कूड़ा निपटान की समस्या की विकरालता से दुबले होते नेता
—दिनेश शास्त्री—
शहरीकरण, औद्योगिकरण और आर्थिक विकास की इस दौड़ का नतीजा कुछ इस तरह हुआ जिससे हमें तत्कालिक सुख तो मिल गया, मगर परिणामस्वरूप जो कूड़ा उत्पन्न हुआ, उसके निपटान की समस्या ने बहुतों का सुख चैन ही छीन लिया। परेशान बेशक आम लोग हों लेकिन खास लोग इस कदर चिंता में दुबले होते हैं कि उनसे जनता का दुख देखा नहीं जाता। इस समस्या के समाधान के लिए संवेदनशीलता की जरूरत होती है और यह संवेदनशीलता दिखाई है उत्तराखंड के शहरी विकास मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने। प्रदेश में चल रही राजनीतिक उठापटक, अप्रिय घटनाक्रम और तमाम दुश्वारियों को पीछे छोड़ते हुए प्रेमचंद अग्रवाल कूड़ा निस्तारण की तकनीक समझने के लिए कुछेक परिजनों सहित अफसरों की टीम के साथ जर्मनी के दौरे पर हैं। वहां से वह कुछ तो ज्ञान लायेंगे जो धर्म, कर्म और योग के लिए प्रसिद्ध तीर्थनगरी ऋषिकेश और हरिद्वार की दशा सुधारने में मददगार होगा। यह दूरदृष्टि का ही नतीजा है कि प्रदेश के नेता बेहद संवेदनशीलता के साथ उत्तराखंड को देश के अग्रणी राज्यों में शुमार करने के लिए दिन रात प्रयासरत हैं। यह अलग बात है कि इन विदेशी दौरों का प्रदेश को बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिल पाता, किंतु नेताओं की भागदौड़ को कम तो नहीं आंका जा सकता। विडंबना यह है कि नेता और अफसर विदेश से सीख समझ कर तो बहुत आते हैं, लेकिन जब तक वह लौट कर आते हैं तो तब तक परिदृश्य बदल चुका होता है। ऐसा कई बार हो चुका है कि प्रदेश हित में आप कुछ नया समझ कर आए लेकिन जब उसको इंप्लीमेंट करने की बारी आए तो कभी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं या अफसर का विभाग बदल जाता रहा है। नतीजा यह रहता आया है कि ठीक से टूर रिपोर्ट तक जमा नहीं होती, जिससे उनके बाद पदासीन होने वाले नेता या अफसर को कोई सहायता मिल सके। निष्कर्ष यह कि सैरसपाटे पर हुआ खर्च बेकार हो जाता है। यह अलग बात है कि सरकारी खर्च पर परिजनों को विदेश घुमाने की इच्छा आजादी के बाद से ही कायम है, उस परम्परा को कोई नेता छोड़ना या तोड़ना चाहे तो संभव नहीं हो पाता। वैसे देखा जाए तो विदेश के सैरसपाटे पर अगर सरकारी खजाने से मान लिया जाए कि करीब 25 लाख रुपए खर्च हो रहे हों तो उसमें एकाध परिजन और चले जाते हैं तो क्या फर्क पड़ता है। जहां प्रदेश की जनता 25 लाख का खर्च उठा सकती है, वह खर्च यदि 30 लाख भी हो जाए तो उसे फिजूलखर्ची नहीं माना जाना चाहिए। उसके पीछे सदइच्छा को देखा जाना चाहिए, नेता के तरक्की पसंद दृष्टिकोण की तारीफ की जानी चाहिए जो जनता के कल्याण के लिए सोते – जागते निरंतर चिंतातुर रहते हैं। बीते सात आठ साल से तो देखने में नहीं आ रहा है लेकिन उससे पहले हम देखते आए हैं कि बड़े नेता अपनी पत्नी हो या दूसरे परिजन, उनके साथ हवाई जहाज में कैसे चढ़ते और उतरते देखे जाते थे।
खैर उत्तराखंड की तो बात ही निराली है। हमें तो देश के अन्य राज्यों से बेहतर होना है। इसके लिए विशेष की आधुनिकतम तकनीक का ज्ञान अर्जित करना जरूरी तो है ही। बेशक प्रधानमंत्री कितना ही लोकल से वोकल का नारा दें। मेक इन इंडिया का ढोल पीटें। पहला ज्ञान तो विदेश से ही प्राप्त करना चाहिए। इन विदेश यात्राओं के प्रति प्रदेशवासियों को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा। हालांकि यह भी सच है कि उनका दृष्टिकोण सकारात्मक न भी हो तो क्या बिगाड़ लेंगे। होना तो वही है जो दिव्य दृष्टि वाले माननीय नेतागण सोचते हैं।
यहां एक बात स्पष्ट की जानी नितांत जरूरी होती है। लोग कई बार अपने नेताओं को बुरा भला कहने से नहीं चूकते, किंतु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि कितने ही आरोपों से घिरने के बावजूद हमारे नेता माननीय ही कहलाते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि लाख कोशिश करने के बावजूद वे खुद तो माननीय नहीं कहला सकते। लिहाजा उन्हें पेट दर्द की दवा जरूर ले लेनी चाहिए ताकि वे प्रदेश के लिए फिक्रमंद नेताओं और अफसरों के विदेश दौरों को देख परेशान न हों। लोगों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, आखिर हमारे भले के लिए ही तो कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वे कर कुछ न पाएं किंतु उनकी भावना तो है। तभी तो वे सब कुछ करने के लिए तैयार हैं।
खैर बात कूड़ा निस्तारण की हो रही है। समस्या बेशक सार्वभौमिक है किंतु तीर्थनगरियों के लिए यह विदेश दौरा उम्मीद की किरण तो दिखाता ही है। अगर कुछ न भी हुआ तो एक अहसास तो होगा कि जिस इलाके में अभी नाक पर रूमाल रख कर गुजरना पड़ रहा है, शायद भविष्य में ऐसा नहीं होगा। लोग इतना अहसास करना भी सीख गए तो आधी समस्या तो वैसे ही खत्म हो जाएगी। बाकी फिर कभी विदेश दौरे से अर्जित किए गए ज्ञान को धरातल पर सचमुच उतारने का संयोग हुआ तो सोने पर सुहागा होने से कौन रोक सकता है? लिहाजा पाठकों से गुजारिश है कि उम्मीद रखें, बहुत ही जल्दी अच्छे दिन आने वाले हैं। फिर मत कहना कि खबर नहीं की थी।