ब्लॉगशिक्षा/साहित्य

“वैराग्य राग रसिक” कवि तो शंकराचार्य जी ही थे 

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा-

महर्षि वेदव्यास कृत इस श्लोक को सिर्फ श्रीमद्भागवत पढ़ने वाले ही जानते होंगे जिन्होंने उसमें वर्णित गोकर्ण आख्यान के अंतर्गत गोकर्ण द्वारा अपने पिता पंडित आत्मदेव को समझाने का प्रसंग पढ़ा होगा। गोकर्ण अपने पिता को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि छोड़िए पिता जी यह सब माया- मोह का झंझट , इसमें चिपके रहने से आपको दुःख ही मिलेगा। दरअसल बात यह थी कि पंडित आत्मदेव अपने बड़े बेटे की हरकतों से बहुत दु:खी थे इसलिए गोकर्ण उनको सांत्वना देना चाहते थेI कहानी की पृष्ठभूमि लंबी है, पर यहां इतना कहना जरूरी है कि गोकर्ण का यह उपदेश उस वक्त की मांग थी, वह अपनी पंडिताई नहीं झाड़ रहा था …
,”देहेSस्थिमांसरुधिरेSभिमतं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममता विमुंचI
पश्यानिशं जगददिदं क्षणभंगनिष्ठं
वैराग्य राग रसिको भवभक्तिनिष्ठ:।।
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधु पुरुषाञ्जहि कामतृष्णम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमशु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।”
लेकिन शंकराचार्य जी नेअपने इस चर्पटिका स्तोत्र के माध्यम से अपनी किशोरावस्था में ही संन्यासी बनने के औचित्य को सिद्ध करने के लिए वैराग्य राग रसिक बन गये । अपनी बूढी बिधवा मां को अकेला छोड़कर वह किशोरावस्था में ही सन्यासी बन गए थे -जब उन्हें अक्ल आई तो जिंदगी भर इस अपराध-बोध से वह मुक्त न हो सके -यहाँ भी कहानी लम्बी है — उनकी
यह चर्पटिका स्तोत्र की रचना इतनी लोकप्रिय हुई कि भारत के गांव- देहातों में बूढ़े -बुजुर्ग अपने नाती पोतों को सुलाने के लिए लोरी की तरह इस गीत को गाने लगते थे। हम भी इस *भजन* को सुनते- सुनते बड़े हुए- मेरे पिता जी और ताऊ जी हमको अपनी गोद में बिठाकर
इसको अक्सर गाते रहते थे –
“”मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं॥
नारीस्तनभरनाभिनिवेशम
मिथ्या माया मोहावेशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं ,
मनसि विचारय बारम्बारम।।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः
का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्।।
यावज्जीवोपार्जनसक्त:
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे॥—भज गोविन्दं मूढमते …

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