लोक सेवाओं में किसी प्रकार का ऐसा भेदभाव नहीं किया जाएगा, जिसका आधार धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास इनमें से किसी भी कोई एक कारण में हो। हमारे संविधान का यह अनुच्छेद समानता की गारंटी तो देता है लेकिन उत्तराखण्ड में इस गांरटी की भी धज्जियां उड़ रही हैं। न केवल आम आदमी के नौनिहालों के रोजगार के अवसर उनसे छीने जा रहे हैं अपितु संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार का भी हनन हो रहा है। खेद का विषय तो यह है कि जिन लोगों ने आम लोगों की पैरवी करनी थी और उनके हकों की रक्षा करनी थी उन पर ही अपने-अपनों को रेवड़ियां बांटने के खुलासे हो रहे हैं। राज्य के मंत्रियों द्वारा अपने चहेतों को सीधे नौकरियां देने कें आदेश पब्लिक डोमेन में दिखाई दे रहे हैं। बिहार के मूल निवासी एक मंत्री ने बिहार में रहने वाले अपने दो चेचेरे भाइयों, एक भान्जे तथा एक रिश्ते के दामाद को उत्तराखण्ड में नौकरियां दिला दीं। उसी मंत्री द्वारा उत्तराखण्ड में रह रहे तीन भतीजों और एक चचेरे भाई को भी नौकरियां दिला दीं।

इन खुलासों से लगता है कि नौकरियों में भाई भतीजावाद पर किसी एक राजनीतिक दल का एकाधिकार नहीं रहा। भले ही विधानसभा के एक अध्यक्ष ने अपने कार्यकाल में 129 लोगों की बिना विज्ञप्ति के सीधी भर्ती को जायज ठहरा दिया, मगर एक अन्य ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने अपने पुत्र और पुत्रवधू का अवश्य ही नौकरियां दी हैं जिसके लिये उन्होंने प्रदेश की जनता से क्षमा भी मांग ली। तर्क दिया जा रहा है कि विधानसभा अध्यक्ष को प्रदेश की विधायिका का प्रमुख होने के नाते विधानसभा के मामलों में व्यापक अधिकार हैं इसलिये अब तक गठित पांच में से चार विधानसभाओं और एक अन्तरिम विधानसभा के कार्यकाल में व्यापक अधिकारों का व्यापक दुरुयोग हुआ है। लेकिन व्यापक अधिकार दुरुपयोग के लिये नहीं होते। अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। किसी भी प्राधिकारी को अधिकार भी कर्तव्यों के निर्वहन के लिये दिये जाते हैं न कि निजी लाभ उठाने या नागरिकों के हक मारने के लिये! प्राधिकारी जितना बड़ा होता  उसकी नागरिकों के प्रति उतनी ही अधिक जिम्मेदारी होती है।

हालात को देख कर प्रतीत होता है कि घोटाला शब्द उत्तराखण्ड राज्य की जन्म कुण्डली में ही लिखा हुआ है। राज्य बनते ही राजधानी निर्माण का घोटाला सुर्खियों में रहा। जब पहली निर्वाचित सरकार बनी तो पटवारी भर्ती घोटाले ने पौड़ी के जिलाधिाकारी की नौकरी ही खा ली थी। उनकी नौकरी कोर्ट से बच पायी। उसके बाद बहुचर्चित दरोगा भर्ती घोटाला हुआ, जिसमें तत्कालीन पुलिस महानिदेशक और अतिरिक्त महानिदेशक पर मुकदमा चला। भर्तियों के अलावा हुये घोटालों की संख्या सेकड़ों में राजनीतिक दलों ने गिनाई। राजनीतिक तंत्र ने घाटालेबाजों को सजा दिलाने के बजाय केवल उनका राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास किया। राजनीतिक दलों ने अब तक जो सेकड़ों की संख्या में घोटाले गिनाये थे और जिनकी जांच के लिये विभिन्न कमेटियां और आयोग बिठाये थे, उनमें से केवल ढेंचा घोटाले में एक मंत्री और सचिव दोषी माने गयेे। कितनी हैरानी का विषय है कि सत्ता से बाहर होने पर दो नेताओं में प्रतिद्वन्दी दल के दोषी करार दिये गये नेता को जेल जाने से बचाने का श्रेय लेने की होड़ तक लगी। अब विधान सभा की बैकडोर भर्तियों में भी दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर एक दूसरे का बचाव किया जा रहा है। जबकि विकास के मामलों में दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सहयोग होना चाहिये।

सन् 1993 में तत्कालीन  गृह सचिव एन एन वोहरा कमेटी की बहुर्चित रिपोर्ट में राजनेता, नौकरशाह और माफिया तंत्र के गठजोड़ का खुलासा हुआ था। उत्तराखण्ड में यह गठजोड़ राज्य गठन के समय से सक्रिय है जिसका सबसे पहले खुलासा पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने विधानसभा में किया था। अधीनस्थ चयन सेवा आयोग का पेपर लीक प्रकरण भी उसी गठजोड़ का नतीजा है। माफिया के फोटो राजनेताओं के साथ छपते रहे हैं। कुछ ही महिने पहले हरिद्वार और नोयडा में राज्य के नेताओं और नौकरशाहों के रिश्तेदारों के माफिया के साथ मिल कर किये गये जमीन घाटोले सार्वजनिक हुये थे।

सार्वजिक जीवन में सुचिता और शासन प्रशासन में पारदर्शिता तथा ईमान्दारी लाने के लिये अन्ना हजारे के आन्दोलन के फलस्वरूप संसद ने लोकपाल और लोकायुक्त कानून पास किये। घोटालों के इस माहौल में राज्य को लोकायुक्त की सख्त जरूरत है। लेकिन उत्तराखण्ड का लोकायुक्त विधानसभा में पिछले 4 सालों से लंबित पडा है। लोकायुक्त बिल पास कराने के बजाय समान नागरिक संहिता पर काम चल रहा है। जबकि अनुच्छेद 254 के तहत केन्द्रीय कानूनों के चलते राज्य का वही कानून अमान्य होता है। ऐसे महौल में हताश जनता का राजनीतिक तंत्र से विश्वास उठना स्वाभाविक ही है। इसलिये सरकार को उस खोये हुये विश्वास को पुनः हासिल करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे ।

 

 

 

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