ब्लॉग

वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक जयसिंह रावत ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को भेंट किया अपना नवीनतम शोध ग्रन्थ

–दिनेश सेमवाल शास्त्री —

वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक जय सिंह रावत ने आज मुख्यमंत्री आवास पर मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी से मुलाकात कर उन्हें अपनी नवीनतम पुस्तक :”बदलते दौर से गुजरती जन जातियां” भेंट की।  यह पुस्तक हाल ही में भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया (एन बी टी ) ने प्रकाशित की है।  देश के सबसे बड़े प्रकाशक  एन बी टी द्वारा प्रकाशित की जाने वाली श्री जय सिंह रावत की यह दूसरी पुस्तक है ।  दोनों ही पुस्तकें शोध ग्रन्थ हैं।  जय सिंह रावत की अब तक 8 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

इस शोध ग्रन्थ में  लेखक ने सरसरी तौर पर भारत के सम्पूर्ण जनजातीय समाज पर रौशनी डालने का प्रयास किया है लेकिन  पूरा फोकस केवल उत्तराखंड की पांचों जनजातियों  पर किया गया है।  इस ग्रन्थ में लेखक ने उत्तराखण्ड की पांचों जनजातियों एवं उनकी उपजातियों पर विकास की प्रकृयाओं और विशेष रूप से शिक्षा तथा स्वास्थ्य योजनाओं के प्रभाव को समझने का प्रयास करने के साथ ही जनजातीय लोगों की विविध संस्कृतियां, समाज, स्थान, भाषा, लिपि, जैविक भिन्नता, शैक्षिक स्तर, विकास का प्रभाव, भोजन की आदतें, पूजा पद्धतियां और परम्परागत प्रथाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।  यह ग्रन्थ लेखक के लगभग तीन  दशक से अधिक समय के शोध और अध्ययन का प्रतिफल है। लेखक के अनुसार उत्तराखण्ड की जनजातियों पर उपलब्ध डाटा काफी गड़बड़ है। जनगणना का डाटा अन्य बेस लाइन सर्वेक्षणों के डाटा से मेल नहीं खाता। राजियों और बुक्सों की जनसंख्या के आंकड़े इसका उदाहरण हैं। भोटिया की शैक्षिक स्थिति और जनजातियों की धार्मिक आस्था के आंकड़े भी असहज प्रतीत होते हैं। जनजातियों पर यह भ्रम नया नहीं है। जीआरसी विलियम्स और एटकिन्सन जैसे विद्वानों ने भी राज्य की जनजातियों के बारे में दर्ज आंकड़ों की वास्तविकता पर ऊंगली उठाई थी।

:”बदलते दौर से गुजरती जन जातियां” नाम की इस पुस्तक के बारे में लेखक कहना है कि मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की मुख्य धारा को ही हम एकमात्र धारा मान लेते हैं। जबकि इस धारा के अलावा भी एक धारा और है जो कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी अवश्य है, मगर वह अपने प्राचीन रीति रिवाजों, विशिष्ट धार्मिक परम्पराओं, अनूठी जीवन पद्धतियों के कारवांओं के साथ शनैः शनैः आगे बढ़ रही है। यह धारा इस धरती की हजारों ज्ञात और अज्ञात जनजातियों की है जिसकी उतनी उपधाराएं हैं जितनी कि इस धरती पर जाजातियां या आदिम जातियां हैं। वास्तव में आदिम समाज की यह धारा अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ी ही है और इन दोनों कालखण्डों के बीच जो कुछ भी स्मृतियां धरोहर के रूप में बची हुयी हैं उन्हें विरासत के रूप में संजो कर रखने की अहं जिम्मेदारी इन जनजातीय मानव समूहों ने ही निभाई है। मुख्य धारा के लिये मानव सभ्यता का अतीत जीवन्त नहीं बल्कि मर चुका है जिसे शब्दों में लपेट कर इतिहास की किताबों में थोपा गया है। जबकि जनजातियों का मानव समूह उस अतीत को जीवित अवस्था में वर्तमान तक लाया है। कोई भी व्यक्ति या मानव समूह आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ा हो सकता है मगर कोई भी सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से संस्कृति को पिछड़ेपन का आधार मान लिया गया है। जो समूह या व्यक्ति जितनी जल्दी अपना रहन-सहन, बोल-चाल और भाषा बदल रहा है उसे उतना अगड़ा या सभ्य माना जा रहा है। सभ्यता की इसी असभ्य परिभाषा के कारण अपनी सांस्कृतिक धरोहर को जीवन्त रखने वाली जनजातियों के प्रति मुख्य धारा के लोगों की हेय दृष्टि रही है और इसी दृष्टिदोष के शिकार लोग आज मुख्यधारा में सिर छिपाने के प्रयास में अपने पुरखों की धरोहर से किनाराकसी कर रहे हैं।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!